
अष्टावक्र जी कहते हैं कि इच्छा नहीं, निश्चय आवश्यक है। ज्ञानी अपने स्वरूप को जाने लेने से ही ब्रह्म हो जाता है। उसे साधना, अभ्यास नहीं करना पड़ता। अज्ञानी इच्छा करता है, इसलिए वह ब्रह्म नहीं हो पाता।
अष्टावक्र गीता-64
नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विमूढ़ोऽभ्यासरूपिणा।
धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः।। 36।।
अर्थात: अज्ञानी पुरुष अभ्यासरूपी कर्म से मोक्ष को नहीं प्राप्त होता है जबकि क्रियारहित ज्ञानी पुरुष केवल ज्ञान के द्वारा मुक्त हुआ स्थिर रहता है।
व्याख्या: आत्मा हमारा स्वभाव है उसे जानना मात्र है। जिसने आत्मा को जान लिया उसने ब्रह्म को जान लिया, वह शुद्ध-बुद्ध हो गया। फिर करना कुछ शेष नहीं रहा। सभी भ्रान्तियाँ मिट जाती हैं, सभी बन्धन टूट जाते हैं, यही मुक्ति है। किन्तु अज्ञानी पुरुष अभ्यास द्वारा इन बन्धनों को काटना चाहता है। चूँकि बन्धन वास्तविक नहीं हैं, भ्रम मात्र हैं, अज्ञान के कारण हैं इसलिए अभ्यास अनावश्यक है। ये ज्ञान-प्राप्ति से अपने आप टूट जायेंगे। भ्रान्ति मात्र थी जो मिट जायेगी। मोक्ष है, स्व के सागर में डुबकी लगाना। तैरने के लिए अभ्यास करना पड़ता है डूबने के लिए अभ्यास की आवश्यकता नहीं है। केवल छलांग मात्र लगाने का साहस चाहिए। आगे सब अपने आप हो जायेगा। आत्मज्ञान एवं मोक्ष के लिए अपने को समर्पण भाव से छोड़ देना मात्र है, निराधार हो जाना मात्र है, अभ्यास मात्र को छोड़कर निश्चेष्ट भाव से अपने आप को समर्पित कर देना है। आगे अस्तित्व अपने आप सम्भाल लेगा। यही आत्मज्ञान है, यही मुक्ति है। क्रिया से बाहरी ज्ञान मिलता है। आत्मज्ञान का मार्ग अक्रिया है।
मूढ़ो नाप्नोति तद्ब्रह्म यतो भवितुमिच्छति।
अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्म स्वरूपभाक्।। 37।।
अर्थात: अज्ञानी जैसे ब्रह्म होने की इच्छा करता है वैसे ही ब्रह्म नहीं हो पाता है और धीर पुरुष नहीं चाहता हुआ भी निश्चित ही परब्रह्म स्वरूप को भजने वाला होता है।
व्याख्या: अष्टावक्र कहते हैं कि जिस प्रकार एक सिंह का बच्चा भेड़ों के समूह में पलकर अपने को भेड़ ही समझने लगता है। उसे यह भ्रान्ति हो जाती है कि मैं तो भेड़ हूँ। किन्तु जब वह अपना चेहरा देख लेता है, जब उसे रक्त का स्वाद आ जाता है तो उसकी भेड़ होने की भ्रान्ति मिट जाती है। उसका सिंहत्व जाग उठता है इसके लिए उसे कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता, कोई अभ्यास, साधना नहीं करनी पड़ती, केवल अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होने से ही उसकी भेड़ होने की भ्रान्ति मिट जाती है। उसी प्रकार ज्ञानी को अपना स्वरूप मात्र जान लेने से समस्त भ्रान्तियाँ मिट जाती हैं एवं वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है। इसलिए जीव ब्रह्म बनता नहीं है, वह ब्रह्म ही है जिसे जान लेता है। यदि सिंह भेड़ ही होता तो लाख योगाभ्यास एवं साधना करने पर भी वह सिंह भेड़ नहीं बन सकता था। भेड़़ यदि जीवन भर सिंह बनने की इच्छा करे तो भी वह सिंह हो नहीं सकती। अष्टावक्र यही कहते हैं कि अज्ञानी यदि ब्रह्म होने की इच्छा करता है तो भी वह ब्रह्म नहीं हो सकता। यदि वह ब्रह्म नहीं है तो इच्छा करने पर वह ब्रह्म कभी नहीं हो सकता किन्तु वह ब्रह्म है ही इसलिए अपने स्वरूप को जान लेने मात्र से ब्रह्म हो जाता है। साधना, अभ्यास नहीं करना पड़ता। केवल निश्चयपूर्वक जान लेने से भ्रान्ति मिट जाती है। इच्छा नहीं, निश्चय आवश्यक है।
निराधारा ग्रहव्यग्रा मूढ़ाः संसारपोषकाः।
एतस्यानर्थमूलस्य मूलच्छेदः कृतो बुधैः।। 38।।
अर्थात: इस आधार-रहित, दुराग्रह-युक्त संसार का पोषक अज्ञानी पुरुष ही है। इस अनर्थ के मूल संसार का मूलाच्छेद ज्ञानियों द्वारा किया गया है।
व्याख्या: संसार का अर्थ इस भौतिक जगत् से नहीं है बल्कि हमने अपने विचारों, वासनाओं, कामनाओं के कारण जो राग, द्वेष, ईष्र्या, घृणा, निन्दा, हिंसा, अहिंसा, तृष्णा, मोह आदि का संसार निर्मित किया है वह आधार रहित है। इसका कोई ठोस शाश्वत आधार नहीं है। सह सब भ्रमपूर्ण है, माया है, दुराग्रह युक्त है। हमारे झूठे आग्रहों से ही संसार में सुख-दुःख, हर्ष-विषाद का अनुभव होता है। यदि सारे दुराग्रह एवं पूर्वाग्रह शान्त हो जायें तो संसार में भी शान्ति का अनुभव हो सकता है। हमारे दुराग्रह के कारण ही संसार अनर्थ का मूल बन जाता है, इसमें कुछ भी अर्थ ज्ञात नहीं होता, निष्प्रयोजन हो जाता है। इसका मूलच्छेदन ज्ञानी ही अपने ज्ञान से करते हैं क्योंकि उसी को इसकी वास्तविकता का पता चलता है, इसलिए ज्ञानी ही इसे अनर्थ का मूल समझकर इससे सम्बन्ध विच्छेद करके आत्मा से अपना सम्बन्ध जोड़कर सुख एवं शान्ति का अनुभव करता है जबकि अज्ञानी इस ज्ञान से अपरिचित रहने से वह इस आधारहीन एवं अनर्थमूलक संसार का ही पोषण करता है। आत्मानन्द के अभाव में वह विषयानन्द को ही सुख मानता है। किन्तु आत्मानन्द प्राप्त होने पर वह विषयानन्द को हेय समझकर छोड़ देता है।
न शान्तिं लभते मूढ़ो यतः शमितुमिच्छति।
धीरस्तत्त्वं विनिश्ंिचत्य सर्वदा शान्त मानसः।। 39।।
अर्थात: अज्ञानी जैसे शान्त होने की इच्छा करता है वैसे ही वह शान्ति को नहीं प्राप्त होता है किन्तु धीर पुरुष तत्त्व को जानकर सदैव शान्त मन वाला है।
व्याख्या: शान्ति प्रयत्न से प्राप्त नहीं होती। अज्ञानी शान्त होने के लिए भी प्रयत्न करता है। शान्त होने की इच्छा करने से भी चित्त में तरंगें उठती हैं जिससे नई अशान्ति पैदा होती है। चित्त का विक्षेप रहित हो जाना ही शान्त होना है। जिसका चित्त समस्त विक्षेपों से रहित हो गया उसी को आत्म ज्ञान का अनुभव होता है एवं वही इस आत्मतत्व को निश्चयपूर्वक जानकर ही सदैव शान्त मन वाला होता है। द्वन्द्व से रहित होना, समभाव में स्थित हो जाना एवं सर्वत्र उस एक आत्मा के अनुभव के बिना शान्ति नहीं मिल सकती। इच्छा करना ही अशान्ति का कारण है।
क्वात्मनो दर्शनं तस्य सद्दृष्टमवलम्बते।
धीरास्तं तं न पश्यन्ति पश्यन्त्यात्मानमव्ययम्।। 40।।
अर्थात: उसको आत्मा का दर्शन कहाँ है जो दृश्य का अवलम्बन करता है? धीर पुरुष दृश्य को नहीं देखते हैं। वे अविनाशी आत्मा को देखते हैं।
व्याख्या: अज्ञानी पदार्थ को ही देखता है उसके अन्दर छिपी आत्मा को नहीं देख सकता। इन्द्रियाँ केवल स्थूल को ही देख पाती हैं, सूक्ष्म उनकी पकड़ में नहीं आता, इसी प्रकार सामान्यजन भी पदार्थों को ही देख पाते हैं किन्तु वैज्ञानिक उसके भीतर की ऊर्जा को भी देख लेते हैं। अज्ञानी कहते हैं पदार्थ ही है, वह सत्य है किन्तु वैज्ञानिक कहता है पदार्थ भ्रम मात्र है, सब ऊर्जा का रूप ही पदार्थ दिखाई देता है। इसी प्रकार दृश्य पदार्थों के अवलम्बन से आत्मा का दर्शन नहीं हो सकता क्योंकि आत्मा स्वयं दृष्टा है स्वयं को देखने वाला है। आँख माध्यम मात्र है, उपकरण मात्र है वह किसी को नहीं देखती, न मन देखता है, न मस्तिष्क। सभी उपकरण हैं। दृष्टा केवल आत्मा है। इसलिए ज्ञानी पुरुष दृश्य पदार्थों को नहीं देखते हैं बल्कि उस अविनाशी आत्मा को ही देखते हैं जिससे सारा जगत् दृश्यमान होता है। अज्ञानी ही दृश्य पदार्थों को देखते हैं। इस दृष्टा का ज्ञान ही धर्म है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)