
राजा जनक के ज्ञानी होने की पुष्टि के बाद अष्टावक्र मोक्ष का उपाय बताते हुए कहते हैं कि तू सुख-दुख और आशा-निराशा को समान समझ।
अष्टावक्र गीता-26
सूत्र: 2
उदेति भवतो विश्वं वारिधेरिव बुद्बुदः।
इति ज्ञात्वैकमात्मानमेवमेव लयं व्रज।। 2।।
अर्थात: तुझसे संसार उत्पन्न होता है जैसे समुद्र से बुलबुला। इस प्रकार आत्मा को एक जानकर मोक्ष को प्राप्त हो।
व्याख्या: अष्टावक्र मोक्ष का उपाय बताते हुए कहते हैं कि यह आत्मा समुद्र के समान है एवं यह संसार उस समुद्र में उठे बुद्बुदे की भाँति है इसलिए यह संसार तुझ आत्मा से भिन्न नहीं है। समस्त सृष्टि एक है। इस प्रकार के एकत्व भाव को ग्रहण करके तू मोक्ष को प्राप्त हो। देवी भागवत् में भी कहा है-यह बन्ध और मोक्ष मन के ही धर्म हैं, मन के शान्त होने से बन्ध और मोक्ष का नाम भी नहीं रहता। आत्मा में मन के लय करने से सारा जगत् लय को प्राप्त हो जाता है। अष्टावक्र कहते हैं कि जब तक आत्मा के एकत्व का बोध नहीं होता, तब तक मोक्ष नहीं है।
सूत्र: 3
प्रत्यक्षमप्यवस्तुत्वाद्विश्वं नास्त्यमले त्वयि।
रज्जुसर्प इव व्यक्तमेवेमेव लयं व्रज।। 3।।
अर्थात: दृश्यमान जगत् प्रत्यक्ष होता हुआ भी रज्जु सर्प की भाँति तुझ शुद्ध के लिए नहीं है। इसलिए तू मोक्ष को प्राप्त हो।
व्याख्या: अज्ञानी को यह दृश्यमान जगत् स्थूल होेने से प्रत्यक्ष दिखाई देता है क्योंकि उसे इस आत्मतत्व का कुछ पता नहीं हैं किन्तु उसके पीछे जो सूक्ष्म है वह इन्द्रियों का विषय नहीं होने से प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता। आत्मज्ञानी ही इस तत्व को जानने में सक्षम है। अतः अष्टावक्र कहते हैं कि यह दृश्यमान जगत् प्रत्यक्ष होता हुआ भी रज्जु सर्प की भाँति तुझ शुद्ध, चैतन्य, आत्मज्ञानी के लिए सत्य नहीं है। तेरे लिए तो एकमात्र यह आत्मा ही सत्य है। ऐसा मानकर तू मोक्ष को प्राप्त हो। आत्मतत्व में दृढ़ निष्ठा वाला होना ही मुक्ति है।
सूत्र: 4
समदुःखसुखः पूर्ण आशानैराश्ययोः समः।
समजीवितमृत्युः सन्नेवमेव लयं व्रज।। 4।।
अर्थात: दुःख और सुख जिसके लिए समान है, जो पूर्ण है, जो आशा और निराशा में समान है, जीवन और मृत्यु मंे समान है। ऐसा होकर तू मोक्ष को प्राप्त हो।
व्याख्या: अष्टावक्र कहते हैं कि जब तूने यह जान लिया है कि यह आत्मा पूर्ण है और मैं शरीर नहीं आत्मा ही हूँ इसलिए मैं भी पूर्ण ही हूँ। यह सुख-दुःख मन के धर्म हैं, आशा-निराशा चित्त के धर्म हैं तथा जीवन और मृत्यु शरीर के धर्म हैं। तू इन तीनों से परे चैतन्य आत्मा है, जो साक्षी है। अतः ये आत्मा के धर्म कदापि नहीं हैं। इसलिए जब तूने अपने को आत्मा जान लिया तो तेरे लिए ये सब समान हैं। तुझे न इनसे प्रसन्नता है, न दुःख। ऐसा स्थित प्रज्ञ होकर तू मोक्ष को प्राप्त हो।
अष्टावक्र इन चार सूत्रों में मुक्ति का उपदेश करते हैं कि-देहाभिमान का त्याग, अद्वैत आत्मा का बोध, जगत् की भ्रान्ति का त्याग तथा द्वन्द्वों में समत्व-बुद्धि का होना ये चार धारणाएँ आत्मज्ञानी को मुक्त करा देती हैं।
छठा प्रकरण
(आत्मा आकाश की भाँति है उसका त्याग और ग्रहण नहीं है)
सूत्र: 1
आकाशवदनन्तोऽहं घटवत् प्राकृतं जगत्।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।। 1।।
अर्थात: मैं आकाश की भाँति अनन्त हूँ। यह संसार घड़े की भाँति प्रकृतिजन्य है, ऐसा ज्ञान है। इसलिए न इसका त्याग है, न ग्रहण और न लय है।
व्याख्या: पाँचवें प्रकरण में अष्टावक्र राजा जनक के आत्मज्ञान पर आश्वस्त होकर उन्हें मुक्ति का उपाय बताते हैं। साथ ही वे परोक्ष रूप से उनकी परीक्षा भी ले रहे हैं कि इसे मोक्ष की चाह है या नहीं। यदि चाह है तो इसका अर्थ है अभी मोक्ष हुआ नहीं। जहाँ न कुछ पाने को है, न छोड़ने को, न राग है, न विराग, न आसक्ति है, न विरक्ति, यहाँ तक कि न संसार है, न मुक्ति, चित्त की ऐसी शून्य एवं जाग्रत अवस्था का नाम ही मोक्ष है। यहाँ पहुँचा हुआ व्यक्ति शुद्ध चैतन्य मात्र रह जाता है। समाधि की स्थिति में जब व्यक्ति शून्यावस्था को प्राप्त हो जाता है तब उसे ब्रह्मात्मैक्य का बोध हो जाता है। वह व्यष्टि न रहकर समष्टि के साथ एक हो जाता है वह पूर्ण सत्तावान् ब्रह्म को जान लेता है, जान लेने से वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है, यह सत्य को जानकर स्वयं सत्य हो जाता है। इस स्थिति में पहंुचने से पूर्व कई क्रियाएँ करनी पड़ती हैं किन्तु पहुँचने पर उन सबको छोड़ना भी आवश्यक हो जाता है वरना वे ही क्रियाएं उसका बन्धन बन जाती हैं। नदी पार करके किनारा आने पर नाव भी छोड़नी पड़़ती है। फिर उसको ढोना मूर्खता ही है। पहुँचने पर शास्त्र, कर्म, विधि-विधान, ध्यान, धारणा, समाधि आदि सब छोड़ना आवश्यक हो जाता है क्योंकि इनकी उपयोगिता थी अब सब व्यर्थ हो गये, मन्दिर, पूजा, उपासना सब व्यर्थ हो गये। जीवन में इनकी उपयोगिता है, मोक्ष में इनकी कोई उपयोगिता नहीं है। संसार जागने के लिए बनाया गया है कि यहाँ सुख-दुःख आदि सब द्वन्द्वों का अनुभव करके तुम जागो। अष्टावक्र जनक की मुक्तावस्था की स्थिति को जानने हेतु जो उपदेश देते हैं जनक उनका उत्तर देते हुए कहते हैं कि-मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ। जिस प्रकार यह आकाश अनन्त है, असीम है, इसकी कोई सीमा नहीं है, उसी प्रकार मैं आत्म रूप होने से इस आकाश की भाँति ही अनन्त हूँ। यह संसार उसी आत्मा का साकार रूप है, उसी का स्थूल रूप है जो घट की भाँति है। जब यह सम्पूर्ण सृष्टि एक ही आत्मतत्व है तो फिर इसका त्याग, ग्रहण और लय कैसे व किसमें हो। त्याग, ग्रहण व लय में दो का होना आवश्यक है तब एक का त्याग, ग्रहण व लय दूसरे में होता है, अन्यथा नहीं। जब मैंने देख लिया कि आत्मा एक ही है वह वही सत्य है ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ ‘नेह नानास्ति किंचन’ ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ तो फिर किसका किसमें लय हो, क्या त्याग हो और क्या ग्रहण हो।
सूत्र: 2
महोदधिरिवाहं स प्रपच्ञो वीचिसन्निभः।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः।। 2।।
अर्थात: मैं समुद्र के समान हूँ, यह संसार तरंगों के समान है, ऐसा ज्ञान है। इसलिए न इसका त्याग है, न ग्रहण और न इसका लय है।
व्याख्या: जनक दूसरा उदाहरण देते हुए कहते हैं कि मैं आत्मरूप होने से समुद्र के समान हूँ एवं यह जगत् मेरी ही तरंगों के समान है, ऐसा ज्ञान मुझे हो चुका है। भिन्नताएँ जो भ्रान्तिवश प्रतीत हो रही थीं सब मिट चुकी हैं इसलिए न इसका त्याग है, न ग्रहण है? न इसका लय है। ऊपर के उदाहरण में आकाश एवं घट में भी भिन्नता की प्रतीति होती है कि घट एवं आकाश भिन्न तत्व हैं। इसलिए जनक इस दूसरे उदाहरण में लहर और सागर का उदाहरण देकर अद्वैत की स्थिति को स्पष्ट करते हैं कि आत्मा एक ही है, इसका न निर्माण होता है, न विनाश। इसलिए न इसे छोड़ा जा सकता है, न ग्रहण किया जा सकता है, न इसका किसी में लय ही होता है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)