
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
अष्टावक्र गीता-6
हिफी अपने पाठकों को ज्ञानवर्द्धक एवं प्रेरणा देने वाले आध्यात्मिक आलेख समय-समय पर मुहैया कराता रहता है। रामचरित मानस पर आधारित ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता के बाद श्रीमद्भागवत गीता की विशद् व्याख्या को क्रमबद्ध जारी करने के बाद हम महाज्ञानी अष्टावक्र और विदेह कहे जाने वाले राजा जनक के मध्य संसार और मुक्ति पर, ज्ञानी और मूर्ख पर संवाद को क्रमशः प्रस्तुत करेंगे। महात्मा अष्टावक्र शरीर से वक्र थे लेकिन प्रखर मेधा प्राप्त की थी। वे जब 12 वर्ष की उम्र के थे तभी राजा जनक के दरबार में विद्वानों को निरुत्तर कर दिया था। अष्टावक्र को देखकर विद्वान हंस पड़े तो अष्टावक्र ने उन्हंे चर्मकार कहा। राजा जनक को यह अपमानजनक लगा लेकिन जब अष्टावक्र ने कहा कि ये लोग मेरे शरीर (चमड़ी) को देखकर हंसे, आत्मा नहीं देखी तो शरीर को देखने वाले चर्मकार ही हो सकते हैं….। राजा जनक इससे बहुत प्रभावित हुए और उनके चरणों मंे शिष्य की तरह बैठकर ज्ञान प्राप्त किया था। राजा जनक ने ज्ञान, मुक्ति और बैराग्य के बारे मंे अष्टावक्र से अपने प्रश्नों का समाधान प्राप्त किया था। -प्रधान सम्पादक
यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत्।
आनन्द परमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर।। 10।।
अर्थात: जहाँ यह विश्व रस्सी में सर्प के समान कल्पित भासता है वही आनन्द परमानन्द बोध है। अतः तू सुखपूर्वक विचर।
व्याख्या: अष्टावक्र जी इस सूत्र में आत्मा एवं सृष्टि का सम्बन्ध बताते हुए कहते हैं कि आत्मा अरूप है, निराकार है। उसी निराकार का साकार रूप यह सृष्टि है। आकार बनते हैं व बिगड़ते हैं किन्तु मूल तत्व वही रहता है। स्वर्ण से विभिन्न आभूषण बनते हैं व उन्हें गलाकर पुनः विभिन्न आभूषण बनाये जाते हैं किन्तु मूल तत्व स्वर्ण वही रहता है। जो बनते, बिगड़ते हैं वे अनित्य हैं शाश्वत नहीं हैं। शाश्वत वही चैतन्य आत्म तत्व है। अध्यात्म में इसी अनित्य को भ्रम कहा है। यह आज दिखाई देता है, कल नहीं रहेगा। इसलिये इसका सहारा लेना भी भ्रान्ति है, मूर्खतापूर्ण है। फिर अष्टावक्र कहते हैं कि सृष्टि, रस्सी में जिस प्रकार कल्पित सर्प भासता है वैसे ही यह सर्प के समान दिखाई देता है किन्तु है यह रस्सी जैसी केवल तुम्हारी मनोदृष्टि से ही यह सर्प के समान दिखाई दे रही है। जैसी है उसका ज्ञान तुम्हें नहीं है। मनुष्य के मन में जैसे भाव हों यह संसार उसे वैसा ही दिखाई देता है। किन्तु संसार उससे भिन्न होता है। मन में भूत का भय रहने पर जंगल में क्या घर में ही भूत दिखाई देगा, स्वप्न में भी भूत आकर छाती पर बैठ जायेगा। किसी को चाँदनी प्यारी लगती है तो विरही को वह आग जैसी ज्ञात होती है।
सुखी आदमी को अपना घर अच्छा लगता है तो दुःखी को वही खाने को दौड़ता है। किसी को रस्सी साँप दिखाई देती है तो तुलसीदास जी को साँप भी रस्सी दिखाई दिया। किसी के लिये यह संसार फूलों की बगिया है तो किसी के लिये यह काँटों का वन है जिसमें उलझ-उलझ कर लोग मर रहे हैं। कुछ कहते हैं ईश्वर ने सृष्टि बनाई, यह बहुत सुन्दर है। पर्वत, नदी, झरने, मैदान, वन, समुद्र, बादल, इन्द्र धनुष, सूर्य, चाँद बड़े सुन्दर हैं तो कुछ को इसमें दुःख ही दुःख दिखाई दिया। यह सब मनुष्य की दृष्टि है, उसके देखने का ढंग है, उसकी जैसी मानसिक स्थिति होती है वैसी ही सृष्टि दिखाई देती है। यह दोष उसका नहीं, देखने वाले की दृष्टि का है। इसी प्रकार ज्ञानी व अज्ञानी की भी अपनी-अपनी दृष्टि है। अज्ञानी को यह सृष्टि सत्य दिखाई देती है। यह इसे शाश्वत भी मानता है कि यह सृष्टि अनादि है। इसको बनाने वाला कोई नहीं है। यह सृष्टि ही सत्य है। इससे परे कोई सत्य नहीं है। जो प्रत्यक्ष है, दिखाई दे रही है, वह असत्य या मिथ्या कैसे कही जा सकती है। परमात्मा जो दिखाई नहीं देता वह असत्य या मिथ्या हो सकता है किन्तु सृष्टि कभी मिथ्या नहीं हो सकती। यह नित्य है, शाश्वत है, सत्य है। बुद्ध ने इस सत्य एवं मिथ्या का अच्छा विवेचन किया है कि यह सृष्टि भ्रान्ति नहीं है, मिथ्या भी नहीं है, सत्य भी है किन्तु शाश्वत नहीं है। इसलिये यह क्षणिक सत्य है। थोड़े समय के लिए सत्य है। पूर्ण सत्य उसी को कहा है जो शाश्वत है, जो शाश्वत नहीं है वह सत्य नहीं हो सकता।
अष्टावक्र की दृष्टि अनूठी है। वे इन सब विवादों से ऊपर मर्म की बात कह रहे हैं। सभी अद्वैतवादी ऐसी ही रस्सी में साँप का, सीपी में चाँदी का, मृगमरीचिका का, गहनों में सोने का व घड़े में मिट्टी का उदाहरण देते हैं। अष्टावक्र भी कहते हैं कि यह विश्व रस्सी में सर्प की भाँति कल्पित भासता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि संसार नहीं है, या संसार कल्पना मात्र है बल्कि इसका अर्थ है संसार तो है, सृष्टि है, ये वन, पर्वत, नदियाँ, झरनें सभी हैं, ये जीव-जन्तु, वनस्पति आदि सभी हैं किन्तु इससे सुख की आशा करना मृग मरीचिका के समान है जो कभी मिल नहीं सकता। यदि संसार में सुख मिलता तो आज की दुनियाँ भौतिक दृष्टि से बड़ी सम्पन्न है। आज कृषि, विज्ञान, यातायात, दूरदर्शन, दूर-श्रवण आदि में अभूतपूर्व प्रगति की है, आज मनुष्य चाँद पर जा पहुँचा, सूर्य, चाँद सितारों से आगे की जानकारी ले आया, बुद्धि का चरम विकास कर लिया। जैसा लाखों वर्षों में नहीं हुआ वैसा इन चार वर्षों में कर दिखाया। आज सामान्य मनुष्य को भी घर में जितनी भौतिक सुविधाएँ प्राप्त हैं उतनी पाँच सौ वर्षों पहले बड़े-बड़े सम्पन्न व्यक्ति को भी प्राप्त नहीं थीं। फिर क्या कारण है कि मनुष्य दुःखी है। वास्तविकता यह है कि मनुष्य की जितनी सुविधाएँ बढ़ी हैं उतना ही वह अधिक दुःखी हुआ है। आज जितनी चिकित्सा-सुविधाएँ बढ़ी हैं उतनी ही बीमारियाँ भी बढ़ गईं, जितने न्यायालय बढ़े उतने ही जुर्म बढ़ गये, जितनी भौतिक सुविधाएँ बढ़ी उतना ही मनुष्य का नैतिक पतन अधिक हुआ, जितना ज्ञान बढ़़ा उतना ही अज्ञान भी बढ़ गया, जितने साधु, सन्त, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे बढ़े उतना ही अधर्म भी बढ़ गया, जितना कृषि का व उद्योगों का विकास हुआ उतनी ही भुखमरी व बेकारी भी बढ़ गई, जितना अच्छाई लाने का प्रयत्न किया गया उतनी ही बुराई अपने आप बढ़ती गई।
एक विपरीत समानान्तर व्यवस्था अपने आप बन गई। क्या कारण है इसका? इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। केवल अध्यात्म ही इसका उत्तर देता है कि इस सृष्टि में, इस संसार में, इन भोगों में सुख ढूँढना मूर्खता है। यह मृग मरीचिका है। कभी मिल नहीं सकता। क्योंकि बाह्य वस्तुओं में सुख है ही नहीं, मिलेगा कहाँ से? वह सुख का सागर, वह आनन्द का सागर तो तुम्हारे भीतर ही बह रहा है जिसे प्राप्त किये बिना सुख नहीं मिल सकता, आनन्द नहीं मिल सकता। उसे पा लो तो तुम धन्य हो जाओगे। स्वामी रामतीर्थ ने कहा है-‘टू सीक प्लेजर इन वल्र्डली ओब्जक्ट्स इन वेन, द दोम आॅफ ब्लिश इन विदिन यू।’ (सांसारिक विषयों में आनन्द ढूँढना व्यर्थ है। इस आनन्द का निवास तुम्हारे भीतर है) अष्टावक्र इसी सत्य को प्रकट करते हुए कहते हैं कि यह संसार रज्जु के समान है, निर्जीव है, प्रकृति मात्र है, भौतिक है। यह तुमको न सुख देता है, न दुःख, निरपेक्ष है। यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम इसका कैसा उपयोग करते हो। यह सर्पवत् नहीं है। तुम्हें इससे डरने की आवश्यकता नहीं है। विवेक से इसका उपयोग करना है किन्तु तुम इसमें सर्प की कल्पना करते भागे जा रहे हो, पसीना-पसीना हो रहे हो, सर्पवत् देखकर तुम्हारे हृदय की धड़कन बढ़ रही है। यह सब तुम्हारी भ्रान्ति अज्ञान के कारण पैदा हुई है।
अज्ञान अन्धकार के कारण तुम इसके वास्तविक स्वरूप को नहीं देख पाये इसलिये यह भ्रान्ति हुई है। अतः तुम ज्ञान-चक्षुओं से जब तक इसका वास्तविक स्वरूप नहीं देख लोगे तब तक भ्रान्ति मिटेगी नहीं। तुम ज्ञान-प्रकाश से उसे देखना तो चाहते नहीं। हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए भागे जा रहे हो। इससे तुम्हारी भ्रान्ति मिटेगी नहीं। वह तुम्हारी मानसिक दशा है। यदि भाग भी गये तो वही सर्प स्वप्न में तुम्हारी छाती पर चढ़ बैठेगा। अतः इस मानसिक बीमारी का इलाज केवल प्रत्यक्ष दर्शन है कि तुम वास्तविकता जान लो, अपनी आँखों से देख लो, अन्य विधि काम नहीं आयेगी। यही इस सूत्र कासार
है। -क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)