अष्टावक्र ने ली जनक की परीक्षा (हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

राजा जनक को सचमुच आत्म ज्ञान हुआ अथवा वे भ्रांति मंे हैं, इसकी परीक्षा अष्टावक्र लेते हैं।
तीसरा प्रकरण
(आत्मज्ञान के बाद आसक्ति का त्याग हो जाता है)
सूत्र: 1
अविनाशिनमात्मानमेकं विज्ञाय तत्वतः।
तवात्मज्ञस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः।। 1।।
अर्थात: अष्टावक्र जी राजा जनक की परीक्षा लेने हेतु पूछते हैं कि इन्हें वास्तव में आत्मज्ञान हुआ है या आत्मज्ञान की भ्रान्ति हुई है। प्रश्न करते हैं-आत्मा को तत्वतः एक और अविनाशी जानकर भी तुझ आत्मज्ञानी धीर को धन कमाने में आसक्ति क्यों है?
व्याख्या: राजा जनक गुरु का उपदेश सुनकर जाग गये, भ्रान्ति मिट गई, वे सत्य को उपलब्ध हो गये। उनका अहंकार जाता रहा, कर्त्तापन जाता रहा, व्यष्टि से समष्टि हो गये, नया रूपान्तरण हो गया। उन्होंने कहा यह सब स्वभाव से हो रहा है। जब तक मनुष्य कर्ता भोक्ता है तब तक संघर्ष है, तनाव है। जब यह समझ लिया कि कर्त्तापन अहंकार के कारण है, सब कुछ स्वभाव से हो रहा है तो उसने अध्यात्म का रस चख लिया, वह मुक्त हो गया। तुमसे संसार का अस्तित्व नहीं है, बल्कि तुम्हारा अस्तित्व संसार से है। इस
धारणा से समर्पण होता है, विनम्रता आती है तभी परमात्मा का स्वाद आता है। जनक को अभिव्यक्ति के बाद अष्टावक्र उनकी परीक्षा लेने हेतु कई प्रश्न करते हैं कि इसे वास्तव में आत्मज्ञान हुआ है या बौद्धिक भ्रान्ति मात्र हुई है। अष्टावक्र सामान्य शिक्षक नहीं हैं, वे गुरु हैं। शिक्षक बौद्धिक ज्ञान मात्र देता है किन्तु गुरु अनुभव देता है, रूपान्तरण करता है, मुक्त कर देता है। बौद्धिक ज्ञान से ज्ञानी होने का भ्रम पैदा हो सकता है। शास्त्रों के अध्ययन एवं उपदेश से जानकारी होती है, पहुँचना नहीं हो सकता। ज्ञान आत्म जाग्रति से ही होता है। अष्टावक्र उनकी परीक्षा लेने हेतु प्रश्न करते हैं कि-
तूने आत्मा को एक ओर अविनाशी जान लिया फिर तेरी धन कमाने में क्या आसक्ति है? राजा जनक ने भौतिक पदार्थों का त्याग नहीं किया, कपड़े नहीं बदले, संन्यासी नहीं हुए, नग्न नहीं हो गये, महल छोड़कर जंगल नहीं गये, राज्य भी नहीं छोड़ा, सब जैसा था वैसा ही चल रहा था। इसलिए अष्टावक्र पूछते हैं कि आत्मज्ञानी होकर तेरी क्या अभी भी धन कमाने में आसक्ति है, क्या अभी भी परिग्रह में तेरी आस्था है, क्या अभी भी तुझे पद, प्रतिष्ठा, मान, सम्मान में आसक्ति है, क्या अभी भी सिंहासन में तेरी रुचि है। धन, पद, प्रतिष्ठा, सम्मान आदि की दौड़ तो अज्ञानी की दौड़ है। जिसको हीरा नहीं मिला वही कंकड़-पत्थर इकट्ठे करता है, जो स्वयं प्रतिष्ठित नहीं है वही दूसरों से प्रतिष्ठा पाना चाहता है जो भीतर से भिखमंगा है वही बाह्य वस्तुओं का संग्रह करता है, जिसे स्वयं में सुख नहीं मिला वही बाह्य पदार्थों में सुख ढूँढता है। आत्म ज्ञान तथा वासना साथ-साथ नहीं रह सकती, प्रकाश आने पर अँधेरा नहीं रह सकता। आत्म ज्ञानी के लिए सारी भौतिक सम्पदाएँ होना बुरा नहीं है, न पाप है। धन कमाना भी बुरा नहीं है पत्नी, बाल-बच्चे, घर, गृहस्थी होना भी बुरा नहीं है किन्तु इनके प्रति आसक्ति बुरी है। जो है उसे छोड़ना भी आसक्ति ही है। बिना आसक्ति के भी सब कुछ रखा जा सकता है, भोगा जा सकता है एवं कुछ नहीं होने पर भी आसक्ति हो सकती है। अतः ज्ञान और अज्ञान का सम्बन्ध भौतिक पदार्थों के त्याग और संग्रह से नहीं बल्कि आसक्ति और अनासक्ति से है। अष्टावक्र इस प्रश्न द्वारा जनक से यही जानना चाहते हैं कि विषयों में इसकी आसक्ति है या नहीं? धन ही वासनाओं में वृद्धि करता है तथा वासनाओं के बढ़ जाने पर अन्याय पूर्वक भी यह अधिक
धन प्राप्ति की इच्छा करने लगता है।
धन के कारण ही लोभ, मोह, राग-द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, छीना-झपटी, परिग्रह, उसकी सुरक्षा, दुश्मनी, हत्याएँ आदि अनेक पाप कर्म करने पड़ते हैं। इसलिए धन को सब पापों का मूल कहा गया है। अष्टावक्र इसी कारण प्रथम प्रश्न में ही धन के प्रति आसक्ति की बात पूछते हैं। यदि धन के प्रति आसक्ति नहीं है तो वह अनेक पापों से अपने आप ही छूट जाता है, फिर इनका परित्याग नहीं करना पड़ता एवं धन में आसक्ति रहते इन सब बुराइयों से बचा ही नहीं जा सकता। न्याय पूर्वक धन कमाना एवं उसे भोगना स्वधर्म है, पाप नहीं है, धर्म के कहीं विरुद्ध नहीं है। सब कुछ छोड़कर लंगोटी लगाकर, जंगल में भागने वाला ही धार्मिक है एवं गृहस्थी सभी पापी हैं ऐसी मान्यता मूढ़
लोगों के सिवाय और किसी की भी नहीं हो सकती।
सूत्र: 2
आत्माऽज्ञानादहो प्रीतिर्विषये भ्रमगोचरे।
शुक्तरेज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे।। 2।।
अर्थात: आश्चर्य कि आत्मा के अज्ञान से विषय का भ्रम होने पर वैसी ही प्रीति होती है जैसी सीपी के अज्ञान से चाँदी की भ्रान्ति में लोभ पैदा होता है।
व्याख्या: इस सूत्र से अष्टावक्र आसक्ति का कारण बताते हुए जनक से फिर प्रश्न करते हैं कि जिस प्रकार सीपी के अज्ञान से उसमें चाँदी की भ्रान्ति होती है एवं इसी चाँदी की भ्रान्ति से लोभ पैदा होता है। जब स्पष्ट देख लिया कि यह चाँदी नहीं है सीपी है तो फिर लोभ नष्ट हो जाना चाहिये। लोभ का कारण यह भ्रान्ति ही थी कि यह चाँदी है। इसी प्रकार आत्मा के अज्ञान से ही विषयों का भ्रम हो गया था एवं उनमें राग पैदा हो गया था, आसक्ति हो गई थी कि विषयों में ही सुख है किन्तु अब तो आत्म ज्ञान होेने से यह भ्रम छूट जाना चाहिए था। आश्चर्य है कि आत्म ज्ञान के बाद भी तू इन विषयों को नहीं छोड़ रहा है एवं इनसे प्रीति बनी हुई है। यह क्यों?
सूत्र: 3
विश्वं स्फुरित यत्रेदं तरंग इव सागरे।
सोऽहमस्मीति विज्ञान किं दीन इव धावसि।। 3।।
अर्थात: जहाँ यह विश्व आत्मा में समुद्र में तरंग के समान स्फुरित होता है, वही मैं हूँ, ऐसा जानकर क्यों तू दीन की तरह दौड़ता है?
व्याख्या: अष्टावक्र फिर कहते हैं कि जो स्वयं आनन्दित नहीं है वही दूसरों में आनन्द ढूँढता फिरता है, जो स्वयं सुखी नहीं है वही विषयों में सुख खोजता है, जो स्वयं तृप्त नहीं है वही दीनहीन भिखारी की तरह दूसरों से तृप्ति प्राप्त करना चाहता है। किन्तु दूसरे कभी सुख, आनन्द नहीं दे सकते, विषयों से क्षणिक सुख मिल सकता है किन्तु शाश्वत आनन्द नहीं मिल सकता। इन क्षणिक सुखों की प्राप्ति के लिए मनुष्य चोरी, हत्याएँ, बेईमानी, झूठ, कपट, शोषण, रिश्वत-खोरी, धोखा, फरेब सब करता है, हजारों को कष्ट पहुँचाता है, गला घांेटता है, भ्रष्ट लोगों की चाटुकारिता करता है, अपने को दीन-हीन समझकर दूसरों को अन्नदाता, गरीबनवाज, मालिक कहता है। यह सब किसलिए? इसलिए कि वह यह समझता है कि ये मुझे सुख देंगे। इसका कारण यह है कि उसके पास अतुल सम्पत्ति, परमानन्द का जो खजाना है उसका उसे ज्ञान नहीं है। इसलिए वह दीन-हीन होकर सदा दूसरों से याचना करता है। अष्टावक्र इसी तथ्य को प्रकट करते हुए जनक से प्रश्न करते हैं कि यह विश्व उस अथाह समुद्र रूपी आत्मा में तरंगों के समान क्षुद्र है जिनका कोई अस्तित्व नहीं है, न ये नित्य हैं। तू आत्मा रूपी अथाह समुद्र है ऐसा तूने जान लिया फिर महान् को छोड़कर तू दीन की तरह इन क्षुद्र तरंगों रूपी वासनाओं के पीछे दौड़ता है, हीरा मिलने पर भी कंकड़-पत्थरों की आकांक्षा रखता है, ऐसा क्यों? अष्टावक्र यह जानना चाहते हैं कि यह इन क्षुद्र वासनाओं से मुक्त हुआ या नहीं।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)