
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-53
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
अर्जुन ने जतायी विराट रूप देखने की इच्छा
(ग्यारहवाँ अध्याय)
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।। 1।।
अर्जुन बोले-केवल मुझ पर कृपा करने के लिए आपने जो परम गोपनीय अध्यात्म-विषयक वचन कहे, उससे मेरा यह मोह नष्ट हो गया है।
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष महात्म्यमपि चाव्ययम्।। 2।।
क्योंकि हे कमल नयन! सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति तथा विनाश मैंने विस्तारपूर्वक आपसे ही सुने हैं और आपका अविनाशी महात्म्य भी सुना है।
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।। 3।।
हे पुरुषोत्तम! आप अपने-आपको जैसा कहते हैं, यह (वास्तव में) ऐसा ही है। हे परमेश्वर! आपके ईश्वर-सम्बन्धी रूप को मैं देखना चाहता हूँ।
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्।। 4।।
हे प्रभो! मेरे द्वारा आपका वह ऐश्वर रूप देखा जा सकता है-ऐसा अगर आप मानते हैं तो हे योगेश्वर! आप अपने उस अविनाशी स्वरूप को मुझे दिखा दीजिये।
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहóशः।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ।। 5।।
श्री भगवान् बोले-हे पृथानन्दन! अब मेरे अनेक तरह के और अनेक वर्णांे (रंगों) तथा आकृतियों वाले सैकड़ों-हजारों अलौकिक रूपों को तू देख।
व्याख्या-उपदेश दो प्रकार से दिया जाता है-कहकर और दिखाकर। पहले दसवें अध्याय में भगवान् ने अपने समग्र रूप का वर्णन किया कि मैं अपने एक अंश से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ। अब इस अध्याय में भगवान् अर्जुन के द्वारा प्रार्थना करने पर उसी रूप को प्रत्यक्ष दिखाते हैं।
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत।। 6।।
हे भरत वंशोद्भव अर्जुन! बारह आदित्यों को, आठ वसुओं को, ग्यारह रुद्रों को और दो अश्विनी कुमारों को तथा उनचास मरुद्गणों को देख, जिनको तूने पहले कभी देखा नहीं, ऐसे बहुत-से आश्चर्यजनक रूपों को भी तू देख।
व्याख्या-बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनी कुमार-ये तैंतीस कोटि (तैंतीस प्रकार के) देवता सम्पूर्ण देवताओं में मुख्य हैं। ये सब देवता भगवान् के समग्र रूप के अन्तर्गत हैं।
इहैकस्थं जगत्कृत्सनं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश चच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि।। 7।।
हे नींद को जीतने वाले अर्जुन! मेरे इस शरीर के एक देश में चराचर सहित सम्पूर्ण जगत् को अभी देख ले। इसके सिवाय तू और भी जो कुछ देखना चाहता है, वह भी देख ले।
व्याख्या-भगवान् अपने शरीर के किसी एक अंश में सम्पूर्ण जगत् देखने की आज्ञा देते हैं। इससे सिद्ध होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण समग्र हैं और उनके एक अंश में सम्पूर्ण जगत् (अनन्त ब्रह्माण्ड) है। जब सम्पूर्ण जगत् भगवान् के किसी एक अंश में है, तो फिर भगवान् के सिवाय क्या शेष रहा? सब कुछ भगवान् ही हुए!
न तु मां शक्स से द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।। 8।।
परन्तु तू इस अपनी आँख (चर्मचक्षु) से मुझे देख ही नहीं सकता, इसलिये मैं तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ, जिससे तू मेरी ईश्वरीय सामथ्र्य को देख।
व्याख्या-’पश्य’ क्रिया के दो अर्थ होते हैं-जानना और देखना। पहले (गीता 9/5) में ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ पदों से भगवान् को जानने की बात आयी है और यहाँ इन पदों से देखने की बात आयी है। तात्पर्य यह हुआ कि जो जानने में आता है, वह भी भगवान् हैं और जो देखने में आता है, वह भी भगवान् हैं। इतना ही नहीं, जानने और देखने के सिवाय भी जो कुछ है, वह भगवान् ही हैं-‘सदसत्तत्परं यत्’ (गीता 11/37)।
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।। 9।।
संजय बोले-हे राजन्! ऐसा कहकर फिर महायोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को परम ऐश्वर विराट रूप दिखाया।
व्याख्या-भगवान् को ‘महायोगेश्वर’ कहने का तात्पर्य है कि भगवान् सम्पूर्ण योगों के ईश्वर हैं। ऐसा कोई भी योग नहीं है, जिसके ईश्वर (स्वामी) भगवान् न हों। सब योग भगवान् के ही अन्तर्गत हैं।
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्।। 10।।
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्।। 11।।
‘जिनके अनेक मुख और नेत्र हैं, अनेक तरह के अद्भुत दर्शन हैं, अनेक अलौकिक आभूषण हैं, हाथों में उठाये हुए अनेक दिव्य आयुध हैं तथा जिनके गले में दिव्य मालाएँ हैं, जो अलौकिक वस्त्र पहने हुए हैं, जिनके ललाट तथा शरीर पर दिव्य चन्दन, कुंकुम आदि लगा हुआ है, ऐसे सम्पूर्ण आश्चर्यमय, अनन्त रूपों वाले तथा सब तरफ मुखों वाले देव (अपने दिव्य स्वरूप) को भगवान् ने दिखाया।’
दिवि सूर्यसहóस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्या˜ासस्तस्य महात्मनः।। 12।।
अगर आकाश में एक साथ हजारों सूर्यों का उदय हो जाय, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस महात्मा (विराट् रूप परमात्मा) के प्रकाश के समान शायद ही हो अर्थात् नहीं हो सकता।
व्याख्या-यदि हजारों सूर्यों का प्रकाश हो जाय तो भी वह है तो भौतिक ही! परन्तु भगवान् का प्रकाश दिव्य है, भौतिक नहीं। सूर्य में जो तेज है, वह भी भगवान् से ही आया है (गीता 15/12)।-क्रमशः (हिफी)