अर्जुन को स्वाभाविक कर्म की दिलायी याद
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-27)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-भगवान् अर्जुन से पहले यह कह चुके हैं कि तुम मेरे भक्त हो और यह भी कह आये हैं कि न में भक्तः प्रणश्यति अर्थात् मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता और यहाँ यह कहते हैं कि तुम नष्ट हो जाओगे अर्थात् तुम्हारा पतन हो जायेगा इस विरोध का क्या समाधान है?
उत्तर-भगवान् ने स्वयं ही उपर्युक्त वाक्य में ‘चेत्’ पद का प्रयोग करके इस विरोध का समाधान कर दिया है। अभिप्राय यह है कि भगवान्् के भक्त का कभी पतन नहीं होता यह ध्रुव सत्य है और यह भी सत्य है कि अर्जुन भगवान् के परम भक्त हैं इसलिये वे भगवान् की बात न सुनें उनकी आज्ञा का पालन न करें-यह हो ही नहीं सकता, किन्तु इतने पर भी यदि अहंकार के वश में होकर वे भगवान् की आज्ञा की अवहेलना कर दें तो फिर भगवान् के भक्त नहीं समझे जा सकते, इसलिये फिर उनका पतन होना भी युक्तिसंगत ही है।
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।। 59।।
प्रश्न-जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, इस वाक्य का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-पहले भगवान् के द्वारा युद्ध करने की आज्ञा दी जाने पर जो अर्जुन ने भगवान् से यह कहा था कि न योत्स्ये मैं युद्ध नहीं करूँगा, उसी बात को स्मरण कराते हुए भगवान् ने यहाँ उपर्युक्त वाक्य कहा है। अभिप्राय यह है कि तुम जो यह मानते हो कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तुम्हारा यह मानना केवल अहंकार मात्र है। युद्ध न करना तुम्हारे हाथ की बात नहीं है। अतएव इस प्रकार अज्ञान जनित अहंकार के वशीभूत होकर अपने को पण्डित, समर्थ और स्वतन्त्र समझना एवं उसके बल पर यह निश्चय कर लेना कि अमुक कार्य मैं इस प्रकार सिद्ध कर लूँगा और अमुक कार्य नहीं करूँगा, बहुत ही अनुचित है।
प्रश्न-तेरा यह निश्चय मिथ्या है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने यह दिखलाया है कि तुम्हारी यह मान्यता टिक न सकेगी, अर्थात् तुम बिना युद्ध किये रह न सकोगे, क्योंकि तुम स्वतंत्र नहीं हो प्रकृति के अधीन हो।
प्रश्न-यहाँ ‘प्रकृतिः’ पद किसका वाचक है और तेरी प्रकृति तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगी, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-जन्म-जन्मान्तर में किये हुए कर्मों के संस्कार जो वर्तमान जन्म में स्वभाव रूप से प्रादुर्भूत हुए हैं, उनके समुदाय का वाचक यहाँ ‘प्रकृतिः’ पद है, इसी को स्वभाव भी कहते हैं। इस स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य का भिन्न-भिन्न कर्मों के अधिकारी समुदाय में जन्म होता है और उस स्वभाव के अनुसार ही भिन्न-भिन्न मनुष्यों की भिन्न-भिन्न कर्मों में प्रवृत्ति हुआ करती है। अतएव यहाँ उपर्युक्त वाक्य से भगवान् ने यह दिखलाया है। अतएवं यहाँ उपर्युक्त वाक्य से भगवान् ने यह दिखलाया है कि जिस स्वभाव के कारण तुम्हारा क्षत्रिय कुल में जन्म हुआ है, वह स्वभाव तुम्हारी इच्छा न रहने पर भी तुमको जबर्दस्ती युद्ध में प्रवृत्त करा देगा। योग्यता प्राप्त होने पर वीरतापूर्वक युद्ध करना, युद्ध से डरना या भागना नहीं-यह तुम्हारा सहज कर्म है, अतएवं तुम इसे किये बिना रह नहीं सकोगे, तुमको युद्ध अवश्य करना पड़ेगा। यहाँ क्षत्रिय के नाते अर्जुन को युद्ध के विषय में जो बात कही है, वही बात अन्य वर्ण वालों को अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों के विषय में समझ लेनी चाहिये।
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽशोपि तत्।। 60।।
प्रश्न-‘कौन्तेय’ सम्बोधन का क्या भाव है?
उत्तर-अर्जुन की माता कुन्ती बड़ी वीर महिला थी, उसने स्वयं श्रीकृष्ण के हाथ संदेशा भेजते समय पाण्डवों को युद्ध के लिये उत्साहित किया था। अतः भगवान् यहाँ अर्जुन को ‘कौन्तेय’ नाम से सम्बोधित करके यह भाव दिखलाते हैं कि तुम वीर माता के पुत्र हो, स्वयं भी शूरवीर हो, इसलिये तुमसे युद्ध किये बिना नहीं रहा जायगा।
प्रश्न-जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि तुम क्षत्रिय हो, युद्ध करना तुम्हारा स्वाभाविक धर्म है, अतएव वह तुम्हारे लिये पाप कर्म नहीं है। इसलिये उसे न करने की इच्छा करना किसी प्रकार भी उचित नहीं है। इस पर भी जो तुम न्याय से प्राप्त युद्ध रूप सहज कर्म को करना नहीं चाहते हो, इसमें केवल मात्र तुम्हारा अविवेक ही हेतु है, दूसरा कोई युक्तियुक्त कारण नहीं है।
प्रश्न-उसको भी तू अपने स्वाभाविक कर्मों से बँधा हुआ परवश होकर करेगा, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि युद्ध करना तुम्हारा स्वाभाविक कर्म है-इस कारण तुम उससे बँधे हुए हो अर्थात् उससे तुम्हारा घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसलिये तुम्हारी इच्छा न रहने पर भी वह तुमको बलात् अपनी ओर आकर्षित कर लेगा और तुम्हें अपने स्वभाव के वश में होकर उसे करना ही पड़ेगा। इसलिये यदि मेरी आज्ञा के अनुसार अर्थात् सत्तावनवें श्लोक में बतलायी हुई विधि के अनुसार उसे करोगे तो कर्म बन्धन से मुक्त होकर मुझे प्राप्त हो जाओगे, नहीं तो राग-द्वेष के जाल में फँसकर जन्म-मृत्यु रूप संसार सागर में गोते लगाते रहोगे।
जिस प्रकार नदी के प्रवाह में बहता हुआ मनुष्य उस प्रवाह का सामना करके नदी के पार नहीं जा सकता वरं अपना नाश कर लेता है और जो किसी नौका या काठ का आश्रय लेकर या तैरने की कला से जल के ऊपर तैरता रहकर उस प्रवाह के अनुकूल चलता है, वह किनारे लगकर उसको पार कर जाता है, उसी प्रकार प्रकृति के प्रवाह में पड़ा हुआ जो मनुष्य प्रकृति का सामना करता है, यानी हठ से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर देता है, वह प्रकृति से पार नहीं हो सकता वरं उसमें अधिक फँसता जाता है, और जो परमेश्वर का या कर्मयोग का आश्रय लेकर या ज्ञानमार्ग के अनुसार अपने को प्रकृति से ऊपर उठाकर प्रकृति के अनुकूल कर्म करता रहता है, वह कर्म बन्धन से मुक्त होकर प्रकृति के पार चला जाता है अर्थात् परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।-क्रमशः (हिफी)