अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

अद्वैत का अनुभव ज्ञान की अंतिम अनुभूति

अष्टावक्र गीता-43

 

राजा जनक कहते हैं कि अद्वैत का अनुभव ज्ञान की अंतिम अनुभूति है। आत्मा को परमात्मा से जो भिन्न समझते हैं, वे द्वैतवादी धर्म है और जो आत्मा-आत्मा में भिन्नता देखते हैं, वे जीव की ही व्याख्या कर रहे होते हैं।

अष्टावक्र गीता-43

सूत्र: 3
विज्ञाते साक्षिपुरुषे परमात्मनि चेश्वरे।
नैरेश्वे बन्धमोक्षे च न चिन्ता मुक्तये मम।। 3।।
अर्थात: साक्षी पुरुष, परमात्मा, ईश्वर, आशा मुक्ति तथा बन्ध-मुक्ति के जान लेने पर मुझे मुक्ति के लिए चिन्ता नहीं है।
व्याख्या: समस्त सृष्टि का कारण एवं आधार एक ही चेतन स़त्ता है जिसे भारतीय अध्यात्म ने ‘ब्रह्म’ कहा है। इस ब्रह्म का स्वरूप है ‘सत्यं ज्ञानमनंत ब्रह्म’ यह ब्रह्म सत्य है, शाश्वत है, ज्ञान-स्वरूप है एवं अनन्त स्वरूप है। सृष्टि के समस्त स्वरूप इसी के स्वरूप हैं। ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं है। समस्त प्राणी-जगत के भीतर वही चेतनतत्व ब्रह्म विद्यमान है जिसे आत्मा कहा जाता है। देह, इन्द्रियों आदि के संयोग वाला यह आत्मा ही जीव है। इस जीव और ब्रह्म का अभेद सम्बन्ध है जिसे गुरू आत्मज्ञानी शिष्य को उपदेशित करता है ‘आत्मज्ञानी शिष्य को उपदेशित करता है ‘अयमात्मा ब्रह्म’ (यह आत्मा ब्रह्म है), तत्त्वमसि (वह तू ही है़) वह-अर्थात् ईश्वर या ब्रह्म, तू अर्थात जीव या आत्मा, असि-है। ये महावाक्य हैं जो जीव और ब्रह्म की अभेदता का बोध कराते हंैं। शिष्य को इनका बोध हो जाने पर वह कहता है, ‘अहं ब्रह्मस्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) ब्रह्म सर्वज्ञ है एवं जीव एकदेशीय एवं अल्पज्ञ है। इस अल्पज्ञ स्वरूप में जो चेतन-तत्व आत्मा है वही ईश्वर है। दोनों का अभेद सम्बन्ध केवल चेतन में होता है। इस अभेदता को जिसने जान लिया वही मुक्त है। उसे मुक्ति की न साधना करनी पड़ती है, न उसकी चिन्ता ही।

इसलिए जनक कहते हैं कि शरीर-स्थित देह, इन्द्रियों आदि का साक्षी पुरुष यह जीव ही आत्मा है। जिसने इस साक्षी पुरुष आत्मा को जान लिया उसने इस परमात्मा (परम$आत्मा) को जान लिया, उसने ईश्वर को जान लिया। आत्मा अल्पज्ञ है एवं परमात्मा सर्वज्ञ। उसी को परम$आत्मा (आत्माओं में श्रेष्ठ) कहा है। ऐश्वर्य के कारण उसे ईश्वर कहा जाता है। अतः इस साक्षी पुरुष आत्मा एवं परमात्मा और ईश्वर मंे अभेद सम्बन्ध है। जिसने इस अभेद सम्बन्ध को जान लिया तो उसे आशाओं से मुक्ति एवं बन्धनों से मुक्ति की भी चिन्ता नहीं रहती। जनक को ऐसा अभेद सम्बन्ध ज्ञान हो जाने से ही वे कहते हैं कि इस साक्षी पुरुष परमात्मा, ईश्वर के अभेद सम्बन्ध को जान लेने से मैं आशा रहित एवं बन्ध मुक्त हो गया हूँ। इसलिए अब मुझे मुक्ति की भी चिन्ता नहीं है। मुक्त तो मैं था ही। बन्धन का जो भ्रम था वह मिट गया है जिससे मैं शान्त होकर स्थित हूँ। इस सूत्र का सार है आत्मा एवं परमात्मा के अभेद का ज्ञान। यही ज्ञान की परम स्थिति है। जो दोनों में भेद देखते हैं, परमात्मा को आत्मा से भिन्न समझते हैं वे द्वैतवादी धर्म है। जो आत्मा, आत्मा में भिन्नता देखते हैं वे आत्मा के नाम से जीव ही की व्याख्या कर रहे हैं। उन्हें चेतन-आत्मा का ज्ञान नहीं हुआ है। जनक कहते हैं यह अद्वैत का अनुभव ही ज्ञान की अन्तिम अनुभूति है।

सूत्र: 4
अन्तर्विकल्पशून्यस्य बहिः स्वच्छन्दचारिणः।
भ्रान्तस्येव दशास्तास्तास्तादृशा एव जानते।। 4।।
अर्थात: जो भीतर विकल्प से शून्य है और बाहर भ्रान्त हुए पुरुष की भाँति स्वच्छन्दचारी है। ऐसे पुरुष की भिन्न-भिन्न दशाओं को वैसी ही दशा वाले पुरुष जानते हैं।
व्याख्या: आत्मज्ञानी पुरुष स्वच्छन्दचारी होता है। उसे सद् असद्, मिथ्या-भ्रान्ति, नित्य-अनित्य, क्षणिक- शाश्वत् आदि का ज्ञान हो जाता है इसलिए वह सर्व बन्धनों से मुक्त होकर स्वच्छन्द आचरण करता है। वह किसी के प्रतिबन्ध को नहीं मानता है बल्कि स्व-विवेक में जीता है, स्वाभाविक होकर जीता है। उसके आचरण सदा निर्दोष होते हैं, वह बालवत् हो जाता है। करने व न करने का आग्रह ही छूट जाता है। उसकी समस्त ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं, निर्ग्रन्थ हो जाता है। वह समस्त कामनाओं, वासनाओं, इच्छाओं के पार हो जाता है। उसका अन्तःकरण संकल्प-विकल्प से शून्य हो जाता है। वह विचार शून्य हो जाता है, निर्णय एवं चुनाव रहित हो जाता है। केवल मात्र साक्षी रह जाता है, दृष्टा मात्र। किन्तु बाहर से अन्य व्यक्तियों की ही भाँति दिखाई देता है तथा वैसा ही आचरण भी करता है। उसका खाना, पीना, कपड़े पहनना, उठना, बैठना, बात करना आदि समस्त क्रियाएँ सामान्य व्यक्ति की ही भाँति चलती रहती हैं। वह सामाजिक एवं शासन के नियमों का भी पालन करता है, सड़क पर चलते हुए सड़क के नियमों का भी पालन करता है, व्यावहारिकता, शिष्टाचार भी निभाता है, वह समाज में नग्न होकर नहीं घूमता, अभद्र व्यवहार नहीं करता, हँसी मजाक भी कर लेता है अर्थात् उसका बाहरी व्यवहार सामान्य व्यक्ति की ही भाँति चलता रहता है। उसे अपने ज्ञान का अहंकार भी नहीं होता। वह बाहरी अनुशासन की अपेक्षा स्वानुशासन से जीता है किन्तु उसके भीतर बड़ा अन्तर हो जाता है। इस भीतर को जानने का कोई उपाय नहीं है। इसे वही जान सकता है जो इस स्थिति तक पहुँचा है। अज्ञानी उसे नहीं जान पाते। वे उसे सामान्यजन ही समझते हैं। सामान्यजन मनुष्य की परीक्षा उसके शरीर की बनावट, उसके कपड़े पहनने के ढंग एवं उसके आचरण से ही करते हैं। ये तीनों मनुष्य को जानने की कसौटी नहीं हो सकते। बहुरूपिये एवं पाखण्डी भी ऐसे अनेकों मुखौटे लगाकर भिन्न-भिन्न आचरण करा सकते हैं। है कुछ और किन्तु कुछ और ही दिखाई देने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के नाटक करते हैं। भीतर जहर भरा है, बाहर अमृत मय वाणी बोलते हैं, भीतर कुटिलता है, बाहर सहिष्णुता का उपदेश देते हैं। भीतर हिंसा भरी है बाहर अहिंसा की तख्ती लगाये घूमते हैं, भीतर से पूरे चार्वाकी हैं, बाहर अद्वैत की बातें करते हैं। इसलिए बाह्य आचरण मनुष्य की परख करता है, ज्ञानी नहीं। अष्टावक्र ने इसीलिए बाह्य आरचण से मनुष्य की परीक्षा करने वाले को चर्मकार की संज्ञा दी जो केवल चमड़ी के पारखी हैं। ज्ञानी ज्ञान को देखता है, बाह्य आचरण को नहीं। इसलिए जनक कहते हैं कि ज्ञानी की आन्तरिक स्थिति को दूसरा ज्ञानी ही जान सकता है जिसे वैसा ही अनुभव हुआ है। अज्ञानी उसको कभी नहीं जान सकता। ज्ञानी बाहर भ्रान्त पुरुष की भाँति रहता है जैसे उसे कुछ पता नहीं है। वह स्वच्छन्दचारी होता है, वह भिन्न-भिन्न दशाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार का व्यवहार करने वाला होता है इसलिए इन बाह्य आचरणों से उसे जानना कठिन है। कृष्ण को जानना इसलिए कठिन हो गया कि वे माखन भी चुराते हैं, रास भी रचाते हैं व गीता का उपदेश भी देते हैं। ये सब बाह्य आचरण हैं जिनको पकड़कर व्यक्ति का निर्णय करने वाला हमेशा चूकेगा। आचरण बदलने से ज्ञान नहीं होता, आचरण ज्ञान की छाया है। भीतर शुद्ध होने पर आचरण अपने आप ठीक हो जायेगा, करना नहीं पड़ेगा। आचरण को ठीक करना सामाजिक उपयोगिता है, सामाजिक आवश्यकता है किन्तु इससे आत्मज्ञान नहीं होता।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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