
महाज्ञानी अष्टावक्र कहते हैं व्यक्ति की श्रेष्ठता धन, पद, मान, सम्मान आदि से नहीं आँकी जाती, उसके निजी गुणों से आँकी जाती है। वासना एवं अहंकार रहित ज्ञानी ही श्रेष्ठ है क्योंकि वह क्षुद्र को छोड़कर महान् को उपलब्ध हो गया है।
अष्टावक्र गीता-75
निर्ममः शोभते धीरः समलोष्टाश्मकांचन।
सुभिन्नहृदयग्रन्थिर्विनिर्धूत रजस्तमः ।। 88।।
अर्थात: जो ममता रहित है उसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना समान है। जिसके हृदय की ग्रन्थि टूट गई है और जिसका रज, तम धुल गया वह धीर पुरुष ही शोभता है।
व्याख्या: मनुष्य बीमार है, रुग्ण है। यह बीमारी भीतरी है जो दवा पीने से ही दूर होगी, बाहर उसका लेप करने से कुछ नहीं होगा, शास्त्रों तथा उपदेशों से कुछ नहीं होगा। ये शास्त्र एवं उपदेश डाक्टर द्वारा लिखे गये प्रेस्क्रिप्सन से ज्यादा नहीं है। एनासिन का फार्मूला जान लेने से सिरदर्द जायेगा नहीं, पानी कैसे बनता है, यह जान लेने से प्यास बुझेगी नहीं। उसे भीतर लेना पड़ेगा। इसी प्रकार वस्तुओं का मूल्य ममता के कारण है। कपड़े छोड़ देने से, राख लपेट लेने से, भूखे मरने से अथवा कुटिया बनाकर रहने से ममता का छूटना आवश्यक नहीं है। जब तक भीतर ममता है वस्तुओं में भेद ज्ञात होगा। सोना, पत्थर व मिट्टी में भेद मालूम होगा। सोना मूल्यवान है इसलिए मालूम होता है कि उसके प्रति ममता है, मोह है, अन्यथा वह निर्मूल्य है। आवश्यकताएँ पूरी करना आसक्ति नहीं है, न बुरा ही है किन्तु आसिक्त के कारण अनावश्यक वस्तुओं का परिग्रह करना बुरा है। कई व्यक्ति मकान, जमीन, जायदाद, धन आदि का परिग्रह आवश्यकता पूर्ति हेतु न करके अहंकार-तृप्ति हेतु करते हैं। यह मानसिक रुग्णता है। अपनी इज्जत, प्रतिष्ठा, सम्मान, आदि का भाव दण्ड से वस्तुएँ मानते हैं। निज की घोषणा न होने से ही वे वस्तुओं द्वारा अपनी श्रेष्ठता चलाना चाहते हैं किन्तु ज्ञानी स्वस्थचित वाला होता है, उसमंे मानसिक रुग्णता नहीं होती, वह स्वस्थेन्द्रिय होता है, उसकी हृदयग्रन्थि खुल जाती है, उसका रज और तम धुलकर शुद्धमत्व बच रहता है, वह ममता रहित, आसक्ति निद्र्वंद्व हो जाता है। अतः उसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोने में भेद नहीं दिखाई देता। ऐसा आसक्ति रहित ज्ञानी पुरुष ही शोभा देता है।
सर्वत्रानवधानस्य न किंचिद्वासना हृदि।
मुक्तात्मनो वितृप्तस्य तुलना केन जायते ।। 89।।
अर्थात: जो सर्वत्र व्यवधान से मुक्त उदासीन है, और जिसके हृदय में कुछ भी वासना नहीं है। ऐसे तृप्त हुये मुक्तात्मा की किसके साथ तुलना हो सकती है।
व्याख्या: वासना से ही इच्छाएँ पैदा होती हैं तथा इच्छाएँ अनन्त हैं वे कभी भी पूरी नहीं की जा सकतीं। ऐसा वासनायुक्त व्यक्ति सब कुछ पाकर भी अतृप्त ही रहता है। सिकन्दर संसार विजय करके भी अतृप्त ही मरा, बड़े से बड़े पूँजीपति भी अतृप्त मरते हैं किन्तु जिसकी वासना नष्ट हो गई वह जो कुछ है उसी में तृप्त है, नहीं है तो भी तृप्त है। बुद्ध राजकुमार होकर तृप्त नहीं थे किन्तु ज्ञान-प्राप्ति पर वासना रहित होकर तृप्त हो गये जिसमें वासना है वह हमेशा व्यवधानों में ही उलझा रहता है, उसको समाधान मिलता ही नहीं जबकि ज्ञानी वासना युक्त होने से व्यवधान मुक्त हो जाता है, जीवन के भटकाव, उलझन, संघर्ष, दौड़-धूप सबका समाधान मिल जाता है, वह शान्त हो जाता है, पूर्ण तृप्त हो जाता है, सभी ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं, निर्गन्थ हो जाता है। ऐसे ज्ञानी की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। वह पूर्ण हो जाता है। क्षुद्र को पकड़ने वाला उसी से बँध जाता है। वह कभी पूर्ण नहीं हो सकता।
जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपि न पश्यति।
ब्रुवन्नपि न च ब्रूते कोऽन्यो निर्वासनादृते ।। 90।।
अर्थात: वासना रहित पुरुष के अतिरिक्त दूसरा कौन है जो जानता हुआ भी नहीं जानता है, देखता हुआ भी नहीं देखता है, बोलता हुआ भी नहीं बोलता है।
व्याख्या: ज्ञानी तथा अज्ञानी के जानने, देखने तथा बोलने में बड़ा अन्तर होता है। अज्ञानी अहंकार तथा वासना से ग्रस्त होता है, वह अपने ही स्वार्थ के कारण अन्धा हो जाता है जिससे उसके जानने, देखने तथा बोलने में संकीर्णता होती है, उदारता नहीं होती। वह अहंकारवश जिसे नहीं जानता है उसके भी जानने का दावा करता है, जिसे वह नहीं देखता उसके भी देखने का दम भरता है। आत्मा और परमात्मा को उसने न जाना है, न देखा है किन्तु इनकी सत्यता की रोज दुहाई देता है कि आत्मा है, परमात्मा है, पुनर्जन्म है, स्वर्ग-नरक है, तुम परमात्मा को नहीं मानते,, तुम नास्तिक हो, अज्ञानी हो, नरक जाओगे आदि निरन्तर कहता रहता है जबकि ज्ञानी सब कुछ
जान लेता है फिर भी कहता है मैं कुछ नहीं देखता, वह बोलता भी है तो भी उसमें दुराग्रह नहीं होता क्योंकि
वह वासना एवं अहंकार रहित है। ऐसे ज्ञानी की तुलना किसी से नहीं की जा सकती।
भिक्षुर्वा भूपतिर्वापि यो निष्कामः स शोभते।
भावेषु गलिता यस्य शोभनाऽशोभना मतिः ।। 91।।
अर्थात: जिसकी सब भावों में शोभन, अशोभन बुद्धि गलित हो गई है और जो निष्काम है, वही शोभायमान है, चाहे वह भिखारी हो या भूपति।
व्याख्या: जीवन एक त्रिवेणी है जिसमे गंगा और यमुना तो प्रकट हैं किन्तु तीसरी सरस्वती गुप्त है। जीवन में भी शरीर और मन तो प्रकट हैं किन्तु चेतना गुप्त है। अज्ञानी शरीर और मन को ही जानता है किन्तु ज्ञानी चेतना को भी जान लेता है। जो मन के तर्क पर ही जीते हैं उन्होंने सृष्टि को दो में विभाजित कर दिया। इस विभाजन के कारण ही सृष्टि में भेद दिखाई देता है किन्तु ज्ञानी उस गुप्तशक्ति चेतना को भी जान लेता है जिससे समस्त भेद समाप्त होकर एकत्व का अनुभव हो जाता है। इसी को सत्य तथा ज्ञान कहा गया है। भेद मात्र अज्ञान के कारण है। स्वर्ग, नरक और मोक्ष, संसार परमात्मा और ब्रह्म, सुख, दुख और आनन्द, राग, विराग और वीतराग, दुर्जन, सज्जन और जीवन्मुक्त, साधु-असाधु और सन्त आदि में प्रथम दो शब्द मन की ही व्याख्या है। मन वासना युक्त है, विलासी है, स्वार्थी है। वह हमेशा भेद ढूँढता है। अच्छे-बुरे में भेद करता है, लाभ-हानि, जय-पराजय, श्रेष्ठ-निकृष्ट, शोभन-अशोभन, राजा-रंक, त्याग और ग्रहण, हिंसा-अहिंसा आदि में भेद करता है। अपनी वासना एवं स्वार्थों के जो अनुकूल होता है उसे अच्छा तथा प्रतिकूल होने पर बुरा कह देता है किन्तु ज्ञानी मन के पार हो जाता है उसका अस्तित्व से मिलन हो जाता है। अस्तित्व में कोई भेद नहीं रहता इसलिए ज्ञानी ही समत्व बुद्धि वाला होता है। यह तीसरा शब्द समत्व बुद्धि का ही उदाहरण है जो भारत की सर्वोपरि खोज है। जो धर्म द्वन्द्वों से पार नहीं जा सके वे मानसिक धरातल पर ही हैं। अस्तित्वगत ज्ञान का उन्हें कुछ पता नहीं है। ऐसे धर्म आचरण को ही अधिक महत्व देते हैं, ज्ञानी उपलब्धि को महत्वपूर्ण मानता है। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि जिसकी सब भावों में शोभन-अशोभन बुद्धि गलित हो गई है और जो निष्काम है, जिसकी कोई वासना नहीं, अहंकार नहीं, फलाकांक्षा नहीं ऐसा ज्ञानी चाहे भिखारी हो अथवा भूपति सर्वत्र शोभायमान होता है। व्यक्ति की श्रेष्ठता धन, पद, मान, सम्मान आदि से नहीं आँकी जाती, उसके निजी गुणों से आँकी जाती है। वासना एवं अहंकार रहित ज्ञानी ही श्रेष्ठ है क्योंकि वह क्षुद्र को छोड़कर महान् को उपलब्ध हो गया है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)