लेखक की कलम

माकपा को पुनर्जीवित करेंगे बेबी

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)
वामपंथ की पहचान और सबसे बड़ी पार्टी मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी माकपा आज खुद भी अपनी पहचान खो चुकी है। वामपंथियों के कभी तीन बड़े किले हुआ करते थे। पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल। पश्चिम बंगाल में लगातार 34 साल तक ज्योति बसु की सरकार रही और त्रिपुरा में 30 साल तक माणिक सरकार सत्ता पर काबिज रहे। तीसरा गढ़ केरल बचा है जहां मार्क्सवादी पार्टी के नेतृत्व में बना मोर्चा सत्ता संभाल रहा है। मार्क्सवादी पार्टी को एक बार केन्द्र में सरकार बनाने का भी अवसर मिल रहा था लेकिन तत्कालीन पार्टी महासचिव प्रकाश करात ने वो अवसर खो दिया। इतना ही नहीं प्रकाश करात के नेतृत्व में माकपा ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को गिराने का भी प्रयास किया था तब सपा और बसपा ने समर्थन देर सरकार बचाई थी। संक्षेप में यह इतिहास माकपा के नये महासचिव एमए बेबी भी जानते हैं और उन पर पार्टी को पुनर्जीवित करने का महती दायित्व है। वामपंथी धर्म पर विश्वास नहीं रखते इसलिए संजीवनी बूटी को भी वे नहीं मानते होंगे लेकिन इस समय पार्टी को उसी तरह की औषधि चाहिए। पिछले साल (2024) माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी का निधन हो गया था। इसके बाद अब केरल के पूर्व मंत्री बेबी को यह दायित्व सौंपा गया है। ध्यान देने की बात है कि प्रकाश करात जैसे दिग्गज नेताओं को दर किनार कर छात्र राजनीति से वामपंथ अपनाने वाले एम. ए. बेबी को माकपा का सबसे प्रमुख दायित्व सौंपा गया है। लोकसभा में वामपंथ की 4 और राज्यसभा में भी 4 सीटें हैं। राज्य विधानसभाओं में 80 विधायक हैं।
केरल के पूर्व मंत्री एम.ए. बेबी को 6 अप्रैल को माकपा के 24वें अधिवेशन में पार्टी का महासचिव चुना गया। वर्ष 1954 में केरल के प्रक्कुलम में पी एम अलेक्जेंडर और लिली अलेक्जेंडर के घर जन्में बेबी स्कूल के दिनों में ‘केरल स्टूडेंट्स फेडरेशन’ में शामिल हो गए थे। केरल स्टूडेंट्स फेडरेशन का नाम बाद में ‘स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया’ कर दिया गया था। बेबी 2012 से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की निर्णय लेने वाली सर्वोच्च संस्था पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं। पिछले साल सीताराम येचुरी के निधन के बाद पार्टी महासचिव का पद रिक्त हो गया था, जिसके बाद प्रकाश करात ने अंतरिम समन्वयक का पद संभाला। माकपा का 24वां अधिवेशन दो अप्रैल को शुरू हुआ था और 6 अप्रैल को समाप्त हुआ। बेबी ने अपनी स्कूली शिक्षा प्रक्कुलम प्राथमिक स्कूल और प्रक्कुलम एनएसएस हाई स्कूल से प्राप्त की। राजनीति से बेबी का पहला परिचय ‘केरल स्टूडेंट्स फेडरेशन’ में शामिल होने के बाद हुआ, जबकि उस समय वह स्कूली छात्र थे। बेबी ने राजनीति विज्ञान में स्नातक की पढ़ाई के लिए एसएन कॉलेज, कोल्लम में दाखिला लिया, लेकिन वे कोर्स पूरा नहीं कर सके। बेबी पूर्व में एसएफआई और डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया में कई पदों पर रह चुके हैं। माकपा नेता बेबी 1986 से 1998 तक राज्यसभा के सदस्य रहे और बाद में 2006 से 2016 तक दो कार्यकालों के लिए कुंदरा निर्वाचन क्षेत्र से विधायक बने। उन्होंने 2006-2011 तक केरल के शिक्षा मंत्री के रूप में भी पदभार संभाला। बेबी ने 2014 में रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार एन के प्रेमचंद्रन के खिलाफ कोल्लम से लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए। बेबी के परिवार में उनकी पत्नी बेट्टी लुइस और बेटा अशोक बेट्टी नेल्सन हैं।
इस प्रकार नये महासचिव के पास अनुभव है लेकिन इस बीच परिस्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। वर्ष 2004 का लोकसभा चुनाव देश की राजनीति को नई दिशा देने वाला चुनाव था। वर्ष 2002 के गुजरात दंगों के बाद हुए चुनाव में पर्ू्व प्रधानमंत्री दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का इंडिया साइनिंग का नारा फ्लॉप हो गया था। एनडीए हार गया। यूपीए को शानदार जीत मिली लेकिन, यूपीए की इस जीत में एक बड़ी हिस्सेदारी वामपंथी दलों की थी। लोकसभा चुनाव में वाम दलों को कुल 59 सीटें मिली थीं। उस चुनाव में केवल माकपा को 43 और भाकपा को 10 सीटें मिली थीं, जो भारत के संसदीय इतिहास में वाम दलों की सबसे बड़ी जीत थी। कांग्रेस पार्टी को अपने दम पर 145 सीटें मिली थीं। फिर वाम दलों और अन्य पार्टियों के साथ मिलकर यूपीए गठबंधन ने सरकार बनाई। वाम दलों को मिली इस बड़ी जीत का श्रेय माकपा के युवा महासचिव प्रकाश करात को मिला। प्रकाश करात की छवि खांटी कम्युनिस्ट नेता की थी। वह जेएनयू से पढ़े-लिखे नेता थे।
वर्ष 2004 के चुनाव के बाद प्रकाश करात एक बडे़ नेता बनकर उभरे। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार में वाम दल शामिल तो नहीं हुए लेकिन, माकपा के सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष बनाए गए। लेकिन, प्रकाश करात की माकपा का अड़ियल रुख मनमोहन सिंह के लिए कांटों भरी राह साबित हुई। इसी के बाद माकपा के दिन ढलने लगे थे।
गत 6 अप्रैल को माकपा की एक अहम बैठक में प्रकाश करात, उनकी पत्नी वृंदा करात और अन्य कई वरिष्ठ नेताओं को सबसे ताकतवर पोलित ब्यूरो से बाहर कर दिया गया। माकपा ने पोलित ब्यूरो सदस्य मरियम एलेक्जेंडर बेबी को नया महासचिव बनाया है। दरअसल, मनमोहन सिंह ने भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए अमेरिका के साथ परमाणु करार किया। प्रकाश करात को यह समझौता नागवार गुजरा। परमाणु समझौते के विरोध में माकपा ने समर्थन वापस लेने की घोषणा कर दी। उसने मनमोहन सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा कर दी। यह समझौता 2008 में अंतिम रूप से लागू हुआ था, लेकिन इसकी शुरुआत और चर्चा 2005-06 से ही शुरू हो गई थी। वामपंथी दलों ने 2004 के आम चुनावों के बाद यूपीए को समर्थन देने का फैसला किया था, लेकिन उनकी शर्त थी कि सरकार उनकी नीतियों और विचारधारा का सम्मान करेगी। करात और वामपंथी दलों का तर्क था कि यह समझौता भारत को अमेरिका के प्रभाव में ला देगा और देश की स्वतंत्र परमाणु नीति को कमजोर करेगा। दूसरी ओर, मनमोहन सिंह इस समझौते को भारत की ऊर्जा जरूरतों और अंतरराष्ट्रीय स्थिति को मजबूत करने के लिए जरूरी मानते थे। बहरहाल समर्थन वापसी के बाद 21-22 जुलाई, 2008 को लोकसभा में मनमोहन सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। यह प्रस्ताव विपक्षी दलों खासकर बीजेपी और वामपंथी दलों के सहयोग से पेश किया गया था। प्रकाश करात ने इस प्रस्ताव को समर्थन देने में बड़ी भूमिका निभाई। उन्होंने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि वामपंथी दल इस समझौते को स्वीकार नहीं करेंगे और सरकार को इसके लिए कीमत चुकानी होगी। यह पहला मौका था जब वामपंथी दलों ने यूपीए के खिलाफ इतना सख्त रुख अपनाया था। अविश्वास प्रस्ताव के दौरान लोकसभा में तीखी बहस हुई। सरकार पर संकट के बादल मंडरा रहे थे, क्योंकि वामपंथी दलों के 59 सांसदों के समर्थन के बिना यूपीए का बहुमत खतरे में था। हालांकि, मनमोहन सिंह ने इस संकट से निपटने के लिए दूसरी रणनीति अपनाई। समाजवादी पार्टी (एसपी) और कुछ अन्य छोटे दलों को अपने पक्ष में करके सरकार ने बहुमत हासिल कर लिया। 22 जुलाई, 2008 को हुए मतदान में सरकार 275 वोटों के साथ जीत गई, जबकि अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में 256 वोट पड़े। इस जीत ने मनमोहन सिंह की राजनीतिक सूझबूझ को साबित किया, लेकिन प्रकाश करात और वामपंथी दलों की भूमिका ने इस घटना को ऐतिहासिक बना दिया। वामपंथी दलों की यह रणनीति उनके लिए राजनीतिक रूप से नुकसानदेह साबित हुई। 2009 के आम चुनावों में उनकी सीटें कम हुईं और यूपीए दोबारा सत्ता में आई। (हिफी)

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