अध्यात्म

पितरों की तृप्ति से देवगण भी होते हैं खुश

(प्रेेमशंकर अवस्थी-हिफी फीचर)
पितृपक्ष मेें हिन्दू लोग मन, कर्म, वाणी से संयम का जीवन जीते है, पितरों को स्मरण करके जल चढ़ते है निर्धनों एवं ब्रम्हाणों को दान देते है पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता पिता का श्राद्ध किया जाता है। परन्तु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है वैसे भी इसका शास्त्रीय समय निश्चित है।
भारतीय सनातन पद्धतियाँ कृतज्ञता ज्ञापक हैं इसलिये भारतीय मानस देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, वनस्पति आदि के प्रति कृतज्ञता का बोध रखता है। किसी के द्वारा किये गए उपकार, सहयोग आदि को न भूलना एवं उसको स्मरण रखते हुये उसके प्रति आभार प्रकट करना भारतीय जीवन-शैली है। इसी भाव का प्रत्यक्ष उदाहरण है- श्राद्ध पक्ष।
पितरों की प्रसन्नता एवं उसकी कृपा प्राप्ति हेतु प्रतिदिन सन्ध्या-वन्दन के पश्चात् पितृ-तर्पण का विधान है। जिससे समस्त पापों से मुक्ति मिलती है एवं सुख-शान्ति की प्रप्ति होती है। इस कलयुग मंे पितरों कि प्रसन्नता से देवता भी प्रसन्न होते है।
भारतीय मनीषियों ने अपनी तत्वानुवेषी मेंधा एवं सूक्ष्मदर्शी वैज्ञानिक शोधों से मानव पर तीन प्रकार के ऋण का निर्धारण किया है। जो कि देव ऋण, ऋषि ऋण एवं पितृ ऋण के नाम से अभिहित हैं।
देव ऋण से मुक्ति के लिये शास्त्रसम्मत पूजन एवं ज्ञानार्जन का निर्देश है। जबकि ऋषि ऋण से अवमुक्त होने के लिये शिक्षार्जन, अत्मा बोध हेतु उपाय आदि का शास्त्र सम्मत विधान हैं। इसी श्रंृखला में पितृ ऋण से मुक्त होने के लिये गृहस्थ जीवन में सन्तुलित आचरण, सन्तानोत्पत्ति, सन्तान को सुयोग्य नागरिक बनाना प्रमुख है। इसलिये ऋषियों ने ‘‘धन्यो गृहस्थाश्रमः’’ की उद्घोषणा की। मुनियों ने बृह्यचर्य आश्रम, बानप्रस्थ आश्रम, सन्यास आश्रम से गृहस्थ आश्रम धन्य घोषित किया। यह भी भारतीय कृतज्ञता का दर्शन है क्योंकि गृहस्त अनवरत श्रम से उपार्जन करके अपना व अपने परिवार का पालन-पोषण करता है। अतिथि, साधु, अभ्यागत आदि की
भी सेवा करता है। समाज सेवा हेतु भी योगदान करता है इसलिये शास्त्रकारों ने गृहस्थ जीवन की प्रशंसा की है।
श्राद्ध श्रद्धा का एक महापर्व है जो कि पितरांे के निमित्त किया जाने वाला एक महा कर्तव्य है। पूर्वजों की अपूर्व कृपा से ही आज हम सब जीवित है। यह पूर्वजों का स्मृति समारोह है कर्तव्य बोध का प्रेरक है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि ‘‘अपनी संस्कृति सभ्यता एवं परम्परा को भूलना नहीं चाहिये। आत्म गौरव एवं स्व कर्तव्य निष्ठा से ही श्रेष्ठ समाज का निर्माण होता है।
पितरों के निमित किये जाने वाले कर्तव्य बोध को भी श्रीमद्भगवत गीता (अध्याय-3,12) याद दिलाती है ताकि इस परम्परा को आने वाली पीढ़ियां अनुशरण कर भारतीय संस्कृति के प्रति अपनी अस्था बनाये रखे।
पद्यदाचरति श्रंेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
सयत्प्रणामं कुरूते लोकस्तदनुवर्तते।।
कहने का तात्पर्य है कि श्रेष्ठ पुरूष जो आचरण करता है अन्य पुरूष भी वैसा आचरण करते हैं जो कुछ प्रमाण कर देता है समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है।
भारतीय हिन्दू परम्परा में माता-पिता (पितरों) की सेवा को सबसे बडी पूजा माना गया है। इसीलिये हिन्दू धर्मशास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिये पुत्र की अनिवार्यता मानी गई है। जन्मदाता माता पिता को मृत्योपरान्त लोग भूल न जाये। इसी लिये श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है।
आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से लेकर अमावस्य तक ब्रह्यण्ड की ऊर्जा तथा उस ऊर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथ पुराणों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बडा सुन्दर वैज्ञानिक विवेचन मिलता है मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी सपिन्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणो के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोडने पर धारण करती है। प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक अवस्था प्रेत है क्योंकि आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है। तब भी उसके अन्दर मोह, माया, भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिन्डन के बाद वह प्रेत, पितरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृपक्ष में जो तर्पण किया जात है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है पुत्र या उसके नाम से उनका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिन्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन.ष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख्य होने लगाता है। 15 दिन तक अपना अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर बृह्यंडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते है इसलिये इसको पितृपक्ष कहते है और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पितरों को मोक्ष प्राप्त होता है।
पितृपक्ष मेें हिन्दू लोग मन, कर्म, वाणी से संयम का जीवन जीते है, पितरों को स्मरण करके जल चढ़ते है निर्धनों एवं ब्रम्हाणों को दान देते है पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता पिता का श्राद्ध किया जाता है। परन्तु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है वैसे भी इसका शास्तीय समय निश्चित है।, परन्तु ‘‘गया सर्वकालेषु पिंड दधाद्विपक्षणम्’’ कहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गयी है। पुराणों के व्याख्यान में वैसे तो श्राद्ध कर्म या तर्पण करने के भारत में कई स्थान है।
लेकिन बिहार में पवित्र फल्गु नदी के तट पर बसे प्राचीन गया शहर की देश ही नही बल्कि विदेशों में भी पितृपक्ष और पिंडदान को लेकर अलग पहचान है पुराणों के अनुसार पितरों के खास आश्विन मास के कृष्णपक्ष या पितृपक्ष ‘‘मोक्षधाम गयाजी’’ आकर पिंडदान एवं तर्पण करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है और
माता पिता व सात पीढ़ियों का उद्धार होता है। क्रमशः (हिफी)

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