
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-71
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के
लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या
की है। -प्रधान सम्पादक
तृष्णा बांधती है जीवात्मा को
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ।। 6।।
हे पाप रहित अर्जुन! उन गुणों में सत्त्व गुण निर्मल (स्वच्छ़) होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है। वह सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से (देही को) बाँधता है।
व्याख्या-गुणातीत होने के बहुत समीप होने के कारण सत्त्व गुण को अनामय (निर्विकार) कहा गया है। परन्तु सुख और ज्ञान के संग के कारण वह विकारी हो जाता है, क्योंकि संग रजोगुण का स्वरूप है। सुख और ज्ञान बाधक नहीं हैं, प्रत्युत उनका संग बाधक है। संग है-उनको अपना मान लेना। वास्तव में सत्त्वगुण अपना है ही नहीं, वह तो प्रकृति का है। अतः जब तक संग रहता है, तब तक मुक्ति नहीं होती, क्योंकि स्वरूप असंग है।
सात्त्विक सुख और सात्त्विक ज्ञान भी स्वयं के नहीं हैं, प्रत्युत प्रकृति जन्य होने से ‘पर’ के अर्थात् पराधीन हैं। इनमें पराधीनता का सुख है, स्वरूप का सुख नहीं।
सात्त्विक ज्ञान में तो ‘मैं ज्ञानी हूँ’-यह संग रहता है, पर तत्त्व ज्ञान सर्वथा असंग है अर्थात् तत्त्व ज्ञान होेने पर ‘मैं ज्ञानी हूँ’-यह संग नहीं रहता। सात्त्विक ज्ञान में द्रष्टा रहता है और अपने में विशेषता का भान होता है, परन्तु तत्त्व ज्ञान में कोई द्रष्टा नहीं रहता और अपने में कोई भी नहीं रहता तथा (व्यक्तित्व न रहने से) विशेषता का भान भी नहीं होता।
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमु˜वम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम्।। 7।।
हे कुन्तीनन्दन! तृष्णा और आसक्ति को पैदा करने वाले रजोगुण को तुम रागस्वरूप समझो। वह कर्माें की आसक्ति से देही (जीवात्मा) को बाँधता है।
व्याख्या-रजोगुण राग स्वरूप है अर्थात् किसी वस्तु, व्यक्ति आदि में जो प्रियता उत्पन्न होती है, वह प्रियता रजोगुण है। रजोगुण कर्मों के संग (आसक्ति) से मनुष्य बाँधता है। अतः सात्त्विक कर्म भी संग होने से बाँधने वाले हो जाते हैं। यदि संग न हो तो कर्म बन्धन कारक नहीं होते। इसलिये कर्म योग से मुक्ति हो जाती है, क्योंकि कर्मों का और उनके फलों का संग न होने से ही कर्मयोग होता है। (गीता 6/4)
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत।। 8।।
और हे भरतवंशी अर्जुन!। सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तुम अज्ञान से उत्पन्न होने वाला समझो। वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा (देह के साथ अपना सम्बन्ध मानने वालों को बाँधता है।
व्याख्या-सत्त्वगुण और रजोगुण तो संग (सुखासक्ति) से बाँधते हैं, पर तमोगुण स्वरूप से ही बाँधने वाला है। ये तीनों गुण प्रकृति के कार्य हैं और जीव स्वयं प्रकृति और उसके कार्य गुणों से सर्वथा रहित है परन्तु गुणों के साथ सम्बन्ध जोड़ने के कारण स्वयं गुणातीत होते हुए भी गुणों से बँध जाता है।
सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत।। 9।।
हे भरतवंशो˜व अर्जुन्! सत्त्वगुण सुख में और रजोगुण कर्म में लगाकर मनुष्य पर विजय करता है परन्तु तमोगुण ज्ञान को ढककर एवं प्रमाद में लगाकर मनुष्य पर विजय करता है।
व्याख्या-सत्त्वगुण केवल सुख होने पर विजय नहीं करता, प्रत्युत सुख का संग होने पर विजय करता है-‘सुखसंगेन बध्नाति’ (गीता 14/6़)। इसी तरह रजोगुण भी कर्म का संग होने पर विजय करता है-‘तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम्’ (गीता 14/7) परन्तु तमोगुण स्वरूप से विजय करता है। इसलिये तमोगुण में ‘संग’ शब्द नहीं आया है।
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा।। 10।।
हे भरतवंशो˜व अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण बढ़ता है, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है, वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है।
व्याख्या-दो गुणों को दबाकर एक गुण बढ़ता है, बढ़ा हुआ गुण मनुष्य पर विजय करता है और विजय करके मनुष्य को बाँध देता है। जो गुण बढ़ता है, उसकी मुख्यता हो जाती है और दूसरे गुणों की गौणता हो जाती है। यह गुणों का स्वभाव है।
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपाजयते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत।। 11।।
जब इस मनुष्य शरीर में सब द्वारों (इन्द्रियों और अन्तःकरण) में प्रकाश (स्वच्छता) और विवेक प्रकट हो जाता है, तब यह जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा हुआ है।
व्याख्या-‘प्रकाश’ और ‘ज्ञान’-दोनों में भेद है। ‘प्रकाश’ का अर्थ है-इन्द्रियों और अन्तःकरण में जागृति अर्थात् रजोगुण से होने वाला मनो राज्य तथा तमोगुण से होने वाल निद्रा, आलस्य और प्रमाद न होकर स्वच्छता होना। ‘ज्ञान’ का अर्थ है-विवेक अर्थात् सत्-असत् कर्तव्य-अकर्तव्य आदि का ज्ञान होना। प्रकाश और ज्ञान आने पर साधक उनको अपना गुण मानकर अभिमान न करे, प्रत्युत उनको सत्त्वगुण का ही कार्य माने और विशेष रूप से भजन-ध्यान
आदि में लग जाय। कारण कि ऐसे समय में किये गये साधन से अधिक लाभ हो सकता है। -क्रमशः (हिफी)