धर्म-अध्यात्म

भक्त सब कुछ भगवान का स्वरूप समझें

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-29

 

जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

भक्त सब कुछ भगवान का स्वरूप समझें

पूर्व पक्ष-कुछ भी चिन्तन न करने से जो साक्षी भाव रहेगा, वह तो बुद्धि में ही रहेगा।
उत्तर पक्ष-साक्षी भाव तो बुद्धि में रहेगा, पर उसका परिणाम स्वयं में होगा, जैसे-युद्ध तो सेना करती है, पर परिणाम में विजय राजा की होती है। साधक का यह साक्षी भाव भी बिना उद्योग किये स्वतः मिट जायगा।
पूर्व पक्ष-व्यर्थ चिन्तन को मिटाने के लिये परमात्मा का चिन्तन करें तो क्या आपत्ति है?
उत्तर पक्ष-एक चिन्तन किया जाता है, एक स्वतः होता है। जैसे भूख लगने पर अन्न का चिन्तन स्वतः होता है, ऐसे ही साधक को परमात्मा का चिन्तन स्वतः होना चाहिये, जो परमात्मा की आवश्यकता समझने पर ही होगा। परन्तु साधक की प्रायः यह दशा होती है कि उसे परमात्मा का चिन्तन तो करना पड़ता है, पर संसार का चिन्तन स्वतः होता है। संसार के चिन्तन को मिटाने के लिये वह बलपूर्वक परमात्मा का चिन्तन करता है। इसका परिणाम यह होता है कि बलपूर्वक किये गये चिन्तन का प्रभाव भी अन्तःकरण में अंकित हो जाता है और संसार का चिन्तन भी होता रहता है। इससे साधक के भीतर यह अभिमान उत्पन्न हो जाता है कि मैंने इतने वर्षों तक साधन किया अथवा वह निराश हो जाता है कि इतने वर्षों तक साधन करने पर भी लाभ नहीं हुआ। अतः साधक निद्रा-आलस्य छोड़कर चुप, शान्त रहने का स्वभाव बना ले। कुछ भी चिन्तन न करने से साधक की स्थिति स्वतः परमात्मा में ही होगी।
यतो यतो निश्चरित मनश्चंलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।। 26।।
यह अस्थिर और चंचल मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है, वहाँ-वहाँ से हटाकर इसको एक परमात्मा में ही भलीभाँति लगाये।
प्रशान्तमनसं ह्योनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।। 27।।
जिसके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिसका रजोगुण शान्त हो गया है तथा जिसका मन सर्वथा शान्त (निर्मल) हो गया है, ऐसे इस ब्रह्मरूप बने हुए योगी को निश्चित ही उत्तम (सात्त्विक) सुख प्राप्त होता है।
युज्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।। 28।।
इस प्रकार अपने-आपको सदा परमात्मा में लगाता हुआ पाप रहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्म प्राप्ति रूप अत्यन्त सुख का अनुभव कर लेता है।
व्याख्या-अपने आपको परमात्मा में लगाने का तात्पर्य है। कुछ भी चिन्तन न करना अर्थात् बाहर-भीतर से चुप, शान्त हो जाना। न संसार (बाहर) का चिन्तन हो, न परमात्मा (भीतर) का। कुछ भी चिन्तन न करने से स्वतः साधक की स्थिति परमात्मतत्त्व में होती है।
मन को परमात्मा में लगाना करण साक्षेप साधन है (गीता 6/26), और अपने आपको परमात्मा में लगाना करण निरपेक्ष साधन है। करण निरपेक्ष साधन में जड़ता का सम्बन्ध सर्वथा न रहने से साधक सुखपूर्वक परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। परन्तु करण सापेक्ष साधन में परमात्मा को कठिनतापूर्वक प्राप्त किया जाता है (गीता 12/5)।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।। 29।।
सब जगह अपने स्वरूप को देखने वाला और ध्यान योग से युक्त अन्तःकरण वाला (सांख्य योगी) अपने स्वरूप को सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है और सम्पूर्ण प्राणियों को अपने स्वरूप में देखता है।
व्याख्या-ध्यान योग के जिस साधक में ज्ञान के संस्कार रहते है, जो ज्ञान को ही मुख्य मानता है, वह जड़ता से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर स्वयं को सब प्राणियों में तथा सब प्राणियों को स्वयं में अनुभव करता है।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।। 30।।
जो भक्त सबमंे मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
व्याख्या-ध्यान योग के जिस साधक में भक्ति के संस्कार रहते हैं, जो भक्ति को ही मुख्य मानता है, वह जड़ता से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर सबमें भगवान् को और भगवान् में सबको देखता है। अतः उसके लिये भगवान् अदृश्य नहीं होते और वह भगवान के लिये अदृश्य नहीं होता। जब एक भगवान् के सिवाय दूसरी सत्ता है ही नहीं, भगवान् ही अनेक रूपों में प्रकट हो रहे हैं, फिर भगवान् कैसे छिपें, कहाँ छिपें, किसके पीछे छिपें।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।। 31।।
मुझमें एकीभाव से स्थित हुआ जो भक्तियोगी सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित मेरा भजन करता है, वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मुझमें ही बर्ताव कर रहा है अर्थात् वह नित्य-निरन्तर मुझमें ही स्थित है।

व्याख्या-भगवान् का भक्त अपने शरीर के सहित सम्पूर्ण संसार को भगवान् का ही स्वरूप समझता है। इसलिये वह नित्य-निरन्तर भगवान् में ही रहता है और भगवान् में ही सब बर्ताव करता है। उसके भाव में ये
पाँच बातें रहती हंै- (1) मैं भगवान् का ही हूँ, (2) मैं जहाँ भी रहता हूँ,
भगवान् के दरबार में ही रहता हूँ, (3) मैं जो भी शुभ कार्य करता हूँ, भगवान् का ही कार्य करता हूँ, (4) मैं शुद्ध-सात्त्विक जो भी पाता हूँ, भगवान्
का ही प्रसाद पाता हूँ, और (5) भगवान् के दिये प्रसाद से भगवान् के ही
जनों की सेवा करता हूँ। जैसे गंगाजल से गंगा का पूजन किया जाय,
ऐसे ही उस भक्त का बर्ताव भगवान् में ही होता है। जैसे शरीर से
सम्बन्ध मानने वाला मनुष्य सब क्रियाएँ करते हुए भी निरन्तर शरीर में
ही रहता है, ऐसे ही भक्त सब क्रियाएँ करते हुए भी निरन्तर भगवान् में ही
रहता है। -क्रमशः (हिफी)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button