धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-32)
मेरे भावों का भक्तों में करें विस्तार: कृष्ण

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।
प्रश्न-‘अशुश्रूषवे’ पद किसका वाचक है और उसे गीतोक्त उपदेश न सुनाने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिसकी गीता शाó को सुनने की इच्छा न हो, उसका वाचक यहाँ अशुश्रूषवे पद है। उसे सुनाने की मनाही करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यदि कोई अपने धर्म का पालन रूप तप भी करता हो किन्तु गीता शाó में श्रद्धा और प्रेम होने के कारण वह उसे सुनना न चाहता हो, तो उसे भी यह परम गोपनीय शाó नहीं सुनाना चाहिये क्योंकि ऐसा मनुष्य उसको सुनने से ऊब जाता है और उसे ग्रहण नहीं कर सकता, इससे मेरे उपदेश का और मेरा अनादर होता है।
प्रश्न-जो मुझमें दोष दृष्टि रखता है, उसे कभी भी नहीं कहना चाहिये। इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि संसार का उद्धार करने के लिये सगुण रूप से प्रकट मुझ परमेश्वर में जिसकी दोष दृष्टि है, जो मेरे गुणों में दोषारोपण करके मेरी निन्दा करने वाला है-ऐसे मनुष्य को तो किसी भी हालत में यह उपदेश नहीं सुनाना चाहिये क्योंकि वह मेरे गुण, प्रभाव और ऐश्वर्य को न सह सकने के कारण इस उपदेश को सुनकर मेरी पहले से भी अधिक अवज्ञा करेगा, इससे अधिक पाप का भागी होगा।
प्रश्न-उपर्युक्त चारों दोष जिसमें हों, उसी को यह उपदेश नहीं कहना चाहिये या चारों में से जिसमें एक दो या तीन दोष हों-उसको भी नहीं सुनना चाहिये?
उत्तर-चारों में एक भी दोष जिसमें नहीं है, वह तो इस उपदेश का पूरा अधिकारी है ही, इसके सिवा जिसमें सर्वधर्म पालन यप तप की कमी हो, पर उसके बाद के तीन दोष नहीं हों तो वह भी अधिकारी है तथा जो न तो तपस्वी हो और न भगवान् का पूर्ण भक्त ही हो, परन्तु गीता सुनना चाहता हो तो वह भी किसी अंश में अधिकारी है। किन्तु जो भगवान् में दोष दृष्टि रखता है-उनकी निन्दा करता है, वह तो सर्वथा अनधिकारी है, उसे तो कभी भी नहीं करना चाहिये।
य इमं परमं गुह्यं म˜क्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।। 68।।
प्रश्न-‘इमम्’ पद किसका वाचक है तथा उसके साथ ‘परमम्’ और ‘गुह्याम्’-इन दो विशेषणों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-‘इमम्’ पद यहाँ गीतोक्त समस्त उपदेश का वाचक है। उसके साथ ‘परमम्’ और ‘गुह्याम्’ विशेषण देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यह उपदेश मनुष्य को संसार बन्धन से छुड़ाकर साक्षात् मुझ परमेश्वर की प्राप्ति कराने वाला होने से अत्यन्त ही श्रेष्ठ और गुप्त रखने योग्य है।
प्रश्न-‘म˜क्तेषुः’ पद किनका वाचक है और इसका प्रयोग करके यहाँ क्या भाव दिखलाया गया है?
उत्तर-जिनकी भगवान् में श्रद्धा है, जो भगवान् को समस्त जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और पालन करने वाले, सर्वशक्तिमान् और सर्वेश्वर समझकर उनमें प्रेम करते हैं जिनके चित्त में भगवान् के गुण, प्रभाव, लीला और तत्त्व की बातें सुनने की उत्सुकता रहती है और सुनकर प्रसन्नता होती है। उनका वाचक यहाँ ‘म˜क्तेषु’ पद है। इसका प्रयोग करके यहाँ गीता के अधिकारी का निर्णय किया गया है। अभिप्राय यह है कि जो मेरा भक्त होता है, उसमें पूर्व श्लोक में वर्णित चारों दोषों का अभाव अपने आप हो जाता है। इसलिये जो मेरा भक्त है, वही इसका अधिकारी है तथा सभी मनुष्य-चाहे किसी भी वर्ण और जाति के क्यों न हों-मेरे भक्त बन सकते हैं। अतः वर्ण और जाति आदि के कारण इसका कोई भी अनधिकारी नहीं है।
प्रश्न-भगवान् में परम प्रेम करके भगवान् के भक्तों में इस उपदेश का कथन करना क्या है?
उत्तर-स्वयं भगवान् में या उनके वचनों में अतिशय श्रद्धा युक्त होकर एवं भगवान् के नाम, गुण, लीला, प्रभाव और स्वरूप की स्मृति से उनके प्रेम में विह््वल हाकर केवल भगवान की प्रसन्नता के ही लिये निष्काम भाव से उपर्युक्त भगव˜क्तों में इस गीता शाó का वर्णन करना अर्थात् भगवान् के भक्तों को इसके मूल श्लोकों का अध्ययन कराना, उनकी व्याख्या करके अर्थ समझाना, शुद्ध पाठ करवाना, उनके भावों को भलीभाँति प्रकट करना और समझाना, श्रोताओं की शंकाओं का समाधान करके गीता के उपदेश को उनके हृदय में जमा देना और गीता के उपदेशानुसार चलने की उनमें दृढ़ भावना उत्पन्न कर देना आदि सभी क्रियाएँ भगवान् में परम प्रेम करके भगवान् के भक्तों में गीता का उपदेश कथन करने के अन्तर्गत आ जाती हैं।
प्रश्न-वह मुझको ही प्राप्त होगा-इसमें कोई सन्देह नहीं है, इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस प्रकार जो भक्त केवल मेरी भक्ति के ही उद्देश्य से निष्काम भाव से मेरे भावों का अधिकारी पुरुषों में विस्तार करता है, वह मुझे प्राप्त होता हैं। इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं है। अर्थात यह मेरी प्राप्ति का ऐकान्तिक उपाय है, इसलिये मेरी प्राप्ति चाहने वाले अधिकारी भक्तों को इस गीता शाó के कथन तथा प्रचार का कार्य अवश्य करना चाहिये।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे सस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।। 69।।
प्रश्न-‘तस्मात्’ पद यहाँ किसका वाचक है और उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-‘तस्मात्’ पद यहाँ पूर्व श्लोक में वर्णित, इस गीता शाó का भगवान् के भक्तों में कथन करने वाले, गीता शाó के मर्मज्ञ, श्रद्धालु और प्रेमी भगव˜क्त का वाचक है। उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है। इस वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यज्ञ, दान, तप, सेवा, पूजा और जप, ध्यान आदि जितने भी मेरे प्रिय कार्य हैं-उन सबसे बढ़कर मेरे भावों को मेरे भक्तों में विस्तार करना मुझे प्रिय है, इस कार्य के बराबर मेरा प्रिय कार्य संसार में कोई है ही नहीं। इस कारण जो मेरा प्रेमी भक्त मेरे भावों का श्रद्धा-भक्ति पूर्वक मेरे भक्तों में विस्तार करता है, वही सब से बढ़कर मेरा प्रिय है, उससे बढ़कर दूसरा कोई नहीं। क्योंकि वह अपने स्वार्थ को सर्वथा त्यागकर केवल मेरा ही प्रिय कार्य करता है, इस कारण वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। क्रमशः (हिफी)