धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सत्तरहवां अध्याय-07) सम्मान पूर्ण विश्वास को कहते हैं परमश्रद्धा

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘आत्मविनिग्रह’ क्या है?
उत्तर-अन्तःकरण की चंचलता का सर्वथा नाश होकर उसका स्थिर तथा अच्छी प्रकार अपने वश में हो जाना ही ‘आत्मविनिग्रह’ है।
प्रश्न-‘भावसंशुद्धि’ किसे कहते हैं?
उत्तर-अन्तःकरण में राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मत्सर, ईर्ष्या-वैर, घृणा-तिरस्कार, असूया-असहिष्णुता, प्रमाद, व्यर्थ विचार, इष्टविरोध और अनिष्टि चिन्तन आदि दुर्भावों का सर्वथा नष्ट हो जाना और इनके विरोधी दया, क्षमा, प्रेम, विनय, आदि समस्त स˜ावों का सदा विकसित रहना ‘भावसंशुद्धि’ है।
प्रश्न-इन सभी गुणों को मानस (मन-सम्बन्धी) तप कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-ये सभी गुण मन से समबन्ध रखने वाले मन को समस्त दोषों से रहित करके परम पवित्र बना देने वाले हैं इसलिये इनको मानस-तप बतलाया गया है।
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाड.क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते।। 17।।
प्रश्न-‘नरैः’ पद के साथ ‘अफलाकांक्षी’ और ‘युक्तैः’ इन दोनों विशेषणों का प्रयोग करके क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर-जो मनुष्य इस लोक या परलोक के किसी प्रकार के भी सुख-भोग अथवा दुःख की निवृत्ति रूप फल की, कभी किसी भी कारण से किंचित मात्र भी कामना नहीं करता, उसे ‘अफलाकांक्षी’ कहते हैं और जिसके मन, बुद्धि और इन्द्रिय अनासक्त, निगृहीत तथा शुद्ध होने के कारण, कभी किसी भी प्रकार के भोग के सम्बन्ध से विचलित नहीं हो सकते, जिसमें आसक्ति का सर्वथा अभाव हो गया है उसे ‘युक्त’ कहते हैं। अतः इनका प्रयोग करके निष्काम भाव की आवश्यकता सिद्ध करते हुए भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि उपर्युक्त तीन प्रकार का तप जब ऐसे निष्काम पुरुषों द्वारा किया जाता है तभी वह पूर्ण सात्त्विक होता है।
प्रश्न-‘परम श्रद्धा’ कैसी श्रद्धा को कहते हैं और उसके साथ तीन प्रकार के तप का करना क्या है?
उत्तर-शाóों में उपर्युक्त तप का जो कुछ भी महत्त्व, प्रभाव और स्वरूप बतलाया गया है-उस पर प्रत्यक्ष से भी बढ़कर सम्मानपूर्वक पूर्ण विश्वास होना ‘परम श्रद्धा’ है और ऐसी श्रद्धा से युक्त होकर बड़े-से-बड़े विघ्नों या कष्टों की कुछ भी परवाह न करके सदा अविचलित रहते हुए अत्यन्त आदर और उत्साहपूर्वक उपर्युक्त तप का आचरण करते रहना ही उसे परम श्रद्धा से करना है।
प्रश्न-‘तपः’ पद के साथ ‘तत्’ और ‘त्रिविधम्’ इन विशेषणों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-इनका प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि शरीर, वाणी और मन-सम्बन्धी उपर्युक्त तप ही सात्त्विक हो सकते हैं। इनसे भिन्न जो अन्य प्रकार के कायिक, वाचिक और मानसिक तप हैं जिनको इसी अध्याय के पाँचवें श्लोक में ‘अशाóविहितम्’ और घोरम् विशेषण लगाकर निरूपण किया गया है वे तप सात्त्विक नहीं होते। साथ ही यह भी दिखलाया है कि चौदहवें, पंद्रहवें और सोलहवें श्लोकों में जिन कायिक, वाचिक और मानसिक तपों का स्वरूप बतलाया गया है-वे स्वरूप से तो सात्त्विक हैं परन्तु वे पूर्ण सात्त्विक तब होते हैं, जब इस श्लोक में बतलाये हुए भाव से किये जाते हैं।
सत्कारमानपूजार्थ तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।। 18।।
प्रश्न-यहाँ ‘तपः’ के साथ ‘यत्’ पद का प्रयोग करने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-यहाँ ‘तपः’ के साथ ‘यत्’ पद का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि शास्त्रों में जितने भी व्रत, उपवास और संयम आदि तपों के वर्णन हैं-वे सभी तप यदि सत्कार, मान और पूजादि के लिये किये जाते हैं, तो राजस तप की श्रेणी में आ जाते हैं।
प्रश्न-सत्कार, मान और पूजा के लिये ‘तप’ करना क्या है? तथा ‘च’ और ‘एव’ के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-तप की प्रसिद्धि से जो इस प्रकार जगत् में बड़़ाई होती है कि यह मनुष्य बड़ा भारी तपस्वी है, इसकी बराबरी कौन कर सकता है, यह बड़ा श्रेष्ठ है आदि-उसका नाम ‘सत्कार’ है। किसी को तपस्वी समझकर उसका स्वागत करना, उसके सामने खड़े हो जाना, प्रणाम करना, मानपत्र देना या अन्य किसी क्रिया से उसका आदर करना ‘मान’ है तथा उसकी आरती उतारना, पैर धोना, पत्र-पुष्पादि षोडशोपार से पूजा करना, उसकी आज्ञा का पालन करना इन सबका नाम ‘पूजा’ है।
इन सबके लिये जो लौकिक या शाóीय तप का आचरण किया जाता है-वही सत्कार, मान और पूजा के लिये तप करना है तथा ‘च’ और ‘एव’ का प्रयोग करके यह भाव दिखाया है कि इसके सिवा अन्य किसी स्वार्थ की सिद्धि के लिये किया जाने वाला तप भी राजस है।
प्रश्न-दम्भ से ‘तप’ करना क्या है?
उत्तर-तप में वस्तुतः आस्था न होने पर भी लोगों को धोखा देकर किसी प्रकार का स्वार्थ सिद्ध करने के लिये तपस्वी का-सा स्वाँग रचकर जो किसी लौकिक या शाóीय तप का बाहर से दिखाने भर के लिये आचरण किया जाता है, उसे दम्भ से तप करना कहते हैं।
प्रश्न-स्वार्थ सिद्धि के लिये किया जाने वाला जो तप दम्भपूर्वक किया जाता है, वही ‘राजस; माना जाता है या केवल स्वार्थ के सम्बन्ध से ही राजस हो जाता है?
उत्तर-केवल स्वार्थ के सम्बन्ध से ही राजस हो जाता है फिर दम्भ भी साथ में हो, उसके लिये तो कहना ही क्या है।
प्रश्न-राजस तप को ‘अध्रुव’ और ‘चल’ कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिस फल की प्राप्ति के लिये उसका अनुष्ठान किया जाता है, उसका प्राप्त होना या न होना निश्चित नहीं है इसलिये उसे ‘अध्रुव’ कहा है और जो कुछ फल मिलता है, वह भी सदा नहीं रहता, उसका निश्चय ही नाश हो जाता है-इसलिये उसे ‘चल’ कहा है।-क्रमशः (हिफी)