
गीता-माधुर्य-3
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक
तुम विजय आदि क्यों नहीं चाहते?
हम जिनके लिये राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे ही ये सब-के-सब लोग अपने प्राणों की और धनकी आशाको छोड़कर युद्धके लिये
खड़े हैं।। 33।।
वे लोग कौन हैं अर्जुन?
आचार्य, पिता, पुत्र, पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी बहुत-से सम्बन्धी हैं।। 34।।
ये ही लोग अगर तुम्हें मारने के लिये तैयार हो जायँ, तो?
ये भले ही मुझे मार डालें, पर हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिल जाय तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के राज्यके लिये तो कहना ही क्या है?।। 35।।
अरे भैया! राज्य मिलने पर तो बड़ी प्रसन्नता होती है, क्या तुम उसको भी नहीं चाहते?
हे जनार्दन ! इन धृतराष्ट्र के सम्बन्धियों को (जो कि हमारे भी सम्बन्धी हैं) मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारने से तो हमें पाप ही लगेगा। इसलिये हे माधव! इन धृतराष्ट्र सम्बन्धियों को हम मारना नहीं चाहते, क्योंकि हे माधव! अपने कुटुम्बियों को मार कर हम कैसे सुखी हो सकते हैं।। 36-37।।
ये तो तुम्हें मारने के लिये तैयार ही हैं, तुम ही पीछे क्यों हट रहे हो?
महाराज! इनका तो लोभ के कारण विवेक विचार लुप्त हो गया है, इसलिये ये दुर्योधन आदि कुल के नाश से होने वाले दोष को और मित्र द्रोह से होने वाले पाप को नहीं देख रहे हैं तो भी हे जनार्दन! कुल के नाशसे होने वाले दोष को जानने वाले हम लोगों को तो इस पाप से बचना ही चाहिये।। 38-39।।
अगर कुलका नाश हो भी जाय तो क्या होगा?
कुल का नाश होने पर सदा से चले आये कुलधर्म (कुल- परम्परा) नष्ट हो जाते हैं।
कुलधर्म के नष्ट होने पर क्या होता है?
कुलधर्म के नष्ट होने पर सम्पूर्ण कुल में अधर्म फैल जाता है।। 40।।
अधर्म के फैल जाने से क्या होता है?
अधर्म के फैल जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं।
स्त्रियोंके दूषित होनेसे क्या होता है?
स्त्रियोंके दूषित होनेसे वर्णसंकर पैदा होता है।। 41।।
वर्णसंकर पैदा होने से क्या होता है?
वह वर्णसंकर कुलघातियों (कुलका नाश करने वालों) को और सम्पूर्ण कुल को नरक में ले जाने वाला होता है तथा पिण्ड और पानी (श्राद्ध-तर्पण) न मिलने से उनके पितर भी अपने स्थान से गिर जाते हैं। इन वर्णसंकर पैदा करने वाले दोषों से कुल घातियों के सदा से चलते आये कुलधर्म और जातिधर्म- दोनों नष्ट हो जाते हैं।। 42-43।।
जिनके कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, उन मनुष्यों का क्या होता है ?
हे जनार्दन! उन मनुष्यों को बहुत समय तक नरकों में निवास करना पड़ता है, ऐसा हम सुनते आये हैं।। 44।।
युद्ध के ऐसे परिणाम को जब तुम पहलेसे ही जानते हो तो फिर तुम युद्ध के लिये तैयार ही क्यों हुए?
यही तो बड़े आश्चर्य और खेदकी बात है कि हम लोग बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने कुटुम्बियों को मारनेके लिये तैयार हो गये हैं।। 45।।
अब तुम क्या करना चाहते हो ?
मैं अस्त्र-शस्त्र छोड़कर युद्ध से हट जाऊँगा। अगर मेरे द्वारा ऐसा करने पर भी हाथों में शस्त्र लिये हुए दुर्योधन आदि मुझे मार दें तो वह मारना भी मेरे लिये बड़ा हितकारक होगा।। 46।।
कहने के बाद अर्जुनने क्या किया ?
संजय बोले- ऐसा कहकर शोकसे व्याकुल मनवाले अर्जुनने बाणसहित धनुषका त्याग कर दिया और रथके मध्यभागमें बैठ गये।। 47।।
ऊँ श्री परमात्मने नमः।।
दूसरा अध्याय
रथके मध्य भाग में बैठ जाने पर अर्जुन की क्या दशा हुई संजय?
संजय बोले – राजन्! जो बड़े उत्साह से युद्ध करने आये थे, पर कायरता के कारण जो विषाद कर रहे हैं और जिनके नेत्रों में इतने आँसू भर आये हैं कि देखना भी मुश्किल हो रहा है, ऐसे अर्जुन से भगवान् मधुसूदन बोले कि- हे अर्जुन! इस बेमौके पर तुझमें यह कायरता कहाँ से आ गयी? यह कायरता न तो श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा धारण करने लायक है, न स्वर्ग देने वाली है और न कीर्ति करने वाली ही है। इसलिये हे पार्थ! तू इस नपुंसकता को अपने में मत आने दे, क्योंकि तेरे जैसे पुरुष में इसका आना उचित नहीं है। अतः हे परंतप! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को छोड़कर तू युद्ध के लिये खड़ा हो जा।। 1-3।।
ऐसा सुनकर अर्जुन क्या बोले संजय?
अर्जुन बोले – महाराज! मैं मरने से थोड़े ही डरता हूँ, मैं तो मारने से डरता हूँ। हे अरिसूदन! ये भीष्म और द्रोण तो पूजा करने योग्य हैं। इसलिये हे मधुसूदन! ऐसे पूज्यजनों को तो कटु शब्द भी नहीं कहना चाहिये, फिर उनके साथ मैं बाणों से युद्ध कैसे करूँ?।। 4।।
अरे भैया! केवल कर्तव्य-पालन के सामने और भी कुछ देखा जाता है क्या?
महाराज! महानुभाव गुरुजनों को न मार कर मैं इस मनुष्य लोक में भिक्षा के अन्न से जीवन-निर्वाह करना भी श्रेष्ठ समझता हूँ। अगर आपके कहे अनुसार मैं युद्ध भी करूँ तो गुरूजनों को मारकर उनके खून से लथपथ तथा धनकी कामना की मुख्यता वाले भोगों को ही तो भोगूँगा! इससे मुझे शान्ति थोड़े ही मिलेगी!।। 5।। (हिफी)
(क्रमशः साभार)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)