बहादुरी से मौत का संदेश देती बैसाखी
पांच वीर शीश देने को हुए थे तैयार जो कहलाते हैं पंच प्या

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भारत में पर्व और त्योहार ज्यादातर फसलों के तैयार होने पर मनाए जाते हैं। सिख धर्म का पर्व बैसाखी भी रबी की फसलें तैयार होने पर ही मनाया जाता है लेकिन इन पर्वों के साथ ऐतिहासिकता भी जुड़ी है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भारत मंे जिस समय मुगलिया सल्तनत धर्म परिवर्तन और अत्याचार की खूनी दास्तान लिख रही थी, उसी समय हिन्दू समाज के अंदर यह जज्बा पैदा हुआ कि कायरों की तरह मरने की अपेक्षा लड़ते हुए जान देना कहीं बेहतर है। यह संदेश बैसाखी देती है। धार्मिक कट्टर बादशाह औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर को इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए प्रताड़ित किया लेकिन गुरु तेग बहादुर ने अपना शीश कटवा दिया, औरंगजेब की बात नहीं मानी। सिख पंथ के नौवें गुरु तेग बहादुर की शहादत का यह पर्व है। इसी के बाद सिख पंथ के 10वें अर्थात् अंतिम गुरु गोविन्द सिंह ने इसी दिन खालसा पंथ की स्थापना की और सिखों को बताया कि भेड़-बकरियों की तरह जान नहीं देनी है, बल्कि हमंे लड़ते हुए वीरगति प्राप्त करनी चाहिए। इस वर्ष 14 अप्रैल को बैसाखी मनायी जाएगी। बैसाखी पंजाब राज्य में सिख समुदाय द्वारा मनाया जाने वाला प्रमुख त्योहार है। देश-विदेश में बैसाखी के अवसर पर, विशेषकर पंजाब में मेले लगते हैं। लोग सुबह-सुबह सरोवरों और नदियों में स्नान कर मंदिरों और गुरुद्वारों में जाते हैं। लंगर लगाए जाते हैं और चारों तरफ लोग प्रसन्न दिखलाई देते हैं। विशेषकर किसान, गेहूं की फसल को देखकर उनका मन नाचने लगता है। गेहूं को पंजाबी किसान ‘कनक’ यानी सोना मानते हैं। यह फसल किसान के लिए सोना ही होती है, उसकी मेहनत का रंग दिखाई देता है। बैसाखी पर गेहूं की कटाई शुरू हो जाती है। बैसाखी पर्व बंगाल में पैला नाम से, दक्षिण में बिशु नाम से और केरल, तमिलनाडु व असम में बिहू के नाम से मनाया जाता है। गुरु गोबिंद सिंह जी बैसाखी दिवस को विशेष गौरव देना चाहते थे।
’ गुरु साहिब की ललकार को सुनकर पांच वीरों दया सिंह खत्री, धर्म सिंह जट, मोहकम सिंह छीवां, साहिब सिंह और हिम्मत सिंह ने अपने-अपने शीश गुरु गोबिंद सिंह जी को भेंट किए। ये पांचों सिंह गुरु साहिब के पंच प्यारे कहलाए। गुरु साहिब ने सबसे पहले इन्हें अमृतपान करवाया और फिर उनसे खुद अमृत पान किया। इस प्रकार 1699 की बैसाखी को खालसा पंथ का जन्म हुआ जिसने संघर्ष करके उत्तर भारत में मुगल साम्राज्य को समाप्त कर दिया। हर साल बैसाखी के उत्सव पर खालसा पंथ का जन्म दिवस मनाया जाता है। वक्त के साथ भांगड़ा और गिद्दा का स्वरूप बदलता रहा है। किंतु आज भी फसल की कटाई के साथ ही ढोल बजने लगता है, ढोल हमेशा से ही पंजाबियों का साथी रहा है। ढोल से धीमे ताल द्वारा मनमोहक संगीत निकलता है। पिछली सदियों में आक्रमणकारियों से होशियार करने के लिए ढोल बजाया जाता था। इसकी आवाज दूर तक जाती थी। ढोल की आवाज से लोग नींद से जाग जाते थे। संकट के समय ढोल की आवाज लोगों को सूचना देती थी और घरों से निकलकर वे दुश्मन पर टूट पड़ते थे। देश की परतंत्रता की परिस्थितियों में लोग जूझने के लिए अपने आप को तैयार रखते थे। बैसाखी का त्योहार बलिदान का त्योहार है। 1699 ई. की बैसाखी से हर साल बैसाखी देश की सुरक्षा के लिए लोगों को जगाती आई है। 1716 ई. में बंदा बहादुर की शहादत के बाद तो पंजाब सिखों की वीरता की मिसाल बन गया। मिसलदार प्रत्येक साल बैसाखी के अवसर पर श्री अमृतसर में हरमंदिर साहिब में वर्ष भर का हिसाब देते थे। 13 अप्रैल 1919 को सैकड़ों लोग जलियांवाला बाग में देश की आजादी के लिए जनरल डायर के सैनिकों की गोलियों के आगे निशस्त्र सीना तान कर खड़े रहे और शहीद हो गए।
बैसाखी पर देशवासी इन शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं। गुरुद्वारों में अरदास के लिए श्रद्धालु जाते हैं। आनंदपुर साहिब में, जहां खालसा पंथ की नींव रखी गई थी, विशेष अरदास और पूजा होती है। गुरुद्वारों में गुरु ग्रंथ साहिब को समारोहपूर्वक बाहर लाकर दूध और जल से प्रतीक रूप से स्नान करवा कर तख्त पर प्रतिष्ठित किया जाता है। इसके बाद पंच प्यारे पंचबानी गायन करते हैं। अरदास के बाद गुरु जी को कड़ाह-प्रसाद का भोग लगाया जाता है। पंच प्यारों के सम्मान में शबद-कीर्तन गाए जाते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि हिंदू पंचांग के अनुसार गुरु गोबिंद सिंह ने वैशाख माह की षष्ठी तिथि के दिन खालसा पंथ की स्थापना की थी। इसी दिन मकर संक्रांति भी थी। इसी कारण से बैसाखी का पर्व सूर्य की तिथि के अनुसार मनाया जाने लगा। सूर्य मेष राशि में प्रायः 13 या 14 अप्रैल को प्रवेश करता है, इसीलिए बैसाखी भी इसी दिन मनाई जाती है। प्रत्येक 36 साल बाद भारतीय चंद्र गणना के अनुसार बैसाखी 14 अप्रैल को पड़ती है। बैसाखी पर किसान का घर फसल से भर जाता है। इस खुशी में ढोल बजाए जाते हैं। भांगड़ा करते बूढ़े, बच्चे और जवान थिरकने लगते हैं। मेला बैसाखी विश्वभर में पंजाबियों का एक कौमी जश्न माना जाता है। पंजाबी लोगों का यह सबसे बड़ा मेला है। (हिफी)