
अष्टावक्र राजा जनक को बताते हैं कि वस्तुतः जीवन मुक्त योगी के लिए कर्तव्य कर्म कुछ भी नहीं है लेकिन उसे आलसी भी नहीं होना है। उसके सभी कर्म फलाकांक्षा से रहित होना चाहिए
अष्टावक्र गीता-59
कृत्यं किमपि न एव न कापि हृदि रंजना।
यथा जीवनमेवेह जीवन्मुक्तस्य योगिनः।। 13।।
अर्थात: जीवनमुक्त योगी के लिए कर्तव्य कर्म कुछ भी नहीं हैं और न हृदय में कोई अनुराग है। वह संसार में यथा प्राप्त जीवन जीता है।
व्याख्या: इसी क्रम में अष्टावक्र कहते हैं कि जीवन्मुक्त योगी के लिए कर्तव्य कर्म कुछ भी नहीं है। कर्मों का सांसारिक उद्देश्य होता है-धन, सुख, मान-सम्मान, शान्ति, ऐश्वर्य, पद-प्रतिष्ठा आदि की प्राप्ति। वह कर्म करके कुछ प्राप्त करना चाहता है जिससे वह संसार में सुखपूर्वक एवं सम्मान के साथ जी सके। इसलिए फलाकांक्षा उसमें निहित रहती है। धार्मिक व्यक्ति कर्मों द्वारा स्वर्ग, मोक्ष, सद्गति प्राप्त करना चाहता है जिससे वह बुरे कर्मो को छोड़कर अच्छे कर्म करता है, दूसरों की भलाई करता है, सेवा करता है, गरीबों की सहायता करता है, दान देता है, धर्मशाला बनाता है, मन्दिर, गिरजा बनाता है। ये सब कर्म वह धार्मिक दृष्टि से करता है ताकि उसका आगे अच्छा फल मिले। इसमें भी फलाकांक्षा रहती ही है किन्तु जो योगी जीवन्मुक्त हो गया है, जिसने वह सब पा लिया है जिसे पाने के लिए ये सब कर्म किये जाते हैं इसलिए अब उसके लिए कर्तव्य कर्म कुछ भी नहीं हैं, अब कुछ करना शेष नहीं रहा। कर्म का उद्देश्य ही फल-प्राप्ति है अतः फल प्राप्ति हेतु किये जाने वाले समस्त कर्म ज्ञान-प्राप्ति पर छूट जाते हैं।
उसके बाद वे ही कर्म रह जाते हैं जो बिना फलाकांक्षा के स्वाभाविक रूप से होते हैं। ऐसे कर्म कर्तव्य कर्म नहीं होते, खेल रूप से, स्वाभाविक रूप से, लीलावत्, नाटकवत् होते रहते हैं। ऐसे कर्मों के प्रति हृदय में कोई अनुराग भी नहीं होता। ऐसा योगी यथा-प्राप्य से अपना जीवन जीता है। उसमें न विशेष पाने का, न छोड़ने का ही आग्रह होता है। यहाँ कर्तव्य कर्म कुछ भी नहीं है इसका अर्थ यह नहीं है कि ज्ञानी समस्त कर्मों को छोड़कर आलसी हो जायेगा कि अब सब कुछ मिल गया, कर्म क्यों करें। इसका अर्थ है कि कर्म सभी होंगे किन्तु वे स्वाभाविक रूप से, फलाकांक्षा की विक्षिप्तता से रहित होंगे। दूसरा अर्थ यह भी कदापि नहीं है कि समस्त कर्मों का त्यागकर, आलसी होकर जीवन जीने वाला जीवन्मुक्त हो जायेगा। ऐसा करने वाला भी अहंकार से ग्रसित है जिससे वह पाखण्डी ही है, ज्ञानी नहीं। इस भेद को समझना आवश्यक है। इसीलिए अष्टावक्र पन्द्रहवें प्रकरण के तीसरे सूत्र में आगाह करते हैं कि भोग की अभिलाषा करने वालों के लिए यह तत्व-बोध त्यक्त है। जिनमें फलाकांक्षा है ये सब भोग के अभिलाषाी हैं। उनको दिया गया यह तत्व-बोध अधिकारी-मुमुक्षु को ही देने का है। यह ज्ञान ऐसी बाजारू वस्तु नहीं है कि एनासिन की भाँति हर पान वाले की दूकान पर मिल जाय। ऐसा ज्ञान मंदिरों, मठों, आश्रमों, गिरजा, मस्जिद आदि में भी प्राप्त नहीं होता कि वहाँ माथा टेका, फूल चढ़ाये, नारियल चढ़ा दिया और समझते हैं हम धार्मिक हो गये, स्वर्ग की चाबी हमें मिल गई, मुक्त हो गये, सिद्धशिला पर बैठ गये, अब करने को कुछ नहीं रहा। जीसस ने सूली के समय कहा, तेरी इच्छा पूरी हो यहाँ भी उनका ‘मैं’ और ‘तू’ का द्वैतभाव बना ही रहा। अद्वैत की अनुभूति उन्हें न हो सकी इसीलिए उन्होंने ईश्वर और आत्मा का पिता-पुत्र का सम्बन्ध माना। ब्रह्म कुमारी वो भी ऐसा ही मानते हैं, महावीर को तो आत्मा में भी भेद ज्ञात हुआ इसलिए वे अनेक आत्माएँ मानते रहे। यह सब ज्ञान की अपूर्ण अवस्था है। मुस्लिम धर्म की पूर्णतः द्वैतवासी है। अद्वैतवादियों में भी अष्टावक्र शिरोमणि है जिसकी कोई तुलना नहीं है इसलिए यही ज्ञान अध्यात्म-जगत का परम ज्ञान है। कई मूढ़ हैं जो समझते हैं कि चाय छोड़ दो, धूम्रपान छोड़ दो, काँटो पर लेट जाओ, नग्न हो जाओ, राख लपेट लो तो मोक्ष हो जायेगा। किन्तु पीने और छोड़ने का मोक्ष से कोई सम्बन्ध नहीं है। मोक्ष का सम्बन्ध पदार्थों के त्याग से नहीं वृत्तियों के शान्त होने से है। छोड़ने की बातें करने वाले विकृत मस्तिष्क वाले ही हैं। मन की अच्छी-बुरी सभी वृत्तियों का शान्त हो जाना ही मोक्ष है। सभी भेद समाप्त होकर उस एक परम-तत्व में स्थित हो जाना ही मुक्ति है।
क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व तद्धयानं क्व मुक्तता।
सर्वसंकल्पसीमायां विश्रान्तस्य महात्मनः।। 14।।
अर्थात: सम्पूर्ण संकल्पों के अन्त होने पर विश्रान्त हुए महात्मा के लिए कहाँ मोह और कहाँ संसार है, कहाँ वह ध्यान है, कहाँ मुक्ति है।
व्याख्या: भारतीय धर्म में महात्मा, सन्त, ज्ञानी, गुरु आदि शब्द उच्च बोध के सूचक हैं। महात्मा वह है जिसके चित्त की समस्त वृत्तियाँ शान्त हो गई हैं एवं सभी प्रकार के संकल्पों का जिसके चित्त से अन्त हो गया है तथा केवल उस चैतन्य आत्मा में विश्राम कर स्थित है। जिसके संकल्प शेष हैं, कुछ करने की वासना है, जिसमें स्वर्ग और मोक्ष की भी कामना है, जो अच्छे-बुरे में भेद करता है, जिसे जीव, ब्रह्म और सृष्टि में भिन्नता दिखाई देती है वह न ज्ञानी है, न महात्मा। राख लपेटने से, नग्न हो जाने से, भगवा पहन लेने से, चिमटा लेकर बम-बम बोलने से, कोई महात्मा नहीं हो जाता। जो संकल्पों से रहित होकर आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गया है वही महात्मा है। उसके लिए मोह, संसार, ध्यान एवं मुक्ति का भी कोई स्थान नहीं है। ये सब व्यर्थ हो गये हैं। ये सब मन की वृत्तियाँ ही हैं। जब मन नहीं रहा तो इनका अस्तित्व भी नहीं रहता।
येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोतु वै।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यन्ति।। 15।।
अर्थात: जिसने जगत् को देखा है वह भला उसे इन्कार भी करे, लेकिन वासनारहित पुरुष को क्या करना है। वह देखता हुआ भी नहीं देखता है।
व्याख्या: जगत् को स्वीकार करने वाला, उसी को सत्य समझने वाला तो वासनाग्रस्त है ही क्योंकि जिस प्रकार की उसकी रूचि संसार में है, जिस दृष्टि से वह संसार को देखता है वह सब वासना ही के कारण देखता है। कभी-कभी शास्त्रों के वचनों को सुनकर उसकी मोक्ष प्राप्ति की वासना जाग उठती है जिससे वह भी ज्ञानियों की भाँति कहने लगता है संसार माया है, भ्रम है, असत्य है, संसार है ही नहीं, यह रस्सी में साँप की भ्रान्ति के समान है। किन्तु उसने ऐसा जाना नहीं जैसा ज्ञानी ने जाना है। इसलिए उसका संसार को इन्कार करना भी झूठ है, पाखण्ड है, वासना मात्र ही है क्योंकि मोक्ष की वासना पूर्ति हेतु वह इसे इन्कार कर रहा है, संसार से भाग रहा है, हिमालय जा रहा है। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि ज्ञानी
इससे भिन्न स्थिति वाला है क्योंकि वह वासना रहित हो चुका है वह इस संसार को देखता हुआ भी नहीं देखता है क्योंकि उसे वह निर्मूल्य ज्ञात नहीं होने लगा है, वह नित्य आत्मा को ही सर्वत्र देखता है, संसार को नहीं।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)