धर्म-अध्यात्म

भयभीत हुए अर्जुन, मांगी क्षमा

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-57

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-57
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

भयभीत हुए अर्जुन, मांगी क्षमा

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं-
सर्व समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः।। 40।।
हे सर्व स्वरूप! आपको आगे से भी नमस्कार हो और पीछे से भी नमस्कार हो! आपको सब ओर से (दसों दिशाओें से) ही नमस्कार हो! हे अनन्त वीर्य! असीम पराक्रम वाले आपने सबको (एक देश में) समेट रखा है, अतः सब कुछ आप ही हैं।
व्याख्या-ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, रुद्र, आदित्य, वसु, साध्य गण, विश्वेदेव, अश्विनी कुमार, मरुद्गण, पितृगण, सर्प, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, असुर, ऋषि-महर्षि, सिद्धगण, वायु, यमराज, अग्नि, वरूण, चन्द्रमा, सूर्य आदि और इनके सिवाय भीष्म, द्रोण, कर्ण, जयद्रथ आदि समस्त राजा लोग-ये सब-के-सब दिव्य विराट् रूप के ही अंग हैं। इतना ही नहीं, अर्जुन, संजय, धृतराष्ट्र तथा कौरव और पाण्डव सेना भी उसी विराट रूप के ही अंग हैं-सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः। तात्पर्य है कि जड़-चेतन, स्थावर-जंगम रूप से जो कुछ भी देखने, सुनने तथा सोचने मंे आ रहा है, वह सब अविनाशी भगवान् ही हैं।
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं-
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं-
मया प्रमादात्प्रणयेन वापि।। 41।।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि
विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं-
तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्।। 42।।
आपकी इस महिमा को न जानते हुए मेरे सखा हैं ऐसा मानकर मैंने प्रमाद से अथवा प्रेम से भी हठपूर्वक (बिना सोचे-समझे) ‘हे कृष्ण! हे यादव! हे सखे! इस प्रकार जो कुछ कहा है और हे अच्युत! हँसी-दिल्लगी में, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समय अकेले अथवा उन (सखाओं, कुटम्बियों आदि) के सामने मेरे द्वारा आपको जो कुछ तिरस्कार (अपमान) किया गया है, हे अप्रमेय स्वरूप! वह सब आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ अर्थात् आपसे क्षमा माँगता हूँ।
व्याख्या-अर्जुन का भगवान् के प्रति सखा भाव था परन्तु भगवान् के ऐश्वर्य को देखने से वे अपना सखा भाव भूल जाते हैं और भगवान् को देखकर आश्चर्य करते हैं, भयभीत होते हैं। उनके मन में यह सम्भावना ही नहीं थी कि जिनको मैं अपना सखा मानता हूँ, वे भगवान् ऐसे हैं।
पितासि लोकस्य चराचरस्य
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो-
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव।। 43।।
आप ही इस चराचर संसार के पिता हैं, आप ही पूजनीय हैं और आप ही गुरुओं के महान् गुरु हैं। हे अनन्त प्रभावशाली भगवन्! इस त्रिलोकी में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर आपसे अधिक तो हो ही कैसे सकता है!
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं-
प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः
प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।। 44।।
इसलिए स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को मैं शरीर से लम्बा पड़कर, प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ। पिता जैसे पुत्र का, मित्र जैसे मित्र का और पति जैसे पत्नी का (अपमान सह लेता है), ऐसे ही (आप मेरे द्वारा किया गया अपमान) सहने में अर्थात् क्षमा करने में समर्थ हैं।
अदृष्टपूर्व हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देवरूपं-
प्रसीद देवेश जगन्निवास।। 45।।
जिसको पहले कभी नहीं देखा, उस रूप को देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ और साथ ही साथ भय से मेरा मन अत्यन्त व्यथित हो रहा है। अतः आप मुझे अपने उसी देवरूप (शान्त विष्णु रूप) को दिखाइये। हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होइये।
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त-
मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन
सहóबाहो भव विश्वमूर्ते।। 46।।
मैं आपको वैसे ही किरीट (मुकुट)-धारी, गदाधारी और हाथ में चक्र लिये हुए अर्थात् चतुर्भुज रूप से देखना चाहता हूँ। इसलिये हे सहóबाहो! हे विश्वमूर्ते! आप उसी चतुर्भुज रूप से (संख-चक्र-गदा-पद्म सहित) हो जाइये।
मया प्रसन्नेन तवादर्जुनेदं
रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं-
यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।। 47।।
श्री भगवान् बोले-हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी सामथ्र्य से मेरा यह अत्यन्त श्रेष्ठ, तेज स्वरूप, सबका आदि और अनन्त विश्वरूप तुझे दिखाया है, जिसको तुम्हारे सिवाय पहले किसी ने नहीं देखा है।
न वेदयज्ञाध्यनैर्न दानै-
र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवं रूपः शक्य अहं नृलोके
द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।। 48।।
हे कुरुश्रेष्ठ! मनुष्य लोक में इस प्रकार के विश्व रूप वाला मैं न वेदों के पाठ से, न यज्ञों के अनुष्ठान से, न शास्त्रों के अध्ययन से, न दान से, न उग्र तपों से और न मात्र क्रियाओं से तेरे (कृपा पात्र के) सिवाय और किसी के द्वारा देखा जा सकता हूँ।-क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button