धर्म-अध्यात्म

सत्व, रज और तम उत्पन्न करते शरीर

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-73

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-73
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

सत्व, रज और तम उत्पन्न करते शरीर

आधुनिक वेदान्त में आया है कि सत्त्व गुण से पुण्य तथा रजोगुण से पाप उत्पन्न होता है, किन्तु तमोगुण से आयु वृथा होती है-
सात्त्विकैः पुण्यनिष्पत्तिः पापोत्पत्तिश्च राजसैः।
तामसैर्नोभयं किन्तु वृथायुःक्षपणं भवेत्।।
(पंचदशी 2/15)
परन्तु यह बात गीता से विरुद्ध पड़ती है। भगवान् यहाँ कहते हैं कि तमोगुण से मनुष्य को अधोगति की प्राप्ति होती है-‘अधो गच्छन्ति तामसाः’। पहले भी भगवान् ने कहा है-‘तथा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते’ (14/15)।
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति म˜ावं सोऽधिगच्छति।। 19।।
जब विवेकी (विचार-कुशल) मनुष्य तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और अपने को गुणों से परे अनुभव करता है, तब वह मेरे सत्वस्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या-सम्पूर्ण क्रियाओं के होने में गुण ही कारण हैं, अन्य कोई कारण नहीं है। विवेकशील साधक जिससे गुण प्रकाशित होते हैं, उस प्रकाश में अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव करता है अर्थात अपने को गुणों (क्रियाओं और पदार्थों) से असंग अनुभव करता है। गुणों से असंग अनुभव करने पर वह योगारूढ़ हो जाता है (गीता 6/4)। योगारूढ़ होने से शान्ति की प्राप्ति होती है और उस शान्ति में न अटकने से ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमु˜वान्।
जन्ममृत्युजरादुः खैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।। 20।।
देहधारी (विवेकी मनुष्य) देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था रूपी दुःखों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है।
व्याख्या-मनुष्य के भीतर यह भाव रहता है कि मैं बना रहूँ, कभी मरूँ नहीं। वह अमर रहना चाहता है। अमरता की इस इच्छा से सिद्ध होता है कि वास्तव में वह अमर है। यदि वह अमर न होता तो उसमें अमरता की इच्छा भी नहीं होती। उदाहरणार्थ, हमें भूख और प्यास लगती है तो इससे सिद्ध होता है कि ऐसी वस्तु (अन्न और जल) है, जिससे भूख और प्यास मिट जाती है। यदि अन्न-जल न होते तो भूख-प्यास भी नहीं लगती। अतः अमरता स्वतः सिद्ध है (गीता 8/19)। परन्तु जब मनुष्य अपने विवेक को महत्त्व न देकर शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है अर्थात् ‘मैं शरीर हूँ’ ऐसा मान लेता है, तब उसमें मृत्यु का भय और अमरता की इच्छा पैदा हो जाती है। जब वह अपने विवेक को महत्त्व देता है कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ शरीर तो निरन्तर मृत्यु में रहता है और मैं स्वयं निरन्तर अमरता में रहता हूँ’ तब उसे अपनी स्वतः सिद्ध अमरता का अनुभव हो जाता है। अतः साधक को चाहिये कि वह जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था आदि शरीर के विकारों को मुख्यता न देेकर अपनी चिन्मय सत्ता (होने पन) को ही मुख्यता दे।
कैर्लिडैंगस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते।। 21।।
अर्जुन बोले-हे प्रभो! इन तीनों से अतीत हुआ मनुष्य किन लक्षणों से युक्त होता है? उसके आचरण कैसे होते हैं? और इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कैसे किया जा सकता है?
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काड्ंक्षति।। 22।।
श्री भगवान बोले-हे पाण्डव! प्रकाश और प्रवृत्ति तथा मोह-ये सभी अच्छी तरह से प्रवृत्त हो जायँ तो भी गुणातीत मनुष्य इनसे द्वेष नहीं करता और ये सभी निवृत्त हो जायँ तो इनकी इच्छा नहीं करता।
व्याख्या-वृत्तियाँ एक समान किसी की भी नहीं रहतीं। तीनों गुणों की वृत्तियाँ तो गुणातीत महापुरुष के अन्तःकरण में भी होती है, पर उसका उन वृत्तियों से राग-द्वेष नहीं होता। वृत्तियाँ अपने-आप आती और चली जाती हैं। गुणातीत महापुरुष की दृष्टि उधर जाती ही नहीं, क्योंकि उसकी दृष्टि में एक परमात्मतत्त्व के सिवाय और कुछ रहता ही नहीं।
गुणातीत महापुरुष में ‘अनुकूलता बनी रहे, प्रतिकूलता मिट जाय’-ऐसी इच्छा नहीं होती। निर्विकारता का अनुभव होने पर उसे अनुकूलता-प्रतिकूलता का ज्ञान तो होता है, पर स्वयं पर उनका असर नहीं पड़ता। अन्तःकरण में वृत्तियाँ बदलती हैं, पर स्वयं उनसे निर्लिप्त रहता है। साधक पर भी वृत्तियों का असर नहीं पड़ना चाहिये, क्योंकि गुणातीत मनुष्य साधक का आदर्श होता है, साधक उसका अनुयायी होता है।
साधक मात्र के लिए यह आवश्यक है कि वह शरीर का धर्म अपने में न माने। वृत्तियाँ अन्तःकरण में हैं, अपने में नहीं। अतः साधक वृत्तियों को न तो अच्छा माने, न बुरा माने और न अपने में ही माने। कारण कि वृत्तियाँ तो आने-जाने वाली हैं, पर स्वयं निरन्तर रहने वाला है। वृत्तियाँ हममें होतीं तो जब तक हम रहते, तब तक वृत्तियाँ भी रहतीं परन्तु यह सबका अनुभव है कि हम तो निरन्तर रहते हैं, पर वृत्तियाँ आती-जाती रहती हैं। वृत्तियों का सम्बन्ध प्रकृति के साथ है और हमारा (स्वयं का) सम्बन्ध परमात्मा के साथ है। इसलिये वृत्तियों के परिवर्तन का अनुभव करने वाला स्वयं एक ही रहता है।-क्रमशः (हिफी)

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