
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-94
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
भक्ति योग से ‘परम नैष्कम्र्यसिद्धि’ होती है
असक्तं बुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगत स्पृहः।
नैष्कम्र्यसिद्धिं परमां सन्नयासेनाधिगच्छति।। 49।।
जिसकी बुद्धिः सब जगह आसक्ति रहित है, जिसने शरीर को वश में कर रखा है, जो स्पृहा रहित है, वह मनुष्य सांख्य योग के द्वारा सर्वश्रेष्ठ नैष्कम्र्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या-असक्त बुद्धि, जितात्मा और विगत स्पृह होने पर कर्मयोग सिद्ध हो जाता है (गीता 2/71़)। कर्म योग सिद्ध होने पर साधक सांख्य योग का अधिकारी हो जाता है। सांख्य योग से वह नैष्कम्र्यसिद्धि प्राप्त करता है। नैष्कम्र्यसिद्धि का अर्थ है-कर्म सर्वथा अकर्म हो जायँ, कर्म होेते हुए भी लिप्तता न हो। कर्मों को न करना नैष्कम्र्य है (गीता 3/4), प्रत्युत कर्म करना तो साधक के लिये आवश्यक है (गीता 6/3)।
कर्मयोग तथा ज्ञान योग तो साधन हैं, पर भक्ति योग साध्य है। अतः कर्मयोग तथा ज्ञान योग से तो ‘नैष्कम्र्यसिद्धि’ होती है, पर भक्ति योग से ‘परम नैष्कम्र्यसिद्धि’ होती है।
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।। 50।।
हे कौन्तेय! सिद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि) को प्राप्त हुआ साधक ब्रह्म को, जोकि ज्ञान की परानिष्ठा है, जिस प्रकार से प्राप्त होता है, उस प्रकार को तुम मुझसे संक्षेप में ही समझो।
व्याख्या-यहाँ ‘सिद्धिम्’ पद का अर्थ है-साधन रूप कर्मयोग से होने वाली अन्तःकरण की पूर्ण शुद्धि, जिसकी प्राप्ति के बाद कर्मयोगी ज्ञान योग में अथवा भक्ति योग में जा सकता है। कर्म योगी के भीतर यदि ज्ञान के संस्कार हैं तो वह ज्ञान में चला जायगा, और यदि भक्ति के संस्कार हैं तो वह भक्ति में चला जायगा।
यदि किसी एक साधन का आग्रह न हो तो कर्मयोग, ज्ञान योग और भक्तियोग-तीनों साधन रूप से भी हैं और साध्य रूप से भी। साधन रूप से तो तीनों अलग-अलग हैं, पर साध्य रूप से तीनों एक ही हैं। इसलिये गीता में भगवान् ने कहीं तो साधन-भक्ति से साध्य-ज्ञान की प्राप्ति बतायी है (गीता 13/10, 14/26) और कहीं साधन-ज्ञान से साध्य-भक्ति की प्राप्ति बतायी है (गीता 12/4, 18/54)।
भगवान् ने पहले ‘स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः’ (गीता 18/46)-इन पदों से कर्मयोग के द्वारा भक्ति की सिद्धि बतायी और यहाँ ‘सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म’ पदों से कर्मयोग के द्वारा ज्ञान योग की सिद्धि बताते हैं।
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वैषौ व्युदस्य च।। 51।।
विविक्त सेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यान योग परो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।। 52।।
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।। 53।।
जो विशुद्ध (सात्त्विकी) बुद्धि से युक्त, वैराग्य के आश्रित, एकान्त का सेवन करने वाला और नियमित भोजन करने वाला साधक धैयपूर्वक इन्द्रियों का नियमन करके, शरीर-वाणी-मन को वश में करके, शब्दादि विषयों का त्याग करके और राग-द्वेष को छोड़कर निरन्तर ध्यान योग के परायण हो जाता है, वह अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह से रहित होकर एवं ममता रहित तथा शान्त होकर ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है।
व्याख्या-ज्ञान योग का साधक जब तक असत् पदार्थों के साथ अपना सम्बन्ध मानता रहता है, तब तक परमात्म प्राप्ति की सामथ्र्य नहीं आती। जब असत् पदार्थों के सम्बन्ध की मान्यता मिट जाती है, तब उसमें परमात्म पा्रप्ति की सामथ्र्य आ जाती है अर्थात् उसे नित्य प्राप्त परमात्म तत्त्व का अनुभव हो जाता है।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काडंक्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु म˜क्तिं लभते पराम्।। 54।।
वह ब्रह्म रूप बना हुआ प्रसन्न मन वाला साधक न तो (किसी के लिये) शोक करता है और न (किसी की) इच्छा ही करता है। ऐसा सम्पूर्ण प्राणियों में समभाव वाला साधक मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या-ज्ञान योग के जिस साधक में भक्ति के संस्कार होते हैं, जो अपने मत का आग्रह नहीं रखता, मुक्ति को ही सर्वोपरि नहीं मानता और भक्ति का खण्डन नहीं करता, उसे मुक्त होने पर भी सन्तोष नहीं होता। इसलिये मुक्ति प्राप्त होने के बाद उसे पराभक्ति (परम प्रेम) की प्राप्ति हो जाती है।
जो अपनी दृष्टि (मान्यता) से ब्रह्म रूप बना हुआ है, ब्रह्म हुआ नहीं है, उसे यहाँ ‘ब्रह्म भूत’ कहा गया है। ब्रह्म भूत होने के बाद जीव का ब्रह्म के साथ तात्त्विक सम्बन्ध (साधम्र्य) हो जाता है-‘मम साधम्र्यमागताः’ (गीता 14/2)। तात्त्विक सम्बन्ध होना ही मुक्ति है। फिर सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा में अपने-आपको विलीन (समर्पित़) कर देने से परमात्मा के साथ आत्मीय सम्बन्ध हो जाता है-‘ज्ञानी त्वात्मैव में मतम्’ (गीता 7/18), ‘द्रक्ष्यस्तात्मन्यथो मयि’ (गीता 4/35)। आत्मीय सम्बन्ध होना ही पराभक्ति की प्राप्ति है।
ज्ञान मार्ग में जड़ता का त्याग मुख्य है। जड़ता का त्याग विवेक-साध्य है। विवेकपूर्ण जड़ता का त्याग करने पर त्याज्य वस्तु का संस्कार शेष रह सकता है, जिससे दार्शनिक मतभेद पैदा होते हैं। परन्तु परम प्रेम की प्राप्ति होने पर त्याज्य वस्तु का संस्कार नहीं रहता, क्योंकि भक्त जड़ता का त्याग नहीं करता, प्रत्युत उसे भी भगवान् का स्वरूप ही मानता है-‘सदसच्चाहम्’ (गीता 9/19)। परम प्रेम की प्राप्ति विवेक-साध्य नहीं है, प्रत्युत उसे भी भगवान् का स्वरूप ही मानता है-‘सदसच्चाहम्’ (गीता 9/19)। परम प्रेम की प्राप्ति विवेक-साध्य नहीं है? प्रत्युत श्रद्धा-विश्वास-साध्य है। श्रद्धा-विश्वास में केवल भगवत्कृपा पर ही भरोसा है। इसलिये जिसके भीतर भक्ति के संस्कार होेते हैं, उसे भगवत्कृपा मुक्ति में सन्तुष्ट नहीं होने देती, प्रत्युत मुक्ति के रस (अखण्ड रस) को फीका करके परम प्रेम का रस (अनन्त रस) प्रदान कर देती है।
संसार के सम्बन्ध से अशान्ति होती है, इसलिये कर्मयोग में संसार के सम्बन्ध छूटने पर ‘शान्त आनन्द’ मिलता है। ज्ञान योग में निज स्वरूप में स्थिति होने से ‘अखण्ड आनन्द’ मिलता है। भक्ति योग में भगवान् से अभिन्नता होने पर ‘अनन्त आनन्द’ मिलता है।-क्रमशः (ंहिफी)