
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-63
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या
की है। -प्रधान सम्पादक
निर्गुण उपासना का वर्णन
ं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।। 1।।
श्री भगवान् बोले-हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! ‘यह’-रूप से कहे जाने वाले शरीर को ‘क्षेत्र’-इस नाम से कहते हैं और जो इस क्षेत्र को जानता है, उसको ज्ञानी लोग ‘क्षेत्रज्ञ’-इस नाम से कहते हैं।
व्याख्या-अर्जुन के द्वारा बारहवें अध्याय के आरम्भ में किये गये प्रश्न के उत्तर में भगवान् यहाँ से निर्गुण-निराकार की उपासना का विस्तार से वर्णन करना आरम्भ करते हैं।
जैसे खेत में तरह-तरह के बीज डालकर खेती की जाती है, ऐसे ही इस मनुष्य शरीर में अहंता-ममता करके जीव तरह-तरह के कर्म करता है और फिर उन कर्मों के फल रूप में उसे दूसरा शरीर मिलता है। भगवान् शरीर के साथ माने हुए अहंता-ममता रूप सम्बन्ध का विच्छेद करने के लिये शरीर को इदंता (पृथकता) से देखने के लिये कह रहे हैं, जो प्रत्येक मार्ग के साधक के लिये अत्यन्त आवश्यक है।
अनन्त ब्र्रह्माण्डों में जितने भी शरीर हैं, उनमें जीव स्वयं ‘क्षेत्रज्ञ’ है और अनन्त ब्रह्माण्ड क्षेत्र हैं। क्षेत्रज्ञ के एक अंश में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं-येन सर्वमिदं ततम् (गीता 2/17)। साधक को जानना चाहिये कि मैं क्षेत्र नहीं हूँ, प्रत्युत क्षेत्र को जानने वाला ‘क्षेत्रज्ञ’ हूँ।
एक ही चिन्मय तत्त्व (सत्ता) क्षेत्र के सम्बन्ध से ‘क्षेत्रज्ञ’, क्षर के सम्बन्ध से ‘अक्षर’, शरीर के सम्बन्ध से ‘शरीरी’, दृश्य के सम्बन्ध से ‘द्रष्टा’, साक्ष्य के सम्बन्ध से ‘साक्षी’ और करण के सम्बन्ध से ‘कर्ता’ कहा जाता है। वास्तव में उस तत्त्व का कोई नाम नहीं है। वह केवल अनुभव रूप है।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोज्र्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।। नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं-
सर्व समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः।। 40।।
हे सर्व स्वरूप! आपको आगे से भी नमस्कार हो और पीछे से भी नमस्कार हो! आपको सब ओर से (दसों दिशाओें से) ही नमस्कार हो! हे अनन्त वीर्य! असीम ।।
हे भरतवंशो˜व अर्जुन्! तू सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही समझ और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत में ज्ञान है।
व्याख्या-क्षेत्र (शरीर) की तो अनन्त ब्रह्माण्डों के साथ एकता है और क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) की अनन्त-अपार-असीम ब्रह्म के साथ एकता है। तात्पर्य है कि क्षेत्रज्ञ और ब्रह्म एक ही हैं। एक क्षेत्र के सम्बन्ध से वही ‘क्षेत्रज्ञ’ है और सम्पूर्ण क्षेत्रों के सम्बन्ध से रहित होने पर वही ‘ब्रह्म’ है।
ब्रह्म के लिये ‘माम्’ कहने का तात्पर्य है कि ब्रह्म और ईश्वर दो नहीं हैं, प्रत्युत एक ही हैं (गीता 9/4)। अनन्त ब्रह्माण्डों में जो निर्लिप्त रूप से सर्वत्र परिपूर्ण चिन्मय सत्ता है, वह ब्रह्म है और जो अनन्त ब्रह्माण्डों का स्वामी है, वह ईश्वर है।
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु।। 3।।
वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिससे जो पैदा हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मुझसे सुन।
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुम˜िर्विनिश्चितैः।। 4।।
यह क्षेत्रज्ञ का तत्त्व ऋषियों के द्वारा बहुत विस्तार से कहा गया है तथा वेदों की ऋचाओं द्वारा बहुत प्रकार से विभाग पूर्वक कहा गया है और युक्ति युक्त एवं निश्चित किये हुए ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है।
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रियगोचराः।। 5।।
मूल प्रकृति और समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व), समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत और दस इन्द्रियाँ, एक मन तथा पाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय-यही (चैबीस तत्त्वों वाला) क्षेत्र है।
व्याख्या-पाँच महाभूत, एक अहंकार और एक बुद्धि-ये सात ‘प्रकृति-विकृति’ हैं, मूल प्रकृति केवल ‘प्रकृति’ है और दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय-ये सोलह केवल ‘विकृति’ हैं। इस तरह इन चैबीस तत्त्वों के समुदाय का नाम ‘क्षेत्र’ है। इसी का एक तुच्छ अंश यह मनुष्य शरीर है।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।। 6।।
इच्छा, द्वेष, सुख, संघात (शरीर), चेतना (प्राण शक्ति) और धृति-इन विकारों सहित यह क्षेत्र संक्षेप से कहा गया है।
व्याख्या-पाँचवें श्लोक में भगवान् ने समष्टि संसार का वर्णन किया और यहाँ व्यष्टि शरीर के विकारों का वर्णन करते हैं। क्षेत्र के साथ सम्बन्ध रखने से ही इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख आदि विकार क्षेत्रज्ञ में होते हैं (गीता 13/30)। ये सभी विकार तादात्म्य (चिज्जडग्रन्थि) के जड़-अंश में रहते हैं।
यहाँ भगवान् ने चैबीस तत्त्वों वाले शरीर को तथा उसके सात विकारों को ‘एतत्’ (यह) कहा है। तात्पर्य है कि स्वयं क्षेत्र से मिला हुआ नहीं है, प्रत्युत उससे सर्वथा अलग है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण-तीनों ही शरीर ‘एतत्’ पद के अन्तर्गत होने से हमारा स्वरूप नहीं है। यहाँ विशेष ध्यान देने की बात है कि जब अहंकार का कारण ‘महत्त्व’ और ‘मूल प्रकृति’ को भी ‘एतत्’ शब्द से दिया तो फिर अहंकार के ‘एतत’ होने में कहना ही क्या है! अहम् से समीप महत्तत्त्व से समीप प्रकृति है, वह प्रकृति भी ‘एतत् क्षेत्रम’ में है। तात्पर्य है कि अहम् हमारा स्वरूप है ही नहीं। जो साधक स्वयं को और अहम् (क्षेत्र) को अलग-अलग जान लेता है, उसका फिर कभी जन्म नहीं होता और वह परमात्मा को प्राप्त हो जाता है (गीता 13/23)।-क्रमशः (हिफी)