‘इंडिया’ गठबंधन की कठिनाइयां

सहयोग और स्वार्थ साथ-साथ नहीं चल सकते। भाजपा के विरोध में 28 विपक्षी दलों के गठबंधन को इसीलिए सफलता नहीं मिल पा रही है क्योंकि सहयोग की भावना दिखावे के लिए है जबकि अप्रत्यक्ष रूप से स्वार्थ दिख रहा है। कर्नाटक विधानसभा के चुनाव मंे कांग्रेस ने भाजपा को पराजित किया। वहां विपक्षी दलों के नाम पर जनता दल सेक्यूलर और बसपा ही थे। ये दोनों इंडिया गठबंधन मंे शामिल ही नहीं हैं जबकि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, बिहार की जद(यू) और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के स्वार्थ कर्नाटक मंे टकरा ही नहीं रहे थे। अब पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव मंे मध्य भारत के तीन राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ मंे अखिलेश यादव और अरविन्द केजरीवाल के स्वार्थ सामने आ गये। नतीजा यह हुआ कि अखिलेश यादव और केजरीवाल को तो कुछ मिलना ही नहीं था, लेकिन कांग्रेस के हाथ से दो राज्य चले गये। भाजपा को पराजित करने का लक्ष्य कहीं दिखाई ही नहीं पड़ा। कांग्रेस के संभावित नेतृत्व पर भी खुलकर सवाल उठने लगे हैं शिवसेना के मुख पत्र सामना मंे यह सवाल वाजिब उठाया गया है कि विपक्षी दलों के गठबंधन मंे 28 घोड़े तो जुते हैं लेकिन इनका सारथी कौन होगा। इस गठबंधन की तीन बैठकें एक तरह से सफल कही जा सकती हैं क्योंकि उनमंे मतभेद दूर करने का प्रयास किया गया था लेकिन इस चैथी बैठक में अपना-अपना स्वार्थ त्यागने का मुद्दा ही प्रमुख रहेगा। इस पर खुलकर बहस भी हो जाए तो पर्याप्त होगा।
राजनीतिक स्वार्थ की बानगी मिलने लगी है। गठबंधन की दिल्ली मंे बैठक से पहले ही गोलबंदी शुरू हो गयी। विपक्षी दलों को जोड़ने मंे बिहार के मुख्यमत्रंी नीतीश कुमार ने काफी मेहनत की थी। पहली बैठक भी पटना मंे बुलाई गयी थी। उसी समय से कहा जा रहा था कि गठबंधन का संयोजक अर्थात् नेता नीतीश कुमार को बनाया जाएगा। नीतीश कुमार की यह इच्छा वेंगलुरू से लेकर मुंबई तक की बैठक मंे पूरी नहीं हो पायी। इस बीच नीतीश की नाराजगी की खबरें भी आयी थीं लेकिन नीतीश कुमार ने बयान जारी किया कि वह प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं हैं अर्थात् उनके नाराज होने का कयास गलत है। अब उनकी पार्टी जद(यू) ने अपना सब्र खो दिया और उसे लगा कि दिल्ली मंे गठबंधन की बैठक से पहले यह बात स्पष्ट करना जरूरी है कि हमारे नेता नीतीश कुमार को ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए। जनता दल(यू) के विधायक धीरेन्द्र प्रताप सिंह को इसके लिए आगे किया गया। उन्हांेने बयान जारी किया कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर देना चाहिए। ऐसा क्यों करना चाहिए, इसके लिए भी जद(यू) विधायक बताते हैं। उनका कहना है कि इंडिया गठबंधन मंे सिर्फ नीतीश कुमार ही ऐसे नेता हैं जिनकी छवि स्वच्छ और ईमानदार है।
यह बात गठबंधन के दूसरे दलांे को आसानी से हजम नहीं हो पाएगी लेकिन खुलकर विरोध करने के हालात भी उनके सामने नहीं हैं। आम आदमी पार्टी (आप) के नेता अरविन्द केजरीवाल खुद सारथी बनना चाहते हैं लेकिन आबकारी नीति घोटाले मंे उनके डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया जेल मंे हैं। उनकी जमानत की पुनर्विचार याचिका भी खारिज हो गयी। आबकारी मंत्री भी जेल गये और मुख्यमंत्री केजरीवाल को भी ईडी ने नोटिस दिया है। इस प्रकार आम आदमी पार्टी के नेताओं की ईमानदारी संदिग्ध हो गयी है। इसी प्रकार कांगे्रस के नेता राहुल गांधी के सारथी बनने पर भी जद(यू) ने अप्रत्यक्ष रूप से सवाल उठाया है। राहुल गांधी और उनकी मां श्रीमती सोनिया गांधी नेशनल हेरल्ड मामले मंे जमानत पर हैं। जद(यू) के विधायक ने इसीलिए नीतीश के समर्थन मंे ऐसा तर्क दिया है लेकिन केजरीवाल इतनी जल्दी हार मानने वाले नहीं हैं। वह शिवसेना (उद्धव गुट) को अपने पक्ष मंे लाना चाहते हैं। शिवसेना के नेता उनके आवास पर मेहमान बनकर गये भी थे। संजय राउत ने सामना मंे इसीलिए कांग्रेस की खिंचाई की है।
शिवसेना के मुख पत्र सामना मंे कहा गया है कि इंडिया गठबंधन का कोई सारथी होना आवश्यक है। इसी संदर्भ मंे कांग्रेस की आलोचना की गयी। इससे यह संकेत मिलता है कि इंडिया गठबंधन का सारथी और कोई भी हो लेकिन कांग्रेस नहीं हो सकती। इसका कारण बताया गया कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा मध्य प्रदेश से ही शुरू की थी लेकिन वहीं पर कांग्रेस को सबसे शर्मनाक पराजय मिली है। सामना के सम्पादकीय मंे यह भी कहा गया कि तीनों राज्य- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विपक्षी गठबंधन इंडिया ने नहीं बल्कि कांग्रेस ने गंवाए हैं। यह भी कहा गया है कि कांग्रेस अकेले जीत की मलाई खाना चाहती थी। इस प्रकार समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव को भी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा कर दिया गया। मध्य प्रदेश के चुनाव से पहले उत्तराखण्ड के उपचुनाव मंे अखिलेश यादव की पार्टी की वजह से ही कांग्रेस प्रत्याशी हार गया था। यूपी के कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय ने इसका आरोप भी लगाया था लेकिन सामना मंे इसका कोई जिक्र नहीं किया गया है। शिवसेना का मुख पत्र कहता है कि मध्य प्रदेश मंे अखिलेश यादव को जानबूझ कर दूर रखा गया। अखिलेश यादव भी इस प्रकार का आरोप लगाते हैं लेकिन जब इंडिया के घटक दल आप ने पंजाब जैसे राज्य में अकेले दम पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है, तब कांग्रेस मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ मंे अपने दम पर चुनाव क्यों नहीं लड़ सकती थी। शिवसेना ने इन तीन राज्यों को लेकर कांग्रेस पर जिस तरह हमला किया और कहा कि जहां पर कांग्रेस के खुद के दम पर चुनाव जीतने की संभावना दिखती है, वहां वह किसी को साथ लेने को तैयार नहीं होती, क्या उसी तरह की नसीहत पश्चिम बंगाल मंे ममता बनर्जी को दे सकती है?
बहरहाल, दिल्ली मंे विपक्षी दलों के गठबंधन की चैथी बैठक हो गयी है। इससे पहले बिहार की राजधानी पटना और कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू मंे सफल बैठक हुई थी। इन दोनों बैठकों मंे कांग्रेस ने गठबंधन को मजबूत करने के लिए अपनी प्रादेशिक इकाईयों के विरोध के बावजूद सामयिक कदम उठाया था। केजरीवाल के पक्ष मंे कांग्रेस खड़ी हुई। गठबंधन की तीसरी बैठक मुंबई मंे हुई और वरिष्ठ नेता शरद पवार का दिशा निर्देश यही संकेत करता था कि कांग्रेस को ही गठबंधन का नेतृत्व दिया जाएगा। आज जद(यू), आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी भले ही कांग्रेस पर आरोप मढ़ रही है लेकिन वे भूल जाती हैं कि ये दल एक या दो राज्यों तक ही सीमित हैं जबकि कांग्रेस की अब भी मौजूदगी पूरे देश मंे है। आगामी लोकसभा चुनाव मंे सीटों के बंटवारे को लेकर अगर घटक दलों का स्वार्थ टकराएगा तो उनको अपने लक्ष्य मंे सफलता नहीं मिलेगी। नीतीश और केजरीवाल की तरह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी पीएम पद की दौड़ में शामिल हैं। उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने ममता बनर्जी को इंडिया गुट का चेहरा बनाने की मांग की है लेकिन उनका प्रभाव पश्चिम बंगाल के अलावा अन्य किसी राज्य में नहीं दिखता। नीतीश कुमार भी बिहार तक ही सीमित है जबकि आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल दिल्ली और पंजाब तक ही हैं। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव ने उनको यही आईना दिखाया है। (हिफी)
(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)