संघ पर देर आयद, दुरुस्त आयद फैसला

कहते हैं कि जब तक सफलता कदम चूमती है तब तक इंसान भगवान को भी याद नहीं करता या यह कहिये कि सफलता का खुमार ही ऐसा है कि इंसान पहले उसे भुलाने लगता है जिसके सहयोग से सफलता प्राप्त की और भगवान को भी भुलाने लगता है लेकिन जब सफलता के रास्ते में कठिनाई या अडचन आनी शुरू होती है तो उसे सब से पहले वह भगवान या हितैषी ही याद आता है जिसे सफलता के मद भरे नशे में भुला रहा था। यह सारी कहानी भारतीय जनता पार्टी के कर्ताधर्ताओं पर भी फिट बैठती है। पचास साल की जनसंघ से शुरू हुई तपस्या के बाद पहली बार मजबूती के साथ भाजपा 2014 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथियों के साथ मिलकर सत्ता पर काबिज हुई फिर 2019 में अकेले दम पर 303 सीट हासिल कर भाजपा को अपने सामर्थ्य का अतिरंजना भरा गुरूर छाने लगा। इसी के चलते अपने साथियों के साथ भी उसका रवैया बदला जिस कारण कई साथी दल भाजपा और राजग से छिटक कर किनारा कर गए और 2024 के आम चुनाव सिर पर आ गए। भाजपा ने राम मंदिर निर्माण के कार्य को आनन-फानन में पूरा कर मंदिर निर्माण के बूते पर माहौल बनाकर चुनाव जीतने की योजना बनायी और 22 जनवरी 24 को श्रीराम मंदिर के उद्घाटन समारोह से जो माहौल बना वह वास्तव में अभूतपूर्व था। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने अब की बार चार सौ पार का नारा दिया। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तो इतना दम्भ में भर गए कि अपनी मातृ संगठन के लिए ऐसा बयान दे दिया जो भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संबंधों को दरार पैदा करने वाला था। चुनाव जैसे जैसे करीब आ रहा था राम मंदिर से पैदा ज्वार धीरे-धीरे शांत होता जा रहा था। उधर संघ का जमीनी कार्यकर्ता जो अपनी जेब से सूखे चने खाकर मेहनत कर भाजपा को जिताने के लिए बिना किसी निजी अपेक्षा के बिना किसी स्वार्थ कामना के जुट जाता था। इस बार घर से बाहर नहीं निकला। वह मान बैठा कि अब भाजपा को उन स्वयंसेवकों की जरूरत नहीं है। बस 2024 में सफलता हासिल तो हुई लेकिन किनारे की यानी ऐसा जैसे 80 फीसद अंक हासिल करने की अभिलाषा लिये परीक्षार्थी को 33 फीसद अंक हासिल होकर सिर्फ पास घोषित किया गया। देखते ही देखते भाजपा बेशक खुले तौर पर स्वीकार न करें लेकिन उसे अपनी गलतियों का अहसास होने लगा है। उसे अहसास होने लगा कि नींव की जमीन धंस रही है। इस बीच आरएसएस प्रमुख ने ईशारे-ईशारे में ही प्रधानमंत्री मोदी पर तीर चला कर अपनी अंदरूनी नाराजगी जता दी। इतना सब होने पर भाजपा को अपने भूले भगवान याद आने लगे।
भाजपा को दस साल बाद याद आया कि सरकारी अधिकारियों- कर्मचारियों के संघ से जुड़ने, सदस्यता लेने या किसी भी गतिविधियों में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी करने पर छह दशक से सरकारी प्रतिबंध है। भाजपा केंद्र की राजग सरकार ने एक आदेश के जरिये सरकारी कर्मचारियों के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की गतिविधियों में शामिल होने पर लगी रोक को हटा लिया है, जिसको लेकर विपक्षी राजनीतिक दलों की कड़ी प्रतिक्रिया सामने आई है। वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि तत्कालीन इंदिरा सरकार ने निराधार ही शासकीय कर्मियों के संघ की गतिविधियों में भाग लेने पर रोक लगायी थी। यह भी कि वर्तमान सरकार का निर्णय लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुष्ट करने वाला है। जानकारों का मानना है कि लोकसभा चुनाव परिणाम सामने आने के बाद अर्श से फर्श की ओर आते देख भाजपा की नींद खुल गई है। संघ व सरकार के बीच मनमुटाव की जो खबरें आ रही थीं, हालिया फैसले को सरकार की संघ से उसी तल्खी को दूर करने की कवायद के रूप में देखा जा रहा है, जिससे जनमानस में यह संदेश दिया जा सके कि भाजपा व संघ में किसी प्रकार का मतभेद नहीं है।
वहीं आरएसएस का दावा है कि इस कदम से देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत होगी। दरअसल, हाल के दिनों में संघ की तरफ से जो बयान सामने आ रहे थे, उससे लग रहा था कि भाजपा व संघ के रिश्ते खराब दौर से गुजर रहे हैं। संघ के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार ने तो कहा था कि भगवान राम ने एक अहंकारी पार्टी को रोका है, जो रामभक्त होने का दावा करती है। यहां तक कि संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में लिखा गया था कि भाजपा कार्यकर्ताओं के अति उत्साह के चलते पार्टी के जनाधार में गिरावट आई है। साथ ही संघ प्रमुख ने बिना नाम लिये पार्टी नेतृत्व के सुपरमैन व भगवान समझने की महत्वाकांक्षा का जिक्र किया था। इन बयानों को लेकर कयास लगाए जा रहे थे कि संघ का भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से मोहभंग हो गया है। ऐसे में जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अगले साल शताब्दी वर्ष मनाने जा रहा है, भाजपा का यह कदम दोनों के बीच रिश्ते सामान्य करने की दिशा में उठाया गया कदम कहा जा रहा है। बहरहाल, केंद्र के इस फैसले के बाद कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल सरकार को निशाने पर ले रहे हैं। कांग्रेस ने सरकार पर हमले तेज कर दिए हैं। पार्टी ने 58 साल पहले वर्ष 1966 में आरएसएस पर लगाये गए प्रतिबंध को हटाने के औचित्य पर सवाल उठाए हैं। कहा जा रहा है कि जनसंघ, वाजपेयी सरकार और मोदी सरकार की पिछली एक दशक की सरकार के दौरान भी यह प्रतिबंध नहीं हटाया गया था।
आपको बता दें कि 7 नवंबर 1966 को संसद के सामने गोहत्या के खिलाफ एक बड़ा प्रदर्शन हुआ था। आरएसएस व जनसंघ के प्रयासों से लाखों लोग जुटे थे और पुलिस के साथ टकराव में कई लोगों की जान गई थी, जिसके बाद इंदिरा गांधी सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के संघ में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया था। वहीं संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख का कहना है कि संघ पिछले 99 साल से राष्ट्र के सतत निर्माण व समाज सेवा में संलग्न रहा है। अपने राजनीतिक स्वार्थ के चलते तत्कालीन सरकार ने शासकीय कर्मचारियों को संघ जैसे रचनात्मक संगठन की गतिविधियों में भाग लेने हेतु निराधार प्रतिबंधित किया था। हालांकि, इस बीच मध्यप्रदेश समेत कई राज्य सरकारों ने इस आदेश को निरस्त कर दिया था लेकिन केंद्र सरकार के स्तर पर यह प्रतिबंध वैध बना हुआ था। इसी मामले को लेकर इंदौर की एक अदालत में वाद चल रहा था, जिसमें अदालत ने इस बाबत केंद्र सरकार से जवाब मांगा था। फिर केंद्र ने एक आदेश जारी कर प्रतिबंध को खत्म करने की घोषणा की है। वहीं दूसरी ओर बसपा सुप्रीमो मायावती ने कहा है कि प्रतिबंध हटाने का केंद्र का फैसला राष्ट्रहित से परे राजनीति से प्रेरित संघ के तुष्टीकरण का फैसला है। वहीं, अन्य राजनीतिक दलों का भी मानना है कि सरकारी कर्मचारियों का संविधान और कानून के दायरे में रहकर निष्पक्षता के साथ जनहित और जनकल्याण के लिए काम करना जरूरी होता है। विपक्षी सेकुलरिज्म की दुहाई देकर सरकार के फैसले को अनुचित ठहरा रहे हैं और महात्मा गांधी की हत्या से लेकर अन्य तरह-तरह के आरोप लगा कर इस फैसले का विरोध कर रहे हैं लेकिन वास्तव में यह फैसला देर आयद दुरूस्त आयद है। आरएसएस की राष्ट्र के प्रति निष्ठा और देशभक्ति अद्वितीय है यह विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी गैर राजनीतिक संगठन है इस से जुडाव से सरकारी कर्मचारियों में देश के प्रति निष्ठा और कर्तव्य परायणता की प्रेरणा का अनन्त प्रवाह बनेगा जो इस राष्ट्र को नयी ऊर्जा और शक्ति देगा। (हिफी)
(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)