
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
माया से पार पाना कठिन
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरिभः सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्।। 13।।
किन्तु इन तीनों गुण रूप भावों से मोहित यह सम्पूर्ण जगत् ़(प्राणि मात्र) इन गुणों से अतीत और अविनाशी मुझे नहीं जानता।
व्याख्या-जो मनुष्य भगवान् को न देखकर गुणों को देखते हैं अर्थात् गुणों की स्वतन्त्र सत्ता मानते हैं, वे गुणों से मोहित हो जाते हैं। गुणों से मोहित मनुष्य गुणातीत परमात्मा को नहीं जान सकते।
यद्यपि परमात्मा का अंश होने से जीवात्मा भी गुणातीत है, तथापि गुणों को सत्ता और महत्ता देने से वह गुणमय जगत् बन जाता है। इसी कारण इस श्लोक में जीवात्मा को ‘जगत्’ कहा है। जगत् बना हुआ जीवात्मा शरीर-संसार को ही मैं, मेरा और मेरे लिये मान लेता है।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। 14।।
क्योंकि मेरी यह गुणमयी दैवी माया दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल मेरे ही शरण होते हैं, वे इस माया को तर जाते हैं।
व्याख्या-जो मनुष्य भगवान् की गुणमयी (तीनों गुणों) की स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता मानते हैं, उनके लिये इस माया से पार पाना बहुत ही कठिन है। यह गुणमयी माया है तो भगवान् की ‘मम माया’ पर जीव इसे अपनी और अपने लिये मानकर बँध जाता है। इस माया से पार पाने का सुगम उपाय है-शरणा गति अर्थात् किसी भी वस्तु को अपनी और अपने लिए न मानकर भगवान् की और भगवान् के लिए ही मान लेना।
न मां दुष्कृतिनो मूढ़ाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।। 15।।
परन्तु माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा गया है, वे आसुर भाव का आश्रय लेने वाले और मनुष्यों में महान् नीच तथा पाप-कर्म करने वाले मूढ़ मनुष्य मेरे शरण नहीं होते।
व्याख्या-यद्यपि भगवान् ने सभी को अपनी शरण में ले रखा है, परन्तु भोग तथा संग्रह की आसक्ति में रचे-पचे मनुष्य भगवान् की शरण न लेकर संसार की शरण लेते हैं और परिणाम में दुःख पाते हैं।
पूर्व पक्ष-भगवान् की माया ने सबको बाँध रखा है, फिर मनुष्य बेचारा क्या करे?
उत्तर पक्ष-भगवान् की माया किसी को भी नहीं बाँधती। मनुष्य ही भगवान् की माया को अपनी और अपने लिए मानकर बँधता है।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। 16।।
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! पवित्र कर्म करने वाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी-ये चार प्रकार के मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् मेरे शरण होते हैं।
व्याख्या-पूर्व श्लोक में भगवान् से विमुख हुए मनुष्यों की बात कहकर अब भगवान् के सम्मुख हुए भक्तों की बात कहते हैं। ऐसे भक्त चार प्रकार के होते हैं-अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और प्रेमी। जब तक संसार का किंचित् सम्बन्ध रहता है, तब तक अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु-ये तीन भेद रहते हैं। परन्तु संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर मनुष्य ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त होता है।
अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु-तीनों में भगवान् की मुख्यता तथा सम्मुखता रहती है। अतः अर्थार्थी भगवान् से ही अपनी धन की इच्छा पूरी करना चाहता है। आर्त भगवान् से ही अपना दुःख मिटाना चाहता है। जिज्ञासु भगवान् से ही अपनी जिज्ञासा शान्त कराना चाहता है। जब भक्त एक भगवान् के सिवाय कुछ भी नहीं चाहता, तब वह ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त होता है।
पूर्व पक्ष-ज्ञानी को प्रेमी भक्त कैसे मान लिया गया? यदि उसे तत्त्व ज्ञानी मान ले तो क्या आपत्ति है?
उत्तर पक्ष-कुछ ऐसे कारण हैं, जिनसे ‘ज्ञानी’ को प्रेमी भक्त मानना ही अधिक उपयुक्त दीखता है, जैसे-
(1) भगवान् ने चतुर्विधा भजन्ते माम् कहकर ज्ञानी को चार प्रकार के भक्तों के अन्तर्गत लिया है।
(2) भगवान् ने अगले श्लोक में ज्ञानी को अनन्य-भक्ति वाला कहा है-एक भक्तिर्विशिश्यते और अपने को उसका अत्यन्त प्रिय बताया है-प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम्।
(3) भगवान ने ‘वासुदेवः सर्वम्’ का शब्द न देकर ‘ज्ञानी’ शब्द दिया ही क्यों?
पूर्वपक्ष-परन्तु भगवान् ने ‘भक्त’ शब्द न देकर ‘ज्ञानी’ शब्द दिया ही क्यों?
उत्तर पक्ष-कोई यह न समझ ले कि भक्त में ज्ञान की कमी या अभाव रहता है, इसलिए ‘ज्ञानी’ शब्द देकर भगवान् ने यह बताया है कि मेरे भक्त में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रहती। तत्त्व ज्ञानी को तो ब्रह्म का ज्ञान होता है, पर भक्त को विज्ञान सहित ज्ञान का अर्थात् समग्र का ज्ञान हो जाता है (गीता 7/29-30)।
तेषां ज्ञानी नित्युक्त एक भक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।। 17।।
उन चार भक्तों में मुझ में निरन्तर लगा हुआ अनन्य भक्ति वाला ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्ञानी भक्त को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
व्याख्या-अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु सर्वथा भगवान् के सम्मुख नहीं होते, परन्तु प्रेमी भक्त (निष्काम होने से) सर्वथा भगवान् के सम्मुख होता है। इसलिये भक्त और भगवान् दोनों में परस्पर प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम की लीला चलती रहती है।-क्रमशः (हिफी)