अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

भाव और अभाव के विकार प्रकृतिजन्य

अष्टावक्र गीता-35

 

अष्टावक्र कहते हैं कि भाव और अभाव के सभी विकार स्वाभाविक हैं जैसे आग का स्वभाव है जलाना। इसलिए इसको समझ लेने पर व्यक्ति निर्विकार और क्लेश रहित हो जाता है।

अष्टावक्र गीता-35

ग्याहवाँ प्रकरण
(ज्ञानाष्टक)
(स्वयं को चैतन्यमात्र जानना ही कैवल्य-प्राप्ति है)
सूत्र: 1
भावाभावविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी।
निर्विकारो गतक्लेशः सुखेनैवोपशाम्यति।। 1।।
अर्थात: भाव और अभाव का विकार स्वभाव से होता है ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है वह निर्विकार और क्लेश रहित पुरुष सुखपूर्वक ही शान्ति को उपलब्ध होता है।
व्याख्या: विज्ञान की सारी खोज जड़ प्रकृति से सम्बन्धित है। वह पदार्थ को ही सत्ता मानता है। पदार्थ की खोज मंे वह उसके अन्तिम तत्व विद्युत तक पहुँचा एवं उसी को समस्त सृष्टि का कारण मानता है किन्तु अध्यात्म इससे भी पार एक चैतन्यतत्व की बात कहता है कि आरम्भ में वह चैतन्यतत्व ही था। यह विद्युत जड़ है जो उस चैतन्य की ही शक्ति है। यह सम्पूर्ण सृष्टि इस शक्ति का ही फैलाव है, इसी का रूपान्तरण है। इसके सारे क्रियाकलाप इसी जड़ प्रकृति के स्वभाव से हो रहे हैं। वह चैतन्य आत्मा कत्र्ता नहीं है, वह निर्विकार है, शुद्ध है। किन्तु उसकी उपस्थिति आवश्यक है। उसकी उपस्थिति के बिना शिव भी शव हो जाता है, मनुष्य लाश बन जाता है। सृष्टि में जहाँ भी गति है, विकास है, प्रवाह है, निरन्तरता वह उस चैतन्य आत्मा के कारण है। जिस प्रकार चन्द्रमा की उपस्थिति मात्र से ही समुद्र मंे ज्वार-भाटा आता है, चुम्बक लोहे को अपनी उपस्थिति मात्र से अपनी ओर आकर्षित करता है उसी प्रकार चेतन सत्ता के कारण ही प्रकृति के कार्य होते हैं किन्तु वह स्वयं कत्र्ता नहीं है। यह आत्मा नित्य है, चेतन है जबकि प्रकृति अनित्य व जड़ है। आत्मा निर्विकार है एवं प्रकृति विकार जन्य है। अष्टावक्र कहते हैं कि ये भाव और अभाव के समस्त विकार प्रकृतिजन्य हैं जो उसके स्वभाव से अपने आप हो रहे हैं जैसे अग्नि का स्वभाव जलाना है, पानी का ठण्डा करना है, गुरुत्वाकर्षण का खींचना है, विद्युत का प्रकाश व चुम्बकत्व है इस प्रकार सभी पदार्थ अपने गुण-धर्म के अनुसार कार्य करते हैं। बीज से वृक्ष बनने की क्रिया भी प्रकृतिजन्य ही है। इस प्रकार सृष्टि के समस्त कार्यों का संचालन प्रकृतिजन्य ही है। उस चैतन्य की मात्र उपस्थिति से ही सब होता है वह स्वयं करती नहीं है। इस प्रकार जो व्यक्ति आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गया वह अपने को प्रकृतिजन्य समस्त कर्मों से ऊपर चैतन्य आत्मा मानकर निर्विकार और क्लेश रहित होकर सुखपूर्वक ही शान्ति को उपलब्ध होता है। आत्मज्ञान के बाद ही उसे ऐसा निश्चय होता है इससे पूर्व ऐसा मान लेना भी भ्रान्ति है। मानने से भ्रम या अज्ञान दूर नहीं होता, जानने से होता है, सिर्फ बोध से होता है। इसके लिए कोई चेष्टा व श्रम आवश्यक नहीं है।

सूत्र: 2
ईश्वरः सर्वनिर्माता नेहान्य इति निश्चयी।
अन्तर्गलितसर्वाशः शान्तः क्वापि न सज्जते ।। 2।।
अर्थात: सबको बनाने वाले ईश्वर है अन्य कोई नहीं है, ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है वह पुरुष शान्त है। उसकी सब आशाएँ जड़ से नष्ट हो गई हैं। वह कहीं भी आसक्त नहीं होता।
व्याख्या: आसक्ति का कारण संसार नहीं है बल्कि स्वयं की वासना है, तृष्णा है, कामना है, कुछ प्राप्त करने की इच्छा है। स्वयं का यह स्वार्थ ही आसक्ति का कारण है। आसक्ति में दो का होना आवश्यक है। यह शरीर, मकान, स्त्री, पुत्र, सम्बन्धी आदि को हम भिन्न मानते हैं जिससे आसक्ति होती है। यदि एक ही है तो कौन किससे आसक्ति रखे। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि इस सृष्टि में कहीं भिन्नता है ही नहीं। वही एक चैतन्य सत्ता विभिन्न रूपों में प्रकट हुई है अतः यह सम्पूर्ण ही ईश्वर है, सभी उस एक चैतन्य का ही विकास एवं फैलाव है इसलिए सबको बनाने वाला वह ईश्वर ही है, दूसरा कोई नहीं है। किन्तु जिसे आत्मा का अनुभव हो गया वही ऐसा निश्चयपूर्वक जान सकता है। अज्ञानी को भ्रम बना रहता है। अतः ऐसा निश्चय पूर्वक जानने वाला ज्ञानी ही शान्त हो सकता है। जब उसे सम्पूर्ण सृष्टि में एकत्त्व का बोध हो गया तो उसकी सब आशाएँ, अपेक्षाएँ, तृष्णा आदि सब जड़ से नष्ट हो जाती हैं। फिर वह कहीं भी आसक्त नहीं होता। ईशावास्य उपनिषद् भी कहता है कि ‘इस संसार में जो भी है सब ईश्वर का ही है इसलिए त्यागपूर्वक इसका भोगकर।’ जो ईश्वर को जान लेता है कि वही सब है, जो मिला है वह भी उसी का है, जो छूटता है वह भी उसी का है तो त्याग अपने आप हो जाता है, द्वन्द्व मिट जाते हैं, अशान्ति मिट जाती है, आशाएँ मिट जाती हैं, जो मिला है, जो हो रहा है उसमें व्यक्ति सन्तुष्ट हो जाता है फिर आसक्ति का कोई कारण नहीं रहता। ऐसा व्यक्ति ही परमशान्ति को उपलब्ध होता है।

सूत्र: 3
आपदः सम्पदः काले दैवादेवेति निश्चयी।
तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वाञछति न शोचति।। 3।।
अर्थात: विपत्ति और सम्पत्ति दैवयोग से ही समय पर आती हैं, ऐसा निश्चय वाला पुरुष सदा सन्तुष्ट स्वस्थेन्द्रिय हुआ, न कोई कामना करता है, न शोक करता है।
व्याख्या: भारतीय धर्म की यह मान्यता बड़ी अनूठी एवं वैज्ञानिक है कि सब कुछ दैवयोग से समय पर ही होता है, समय से पहले कुछ नहीं होता, ‘माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय।’ गीता में इसलिए कहा गया है ‘कर्म पर तेरा अधिकार है, फल में नहीं’ फल तो ईश्वर के अधीन है, भाग्य में जैसा लिखा है वैसा ही होगा, आदि धारणाएँ भारतीय धर्म का अंग हैं। इससे जीवन में कोई तनाव नहीं है, अशान्ति नहीं है, भौतिक सुख-समृद्धि के अभाव में भी वह प्रसन्नचित्त है, आनन्द्रित है, नाचता-कूदता है। पश्चिम समय से पूर्व ही प्राप्त करना चाहिता है, सब कुछ अपनी इच्छानुसार ही प्राप्त करना चाहता है किन्तु ऐसा होता नहीं। मशीन के साथ यह सम्भव है किन्तु मनुष्य के साथ सम्भव नहीं है। इसलिए सब भौतिक सुविधाओं से सम्पन्न होते हुए भी पश्चिम बेचैन है तनावग्रस्त है, पागलों की संख्या बढ़ती जाती है। आत्मिक शान्ति नष्ट हो रही है। इसका कारण मात्र इतना है कि सृष्टि के चैतन्य के नियमों से अपरिचित है। उसका ध्यान भौतिक नियमों की जानकारी पर ही केन्द्रित हो गया जिससे वह वैज्ञानिक प्रगति तो कर सका किन्तु आत्मिक-ज्ञान से वंचित रह गया जिसका दुष्परिणाम वह भुगत रहा है। -क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button