राजनीतिक शुचिता के प्रतीक बसंत दादा

आज भले ही राजनीति मेें काफी गिरावट आ गयी है और स्वार्थ के चलते लोग पाला बदलते रहते हैं। अब किसी को न तो पार्टी के प्रति निष्ठा रह गयी है और न कोई ऐसा नेता ही नजर आता है। पहले राजनीति मंे निष्ठा भी थी और नेता राजनीतिक शुचिता का पालन करते थे। महाराष्ट्र के वरिष्ठ नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री शरद पवार ने गत दिनों बसंत दादा पाटिल को याद करते हुए उनकी उदारता को नमन किया। यह लगभग 50 साल पहले की राजनीति थी जिसका एक स्मरण शरद पवार ने किया। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों मंे बसंत दादा पाटिल का विशेष रूप से उल्लेख किया जाता है। वह ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन उन्होंने राज्य के लोगों को शिक्षित करने का अथक प्रयास किया था।
आज के समय में जब राजनीति में शुचिता खत्म सी चुकी है। उदारमना नेतृत्व की कमी हो रही है। ऐसे समय में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरदचंद्र पवार) के अध्यक्ष शरद पवार ने महाराष्ट्र की राजनीति के बड़े नेता वसंतदादा पाटिल को याद किया। शरद पवार ने कहा कि उन्होंने 1978 में वसंतदादा पाटिल के नेतृत्व वाली सरकार को गिराने में अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन एक दशक बाद उन्होंने (वसंतदादा पाटिल ने) ही मुख्यमंत्री पद के लिए मेरा नाम प्रस्तावित किया था।विपक्षी दल में लंबे समय तक रहे पवार ने एक कार्यक्रम में कहा कि उस समय कांग्रेस के पास इसी तरह का ‘‘उदार हृदय वाला नेतृत्व’’ था। पवार ने 1999 में कांग्रेस से नाता तोड़ लिया और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) की स्थापना की। जुलाई 2023 में शरद पवार के भतीजे अजित पवार के तत्कालीन शिवसेना-भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) गठबंधन सरकार में शामिल होने के बाद राकांपा विभाजित हो गई थी। महाराष्ट्र के कई बार मुख्यमंत्री रहे पवार (84) ने कहा कि उन्हें याद है कि आपतकाल के बाद कांग्रेस, कांग्रेस (इंदिरा) और स्वर्ण सिंह कांग्रेस में विभाजित हो गई थी। शरद पवार ने कहा कि उस समय वह अपने गुरु यशवंतराव चव्हाण के साथ स्वर्ण सिंह कांग्रेस में ही रहे, लेकिन बाद में हुए चुनाव में किसी भी पक्ष को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा, ‘‘आखिरकार, हम साथ आए और वसंतदादा को मुख्यमंत्री बनाया। हालांकि, हममें से कई युवा कार्यकर्ताओं में कांग्रेस (आई) के प्रति नाराजगी थी, क्योंकि हम चव्हाण साहब के साथ जुड़े हुए थे। इसलिए एक दूरी थी। दादा ने इसे पाटने की कोशिश की, लेकिन हमने इसका विरोध किया था।’’ उन्होंने याद किया, ‘‘मैं प्रमुख विरोधियों में से एक था। परिणामस्वरूप, हमने सरकार गिराने का फैसला किया और हमने ऐसा किया। मैं मुख्यमंत्री बना।’’ पवार ने बताया, ‘‘मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं? क्योंकि 10 साल बाद हम सब फिर से एकजुट हो गए थे।’’ उन्होंने कहा कि जब अगले मुख्यमंत्री के नाम पर फैसला लेने के लिए बैठक बुलाई गई, तो रामराव आदिक, शिवाजीराव निलंगेकर समेत कई नामों पर चर्चा हुई। पवार ने कहा, ‘‘लेकिन दादा ने कहा, ‘अब और चर्चा नहीं, हमें पार्टी का पुनर्निर्माण करना है। शरद इसका नेतृत्व करेंगे’।’’ पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा, ‘‘कल्पना कीजिए कि जिस नेता की सरकार मैंने गिराई थी, उसने सब कुछ दरकिनार कर दिया और विचारधारा के लिए एकता को चुना। कांग्रेस में हमारे पास ऐसा उदार नेतृत्व था।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों की इस सीरीज में आज हम बात करेंगे वसंतराव बंडूजी पाटिल उर्फ वसंतदादा पाटिल एक दिग्गज राजनेता थे। वह एक महान स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक भी रहे। उन्होंने कृषि, शिक्षा, सहकार, उद्योग जैसे क्षेत्रों में शानदार काम किए।
1956-57 में सांगली की किसान सहकारी चीनी फैक्ट्री की स्थापना की थी और वे रोज 12-14 घंटे फैक्ट्री स्थल पर रहा करते थे। वसंतदादा को सहकार के क्षेत्र में काम करने के लिए ‘सहकार महर्षि’ के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि सहकार के क्षेत्र में महाराष्ट्र आज जिस स्थिति में है उसके पीछे सबसे बड़ा योगदान वसंतदादा का है। वसंतदादा खुद बहुत पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन उन्होंने महाराष्ट्र के गांवों में स्कूल, कॉलेज और व्यावसायिक शिक्षण संस्थान स्थापित करने का रास्ता दिखाया। उन्होंने राज्य में कई शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना कराई। उनकी उपलब्धियों के लिए वसंतदादा को 1967 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। वसंतदादा का 1 मार्च 1989 को बॉम्बे में निधन हो गया था।
वसंतदादा पाटिल का जन्म 13 नवंबर 1917 को सांगली जिले के मिराज तालुका के पदमाले गांव में हुआ था और जब वसंतदादा करीब एक वर्ष के थे तब उनके माता-पिता की प्लेग महामारी के दौरान एक ही दिन में मृत्यु हो गई थी। इसके बाद वसंतदादा का पालन-पोषण उनकी दादी ने किया और परिस्थितियां ठीक न होने के चलते बहुत अधिक नहीं पढ़ सके थे। बहुत कम उम्र में ही वसंतदादा स्वतंत्रता के आंदोलन में शामिल हो गए थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान सोलापुर के 4 युवकों की मौत हो गई थी तो उनकी याद में वसंतदाद ने चाय पीना छोड़ दिया था। देखते-देखते स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भागीदारी बढ़ती गई। माना जाता है कि उनके ऊपर नेताजी सुभाष चंद्र बोस का भी प्रभाव थे और हिंसक आंदोलन में भाग ले रहे थे, 1942 में सांगली जिले में टेलीफोन के तार काटने, पोस्ट ऑफिस जलाने, रेलवे को नुकसान पहुंचाने और पिस्तौल-बम का इस्तेमाल करके अंग्रेजों के प्रति अपना विरोध तेज कर दिया था।1943 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पकड़ने के लिए वसंतदादा पर 1,000 रुपए का इनाम रखा था। 22 जून 1943 की रात जब वे फिल्म देखकर अपने घर लौटे तो किसी ने पुलिस को उनके वहां होने की सूचना दे दी जिसके बाद पुलिस ने उन्हें घेर लिया। वसंतदाद ने स्थिति काबू से बाहर होने पर आत्मसमर्पण करने का फैसला किया और पुलिस उन्हें व कई अन्य लोगों को गिरफ्तार कर सांगली जेल ले गई। उनके वकील पाटणकर सेशन कोर्ट में व्यस्त थे और फैसले के लिए 26 जुलाई 1943 की तारीख दी गई लेकिन वसंतदादा ने इससे पहले ही जेल से भागने का फैसला कर लिया था।
24 जुलाई 1943 को वसंतदादा बहाना बनाकर कमरे से बाहर निकले और योजना के अनुसार दूसरे क्रांतिकारी भी बाहर आ गए। उन्होंने वहां मौजूद सुरक्षाकर्मियों से बंदूकें छीनीं और जेल से बाहर निकले। दादा के साथ बाकी सभी क्रांतिकारी हवा में फायरिंग करते हुए सांगली बाजार आए और कृष्णा नदी की ओर भाग गए।
वसंतदादा इस गोलीबारी के बीच एक पेड़ के पीछे चले गए लेकिन दुर्भाग्य से एक गोली उनके कंधे में लगी और वे खून से लथपथ होकर बेहोश हो गए। आज भी सांगली के इतिहास में इस दिन को ‘शौर्य दिवस’ के नाम से जाना जाता है। इसके बाद पुलिस ने दादा को पकड़ लिया और उनके खिलाफ फिर से मुकदमा चलाया गया जहां उन्हें जेल तोड़ने के आरोप में कई वर्षों की जेल की सजा सुनाई गई। आजादी के बाद हुए चुनावों में वसंतदादा सांगली से विधानसभा के लिए चुने गए और उन्होंने 25 वर्षों तक विधानसभा और लोकसभा में सांगली का प्रतिनिधित्व किया। (हिफी)