लेखक की कलम

संवैधानिक संस्थाओं के प्रति अविश्वास!

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)
क्या विपक्ष अपनी तमाम नाकामी का ठीकरा चुनाव आयोग पर फोड़कर भारत की संवैधानिक संस्थाओं के खिलाफ अविश्वास पैदा करने का अक्षम्य अपराध कर रहा है। भारतीय लोकतंत्र की आत्मा चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर टिकी हुई है और जब भी इस पारदर्शिता पर सवाल उठते हैं, तो जनता का विश्वास डगमगाता है और राजनीति में अविश्वास का माहौल गहराता है। हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोकतंत्र में चुनाव आयोग की भूमिका हमेशा से निर्णायक रही है। भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे लोकतंत्र में यह संस्था केवल चुनाव करवाने का माध्यम नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की विश्वसनीयता और पारदर्शिता का प्रतीक भी है। मगर इसके बावजूद जब भी कोई पार्टी चुनाव हार जाती है, तो वह इसका ठीकरा आयोग पर फोड़ने की कोशिश करती है। हाल के दिनों में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी द्वारा चुनाव आयोग पर वोट चोरी सहित कई आरोप लगाए जा रहे हैं, जिससे आयोग की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न खड़ा हो गया है।
इसी मुद्दे पर मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने राजनीतिक पार्टियों को कड़ी फटकार लगाई है और महत्वपूर्ण बयान देते हुए कहा कि चुनाव आयोग के कंधे पर बंदूक रखकर देश के मतदाताओं को निशाना बनाकर राजनीति की जा रही है। यह टिप्पणी केवल विपक्षी आरोपों का खंडन भर नहीं, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने वाली एक गंभीर चेतावनी भी है। चुनाव आयोग प्रमुख ने राहुल गांधी के वोट चोरी के आरोपों को सिरे से नकारते हुए अपनी निष्पक्षता पर जोर दिया। मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा कि आयोग सभी राजनीतिक दलों को समान मानता है और संविधान के अनुसार कार्य करता है। उन्होंने वोट चोरी जैसे शब्दों को संविधान का अपमान बताया। उनके अनुसार चुनाव आयोग न तो विपक्ष देखता है और न ही सत्ताधारी दल, बल्कि सभी को समान रूप से देखता है। संविधान के अनुसार, 18 साल से ऊपर के हर नागरिक को मतदाता के रूप में पंजीकरण कराना चाहिए। चूंकि सभी राजनीतिक दल चुनाव आयोग में पंजीकृत हैं, इसलिए उनके बीच भेदभाव का कोई सवाल ही नहीं उठता। ज्ञानेश कुमार ने कहा कि कुछ नेता मतदाताओं को गलत जानकारी देकर और भय फैलाकर गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं। आपको सबूत देना होगा। उन्होंने राहुल गांधी को चेतावनी दी कि हलफनामा दें या देश से माफी मांगें? तीसरा कोई रास्ता नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि सात दिन में हलफनामा नहीं दिया तो आरोप निराधार मान लिये जाएंगे। उन्होंने बिहार एसआईआर की कवायद में जल्दबाजी के आरोप पर कहा कि कुछ लोग गुमराह कर रहे हैं कि एसआईआर की कवायद इतनी जल्दी क्यों की जा रही है? आप बताइए कि मतदाता सूची को चुनाव से पहले दुरुस्त करना चाहिए या बाद में? ऐसे में चुनाव आयोग अपना काम ही कर रहा है। जनप्रतिनिधित्व कानून कहता है कि आपको हर चुनाव से पहले मतदाता सूची को दुरुस्त करना होगा। यह चुनाव आयोग की कानूनी जिम्मेदारी है। फिर सवाल उठा कि क्या चुनाव समिति बिहार के सात करोड़ से ज्यादा मतदाताओं तक पहुंच पाएगी? सच्चाई यह है कि यह काम 24 जून को शुरू हुआ था और पूरी प्रक्रिया लगभग 20 जुलाई तक पूरी हो गई थी।
देखा जाए तो भारतीय राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप नई बात नहीं है। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही एक-दूसरे पर लगातार आरोप लगाते रहते हैं परंतु जब मामला चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थान पर आता है, तब इसकी गंभीरता बढ़ जाती है। राहुल गांधी का यह आरोप कि वोट चोरी हुई है, सीधे-सीधे चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को चुनौती देता है। विपक्ष अक्सर यह कहता रहा है कि आयोग सत्तारूढ़ दल के दबाव में काम करता है लेकिन इस बार राहुल गांधी का स्वर और अधिक मुखर है। उनकी लोकप्रियता और सामाजिक माध्यमों पर उपस्थिति के कारण यह आरोप और अधिक गूंजदार हुआ। मुख्य चुनाव आयोग ने जिस प्रकार से तुरंत और कोर प्रतिक्रिया दी है, वह यह दर्शाता है कि संस्था अपनी साख को लेकर बेहद संवेदनशील है। आयोग यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि बिना सबूत कोई भी सार्वजनिक नेता संस्था पर संदेह की छाया डाले।
बिना सबूत के आरोप लोकतांत्रिक संवाद को कमजोर करते हैं। ये जनता को भ्रमित करते हैं और लोकतांत्रिक संस्थानों की साख पर आंच डालते हैं। इसीलिए यह जरूरी है कि राहुल गांधी अपने आरोपों को सबूतों के साथ साबित करें या यदि ऐसा न हो सके तो सार्वजनिक रूप से अपनी बात वापस लें। भारतीय राजनीति में आरोप लगाने की प्रवृत्ति लगातार गहराती जा रही है। चुनावी माहौल में नेता अक्सर भावनात्मक भाषण देते हैं, जिसमें तथ्यों से अधिक शोर और आक्रोश होता है। यह प्रवृत्ति खतरनाक है। लोकतंत्र में स्वस्थ आलोचना का स्वागत है, लेकिन यह आलोचना तथ्यों और सबूतों पर आधारित होनी चाहिए। यदि हम संस्थानों पर बिना प्रमाण लगातार सवाल उठाते रहेंगे, तो धीरे धीरे जनता का विश्वास हर संस्था से उठ जाएगा। यह स्थिति किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए विनाशकारी होगी।
आज का भारत कई मोर्चों पर विश्वास के संकट से जूझ रहा है। न्यायपालिका से लेकर मीडिया और चुनाव आयोग तक, हर संस्था पर सवाल उठाए जा रहे हैं। यह स्थिति लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है। संस्थानों की आलोचना होनी चाहिए, लेकिन उसे प्रमाणों और तथ्यों के आधार पर होना चाहिए। यदि यह संस्कृति विकसित नहीं हुई तो जनता धीरे-धीरे यह मानने लगेगी कि कोई भी संस्था निष्पक्ष नहीं है, और यह धारणा लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर कर देगी। चुनाव आयोग का यह रुख आने वाले समय के लिए एक स्पष्ट संदेश देता है कोई भी राजनीतिक दल या नेता संस्था पर आरोप लगाए तो उसे प्रमाण देने होंगे। इससे राजनीतिक संस्कृति में कुछ सुधार की संभावना है। यदि आयोग इस मामले को कानूनी स्तर तक ले जाता है, तो यह और भी स्पष्ट होगा कि लोकतंत्र में स्वतंत्रता का अर्थ मनमानी नहीं है। समझना होगा कि लोकतंत्र केवल चुनाव कराने का नाम नहीं है, बल्कि यह जनता के विश्वास पर टिका एक जीवंत तंत्र है। भारत का चुनाव आयोग विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक संस्था का प्रहरी है। इसे बार-बार कठघरे में
खड़ा करना लोकतंत्र के लिए शुभ
संकेत नहीं है। राजनीतिक दलों और जनता दोनों को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता और साख पर कोई आंच न आए। (हिफी)

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