
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-75
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
अर्जुन को संसार का वृक्ष ज्ञान
(पन्द्रहवाँ अध्याय)
ऊध्र्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।। 1।।
श्री भगवान् बोले-ऊपर की ओर मूल वाले तथा नीचे की ओर शाखा वाले जिस संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष को (प्रवाह रूप से) अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसार-वृक्ष को जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदों को जानने वाला है।
व्याख्या-परिवर्तनशील होने पर भी संसार को ‘अव्यय’ कहने का तात्पर्य है कि संसार में निरन्तर परिवर्तन होने पर भी कुछ व्यय (खर्चा) नहीं होता अर्थात् अन्त नहीं होता। जैसे समुद्र के ऊपर कितनी लहरें उठती दीखती हैं, ज्वार-भाटा आता है, पर उसका जल उतना ही रहता है, घटता-बढ़ता नहीं। ऐसे ही निरन्तर परितर्वन दीखने पर भी संसार अव्यय ही रहता है।
परिवर्तनशील संसार भी परमात्मा की शक्ति ‘अपरा प्रकृति’ का कार्य होने से परमात्मा का ही स्वरूप है-‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता 9/19)। परिवर्तन रूप अपरा प्रकृति भी परमात्मा का स्वरूप है। यह संसार उस परमात्मा की ही लहरें हैं। जैसे ऊपर से लहरें दीखने पर भी समुद्र के भीतर कोई लहर नहीं है, भीतर से समुद्र सम-शान्त है, ऐसे ही ऊपर से संसार परिवर्तनशील दीखते हुए भी भीतर से एक सम, शान्त परमात्मतत्त्व है (गीता 13/27)। तात्पर्य यह हुआ कि संसार संसार रूप से अव्यय नहीं है, प्रत्युत भगवद् रूप से अव्यय है।
अधश्चोध्र्वं प्रसृतास्तस्य शाखा-
गुण प्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्य लोके।। 2।।
उस संसार-वृक्ष की गुणों (सत्त्व, रज और तम) के द्वारा बढ़ी हुई तथा विषय रूप कोंपलों वाली शाखाएँ नीचे, (मध्य में) और ऊपर (सब जगह) फैली हुई हैं। मनुष्य लोक में कर्मों के अनुसार बाँधने वाले मूल भी नीचे और ऊपर (सभी लोकों में) व्याप्त हो रहे हैं।
व्याख्या-प्रथम श्लोक में आये ‘ऊध्र्वमूलम्’ पद का तात्पर्य है-परमात्मा, जो संसार के रचयिता तथा उसके मूल आधार हैं, और यहाँ ‘मूलानि’ पद का तात्पर्य है-तादात्म्य, ममता और कामना रूप मूल, जो संसार में मनुष्य को बाँधते हैं। साधक को इन मूलों का तो छेदन करना है और ऊध्र्व मूल परमात्मा का आश्रय लेना है।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसंगशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।। 3।।
इस संसार-वृक्ष का जैसा रूप देखने में आता है, वैसा यहाँ (विचार करने पर) मिलता नहीं, क्योंकि इसका न तो आदि है, न अन्त है और न स्थिति ही है। इसलिये इस दृढ़ मूलों वाले संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष को दृढ़ असंगता रूप शस्त्र के द्वारा काट देना चाहिए।
व्याख्या-भगवान् आदि में भी हैं, अन्त में भी हैं, और मध्य में भी हैं (गीता 10/20, 32), परन्तु संसार न आदि में है, न अन्त में है और न मध्य में ही है अर्थात् संसार की सत्ता ही नहीं है-‘नसतो विद्यते भावः’ (गीता/ 2/16)। अतः एक भगवान् के सिवाय कुछ भी नहीं है।
इस श्लोक में आये ‘छित्त्वा’ पद का तात्पर्य काटना अथवा नाश (अभाव) करना नहीं है, प्रत्युत सम्बन्ध-विच्छेद करना है। कारण कि यह संसार-वृक्ष भगवान् की अपरा प्रकृति होने से अव्यय है।
संसार राग के कारण ही दीखता है। जिस वस्तु में राग होता है, उसी वस्तु की स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता दीखती है। यदि राग न रहे तो नेत्रों से संसार की सत्ता दीखते हुए भी महत्ता नहीं रहती। अतः ‘असंगशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा’ पदों का तात्पर्य है-संसार के राग को सर्वथा मिटा देना अर्थात् अपने अन्तःकरण में एक परमात्मा के सिवाय अन्य किसी से सम्बन्ध न मानना, सृष्टि मात्र की किसी भी वस्तु को अपनी और अपने लिए न मानना। वास्तव में संसार की सत्ता बन्धक कारक नहीं है, प्रत्युत उससे रागपूर्वक माना हुआ सम्बन्ध ही बन्धन कारक है। सत्ता बाधक नहीं है, महत्ता बाधक है। हम जिस वस्तु को महत्ता देते हैं, वही बाँधने वाली हो जाती है। महत्ता हमारी दी हुई है, उसमें है नहीं। संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करने पर संसार का संसार रूप से अभाव हो जाता है और वह भगवद् रूप से दीखने लगता है-‘वासुेवः सर्वम्।
ततः पदं तत्परिमार्गित्व्यं-
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।। 4।।
उसके बाद उस परम पद (परमात्मा) की खोज करनी चाहिये, जिसको प्राप्त हुए मनुष्य फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिससे अनादिकाल से चली आने वाली यह सृष्टि विस्तार को प्राप्त हुई है, उस आदि पुरुष परमात्मा के ही मैं शरण हूँ।
व्याख्या-संसार नित्य निवृत्त है, इसलिये उसका त्याग होता है-‘असंगशस्त्रेण दृढेन छित्वा’ और परमात्मा नित्य प्राप्त हैं, इसलिये उनकी खोज होती है-‘ततः पदं तत्परिमर्गितव्यम्।’ निर्माण और खोज-दोनों में बहुत अन्तर है। निर्माण उस वस्तु का होता है, जिसका पहले से अभाव है और खोज उस वस्तु की होती है, जो पहले से ही विद्यमान है। परमात्मा नित्य प्राप्त और स्वतः सिद्ध हैं, इसलिये उनकी खोज होती है, निर्माण नहीं होता। जब साधक परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करता है, तब खोज होती है। खोज करने के दो प्रकार हैं-एक तो कण्ठी गले में ही हो पर न दीखने से यह वहम हो जाय कि कण्ठी खो गयी तो हम उसकी खोज करते हैं। परमात्मा गले में पड़ी कण्ठी की खोज के समान हैं।
तात्पर्य है कि वास्तव में परमात्मा खोये नहीं हैं, पर संसार की ओर दृष्टि (सम्मुखता) रहने से हमारी दृष्टि परमात्मा की ओर नहीं जाती। उधर दृष्टि न जाना ही उसका खोना है।-क्रमशः (हिफी)