लेखक की कलमसम-सामयिक

हस्तकला को समृद्ध कर रहे धामी

 

उत्तराखंड के उधम सिंह नगर और नैनीताल क्षेत्र में रहने वाली थारू जनजाति की अनूठी संस्कृति है। इस जनजाति के लोगों की मेहनत और हुनर की चमक विदेशों में भी पहुंच रही है। देहरादून के रहने वाले तरुण पंत व अन्य थारु जनजाति के लोगों के उत्थान के लिए काम कर रहे हैं।

हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे कि जब तक गांवों को आत्मनिर्भर नहीं बनाया जाएगा, तब तक देश का विकास नहीं हो सकता। इस सच्चाई को राजनीति ने समझा लेकिन अपने स्वार्थ को ही प्राथमिकता दी। इसके चलते स्थानीय हस्तकला का उतना विकास नहीं हो पाया, जितनी अपेक्षा थी। कहीं-कहीं तो हस्तकलाएं विलुप्त होने की स्थिति में पहुंच गयी हैं। इसका बड़ा कारण हमारे रहन-सहन मंे परिवर्तन भी है। पहले बड़े-बड़े भोज समारोह मंे पत्तलों पर भोजन कराया जाता था और मिट्टी के कुल्हड़ों में पानी या शर्बत पिलाया जाता था। इनकी जगह प्लास्टिक के बर्तनों ने ले ली जो पर्यावरण प्रदूषण का कारण बने हुए हैं। हालंाकि हस्तकला को विकसित करने पर फिर से ध्यान गया है। मिट्टी के कुल्हड़ों मंे चाय पीने वालों की लाइन लगी रहती है। उत्तराखण्ड मंे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी अपने राज्य मंे हस्तकला को बढ़ावा देने का प्रयास किया है। ऊधम सिंह नगर और नैनीताल क्षेत्र मंे रहने वाली थारू जनजाति मूंज और घास से डलिया आदि तैयार करती हैं जिनकी मांग विदेशों में भी है। इसी प्रकार के अन्य ग्रामीण स्तर के उत्पादों को धामी सरकार बढ़ावा दे रही है। इससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता है।

उत्तराखंड में पांच तरह की जनजाति निवास करती हैं। इनमें थारु जनजाति उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में रहती है। उत्तराखंड के उधम सिंह नगर और नैनीताल क्षेत्र में रहने वाली थारू जनजाति की अनूठी संस्कृति है। इस जनजाति के लोगों की मेहनत और हुनर की चमक विदेशों में भी पहुंच रही है। देहरादून के रहने वाले तरुण पंत व अन्य थारु जनजाति के लोगों के उत्थान के लिए काम कर रहे हैं। उत्तराखंड के खटीमा, सितारगंज जैसे इलाकों में रहने वाले थारू जनजाति के लोग मूंज घास से हैंडलूम तैयार करते हैं। तरुण इन्हें विदेशों में एक्सपोर्ट करते हैं। वह इन आइटम को ऑर्डर पर बनवाकर ऑनलाइन मंच दे रहे हैं। वहीं वह गांव में जाकर लोगों को ट्रेनिंग देकर उनमें स्किल पैदा करते हैं। उन्होंने इस जनजाति के विकास के लिए गांव-गांव जाकर उन्हें ट्रेनिंग दी और फिर वह आदि मंत्र और एंड ट्राइबल डेवलपमेंट फाउंडेशन नाम से एक संस्था बनाकर उनके साथ काम करने लगे। तरुण ने कहा कि वह पहले नेशनल और इंटरनेशनल कॉरपोरेट्स में काम करते थे। इस दौरान वह यूरोप, एशिया के कई देशों में रहे। वहां उन्होंने देखा कि हैंडमेड चीजों को बहुत पसंद किया जाता है। वहां इन चीजों को बनाने वाले ऐसे कम लोग थे। उन्होंने कहा कि जब वह उत्तराखंड आए तो उन्होंने देखा कि कुछ बुजुर्ग औरतें खटीमा और सितारगंज के इलाके में मूंज घास से टोकरी आदि बना रही हैं। सरकारी ट्रेनिंग तो होती थी लेकिन इन्हें बनाने के बाद कहां बेचा जाए, यह लोगों को नहीं पता था। इसीलिए इस कला से लोग दूर हो रहे थे क्योंकि इसमें रोजगार नहीं मिल पा रहा था। उन्होंने बताया कि इस मुहिम से अब तक हजारों कारीगर जुड़ गए हैं।

मध्य हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड का हस्तशिल्प सदियों से आकर्षण का केंद्र रहा है। फिर चाहे वह काष्ठ शिल्प हो ताम्र शिल्प अथवा ऊन से बने वस्त्र। सभी की खूब मांग रही है। हालांकि बदलते वक्त की मार से यहां का हस्तशिल्प भीहस्तशिल्प को निखारने के लिए राज्य के स्थानीय संसाधनों को बड़े विकल्प के तौर पर लेने की तैयारी है। इस कड़ी में भीमल सबसे अहम भूमिका निभाएगा। दरअसल, राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले भीमल के पेड़ पशुओं के लिए उत्तम चारा हैं। साथ ही इसकी टहनियों से निकलने वाले रेशे का उपयोग सदियों से रस्सी आदि बनाने में किया जा रहा है। हालांकि, भीमल के रेशे से कई उत्पाद भी तैयार किए गए, मगर इन्हें बड़े बाजार की तलाश है। इसमें डिजाइन से लेकर अन्य प्रयोग किए जाने की दरकार है। इसी तरह राज्यभर में बांस व रिंगाल भी मिलता है। बांस व रिंगाल से टोकरियां, सजावटी सामान तैयार किया जाता है। बांस, रिंगाल का उपयोग फर्नीचर बनाने में भी होता है।

जाहिर है कि भीमल, बांस व रिंगाल का उपयोग आजीविका के साधन के तौर पर होगा तो बड़े पैमाने पर इन प्रजातियों का पौधरोपण भी होगा। इससे पर्यावरण की सेहत भी संवरेगी। यही नहीं, राज्य में हर साल जंगलों की आग का सबब बनने वाली चीड़ की पत्तियां यानी पिरुल से भी कई प्रकार की सजावटी वस्तुएं तैयार की जा सकती हैं। इस सबको देखते हुए सरकार ने इसे भी संसाधन के तौर पर लिया है और इसमें आजीविका के अवसर तलाशे हैं। जरूरत इस बात की है कि सरकार इस पहल को पूरी गंभीरता के साथ धरातल पर उतारना सुनिश्चित करे। अछूता नहीं रहा है।यहां के हस्तशिल्पी भी देश-दुनिया के साथ कदम से कदम मिला सकें। इसके लिए हस्तशिल्प को नए कलेवर में निखारने के साथ ही इसमें नित नए-नए प्रयोग की जरूरत है। इसे देखते हुए राज्य सरकार ने अब उत्तराखंडी हस्तशिल्प को नए कलेवर में निखारने के मद्देनजर देश के नामी संस्थानों के पेशेवर डिजायनरों की सेवाएं लेने का निश्चय किया है। साथ ही विपणन के लिए भी प्रभावी कदम उठाने की सरकार ने ठानी है। इसके तहत न सिर्फ राज्य के प्रमुख शहरों में शिल्प इंपोरियम स्थापित किए जाएंगे, बल्कि इनके माध्यम से हस्तशिल्प उत्पाद देश के विभिन्न हिस्सों के साथ ही दुनियाभर में जाएंगे।

साफ है कि इससे उत्तराखंडी हस्तशिल्प को देश-दुनिया में नई पहचान मिलेगी। सिक्योर हिमालय परियोजना के तहत आयोजित ग्राहक विक्रेता मीट में तीन कंपनियों ने स्थानीय बुनकरों एवं हस्त शिल्पियों के साथ अनुबंध किया। अब बुढेरा हिमालयन क्राफ्ट के हथकरघा एवं हस्तशिल्प उत्पादों को देश के अन्य हिस्सों में भी बाजार उपलब्ध होगा।मीट का आयोजन करने वाले सेल्फ हेल्प संस्था के सचिव नवीन आनंद ने बताया कि ट्राइफेड डिजाइन, नैनी इंटरनेशनल एवं कुमाऊं वूलन ने स्थानीय बुनकर एवं शिल्पियों के साथ अनुबंध किया है, जिसके तहत यह कंपनियां बुढेरा हिमालयन क्राफ्ट की खरीद कर इसे देश दुनिया तक पहुंचाएंगी। मौके पर मौजूद जिला उद्योग केंद्र के महाप्रबंधक उत्तम कुमार तिवारी ने कहा कि इससे स्थानीय उत्पादों को बाजार मिलेगा और स्थानीय बुनकर एवं शिल्पियों को फायदा होगा। (हिफी)

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)

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