संवेदना व सुरक्षा के बीच संतुलन

सभ्यता के विकास के साथ इंसान और जीव पशु मवेशी सहजीवन जीते आए हैं। मानव ने अपनी ईश्वर प्रदत्त बौद्धिक क्षमता से पशुओं जीवों को अपने नियंत्रण में लेकर उनका उपयोग किया। सामान की आवाजाही से लेकर यात्रा परिवहन तक पशुओं पर आश्रित रहे। कभी इंसान अपने भोजन को जुटाने के लिए शिकार के लिए कुत्तों का इस्तेमाल करते थे लेकिन समय के साथ साथ पशुओं के स्थान पर मशीनों का उपयोग विकसित हो गया। अब पशुओं की उपयोगिता कम हुयी तो अदालतें उनके लिए सीमाएं भी स्थापित करने लगी हैं।
हाल ही में देश में विभिन्न राज्यों में आवारा कुत्तों व अन्य मवेशियों की समस्या को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है, यह फैसला सार्वजनिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, लेकिन इसके साथ चुनौतियां, नैतिक वैज्ञानिक प्रश्न, कार्यान्वयन संबंधी रस्साकशी भी जुड़ी हुई हैं। दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने देशभर में आवारा कुत्तों और पशुओं से बढ़ते खतरे पर संज्ञान लेते हुए कई अहम दिशा-निर्देश जारी किए हैं। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, संदीप मेहता और एन.वी. अंजारिया की पीठ ने यह स्पष्ट किया कि शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों और खेल परिसरों जैसे सार्वजनिक स्थलों में आवारा कुत्तों के प्रवेश पर रोक लगाना अनिवार्य है। साथ ही, भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) और राज्यों को आदेश दिया गया है कि राजमार्गों और एक्सप्रेसवे से आवारा मवेशियों और पशुओं को हटाया जाए। यह फैसला, एक ओर जहां नागरिक सुरक्षा और जनस्वास्थ्य की दृष्टि से स्वागत योग्य है, वहीं दूसरी ओर इसने पशुप्रेमियों और पशु-अधिकार संगठनों के बीच चिंता और असंतोष भी पैदा किया है। हालांकि देखा जाए तो आवारा कुत्तों-पशुओं से होने वाले हादसे, विशेष रूप से बच्चों पर हमले व रेबीज के बढ़ते मामलों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य, शहरी प्रबंधन और पशु कल्याण की चुनौतियों को एक नए सिरे से उजागर किया है। इस पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी सख्त निर्देशों का महत्व अनायास ही बढ़ गया है।
इस आदेश का उद्देश्य निस्संदेह सराहनीय है। सार्वजनिक सुरक्षा चिंताओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता, कब-किसने, किस स्थान पर, कितनी बार आवारा जानवरों ने मानवों पर हमला किया है, उन घटनाओं में बच्चों और बुजुर्गों का सुरक्षा-झुकाब पहले से ही अधिक रहा है। ऐसे में संवेदनशील स्थानों पर जानवरों की उपस्थिति न सिर्फ भय का कारण है, बल्कि गंभीर स्वास्थ्य जोखिम जैसे रेबीज का प्रसारण का भी जरिया बन सकती है। अगर देखा जाए तो पिछले कुछ वर्षों में देशभर में कुतों के काटने के मामलों में भयावह वृद्धि हुई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2024 में ही देशभर में लगभग 37 लाख से अधिक लोगों को कुत्तों ने काटा, जबकि रेबीज से हर वर्ष 18 से 20 हजार मौतें होती हैं। अकेले दिल्ली में पिछले वर्ष रेबीज से 54 लोगों की जान गई। ऐसे में यह स्पष्ट है कि यह केवल पशु अधिकार का नहीं, बल्कि सार्वजनिक सुरक्षा और स्वास्थ्य का गंभीर प्रश्न बन चुका है। शैक्षणिक संस्थानों और अस्पतालों में बढ़ते हमले न केवल बच्चों और बुजुर्गों के लिए भय का कारण बने हैं, बल्कि संस्थागत कार्यप्रणाली को भी बाधित कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश कि ऐसे परिसरों को आठ सप्ताह के भीतर डॉग-फ्री जोन बनाया जाए, इसी बढ़ते संकट का जवाब है। इस आदेश के विरोध में पशु-अधिकार कार्यकर्ताओं और संगठनों ने भी मुखर प्रतिक्रिया दी है। बीजेपी सांसद और पशुप्रेमी मेनका गांधी ने इस फैसले को व्यवहारिक रूप से असंभव बताया है। उनका तर्क है कि यदि किसी शहर से 5000 कुत्तों को हटाया भी जाए, तो उन्हें रखा कहां जाएगा? देश में फिलहाल इतने आश्रय गृह नहीं हैं और न ही उनके संचालन के लिए प्रशिक्षित जनशक्ति। पेटा इंडिया ने भी इसी तर्क के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का विरोध किया है। उनका मानना है कि यह फैसला पशुओं के साथ क्रूरता को बढ़ावा देगा और कैच एंड कन्फाइन नीति लंबे समय में समाधान नहीं है। विशेषज्ञों की भी राय माने तो शेल्टर होम्स का निर्माण, संचालन, रख-रखाव संसाधन-गहन होगा। अनुमान है कि बड़े पैमाने पर कुत्तों को शेल्टर में स्थानांतरित करना भौतिक रूप से कठिन है। पशु कल्याण के दृष्टिकोण से यह स्पष्ट नहीं है कि क्या पर्याप्त शेल्टर लॉजिस्टिक तैयार हैं और वहां जाकर कुत्तों के स्वास्थ्य, देखभाल, मानदंड ठीक से बचे रहेंगे कि नहीं, इस पर चिंताएं उठ रही हैं।
दोनों ही दृष्टिकोण अपनी-अपनी जगह से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यदि हम मानव जीवन, विशेष रूप से बच्चों की सुरक्षा को सर्वोपरि मानते हैं, तो निःसंदेह यह कदम जायज ठहरता है लेकिन अगर हम पशुओं के अधिकार हक, उनकी सामाजिक पारिस्थितिकी तथा मानवीय सहयोग-व्यवस्थाओं को भी महत्व देते हैं, तो हमें यह देखना होगा कि समाधान सख्ती के साथ-साथ संयम और दीर्घकालीन रणनीति पर आधारित हो। मगर यह बात तय है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को केवल पशुओं के खिलाफ कदम समझना भूल होगी। यह कदम मानव सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उठाया गया है। अदालत ने यह भी सुनिश्चित किया है कि जो भी कुत्ते पकड़े जाएं, उनका बंध्याकरण, टीकाकरण और देखभाल पशु जन्म नियंत्रण नियम, 2023 और पशु क्रूरता निवारण अधिनियम के अनुरूप ही किया जाए। इसका मतलब है कि अदालत ने हत्या या उन्मूलन नहीं, वल्कि प्रबंधन की दिशा में संतुलित दृष्टिकोण
अपनाया है। परंतु इसके साथ यह भी सच है कि इस आदेश को लागू
करने के लिए जिस प्रशासनिक, वित्तीय और तकनीकी तैयारी की जरूरत है, वह फिलहाल राज्यों के पास नहीं है। आवारा कुत्तों और मवेशियों की समस्या केवल प्रशासनिक विफलता का नतीजा नहीं, बल्कि मानव विस्तार की कीमत है।
इंसानी बस्तियों के फैलाव ने जंगलों, चारागाहों और प्राकृतिक आवासों को सिकोड़ दिया है। इसके चलते न केवल वन्यजीव, बल्कि पालतू पशु भी विस्थापित हुए हैं। कई शहरों में ठोस कचरे के ढेर और खुले नालों ने कुत्तों के लिए कृत्रिम आवास तैयार कर दिए हैं। ऐसे में आवारा पशुओं का व्यवहार भी आक्रामक हुआ है यह उनका स्वाभाविक नहीं, बल्कि प्रतिक्रिया जन्य व्यवहार है। इसलिए समस्या का स्थायी समाधान तभी संभव है, जब इसे केवल सुरक्षा के नहीं, वल्कि पारिस्थितिक संतुलन के दृष्टिकोण से देखा जाए। भारत के लिए यह समय एक समग्र नीति पर पुनर्विचार का है। केवल पकड़ने और हटाने की रणनीति टिकाऊ नहीं होगी। कुछ व्यावहारिक कदम इस दिशा में उठाए जा सकते हैं कि प्रत्येक जिले में कम-से-कम एक उच्च मानक वाला पशु आश्रय गृह स्थापित किया जाए, जिसमें चिकित्सा सुविधा और प्रशिक्षित स्टाफ हो। कुत्तों को नियंत्रित स्थानों पर नियमित भोजन और पानी उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाए, ताकि वे संवेदनशील परिसरों में न घुसें। देश में केवल 30 प्रतिशत कुत्तों का ही टीकाकरण हुआ है। इस अनुपात को 90 प्रतिशत तक पहुंचाना आवश्यक है। नागरिकों को यह सिखाना कि कुत्तों के प्रति सहानुभूति के साथ व्यवहार करते हुए भी उनकी आक्रामकता से कैसे बचा जाए। नगर निकायों को अपने-अपने क्षेत्रों में कुत्तों की सटीक जनगणना करनी चाहिए, ताकि संसाधनों की सही योजना बन सके। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के माध्यम से यह संकेत दिया है कि संवेदना और सुरक्षा के बीच संतुलन आवश्यक है। न तो पशुओं के प्रति क्रूरता को स्वीकार किया जा सकता है, न ही मानव जीवन को जोखिम में डाला जा सकता है।
(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)



