अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

बंधन और मुक्ति की व्याख्या

अष्टावक्र गीता-28

 

अष्टावक्र को विश्वास हो गया कि राजा जनक को तत्व बोध हो गया है। इसकी उन्होंने परीक्षा भी ली। तत्पश्चात बंधन और मुक्ति का उपदेश दिया।

अष्टावक्र गीता-28

सूत्र: 4
नात्मा भावेषु नो भावस्तत्रानन्ते निरंजने।
इत्यसक्तोऽस्पृहः शान्त एतदेवाहमास्थितः।। 4।।
अर्थात: आत्मा विषयों में नहीं है और विषय उस अनन्त निरंजन (निर्दोष) आत्मा में नहीं है। इस प्रकार मैं अनासक्त हूँ, स्पृहामुक्त हूँ, और इसी अवस्था में स्थित हूँ।
व्याख्या: राजा जनक कहते हैं कि शरीर के साथ इन्द्रियाँ और मन है। यह मन सदैव विषयों की ओर आकर्षित होता है तथा इन्द्रियों की सहायता से उन्हें भोगकर तृप्त होता है। शरीर नहीं रहने पर इन्द्रियाँ भी नहीं रहतीं किन्तु मन सूक्ष्म शरीर के साथ रहने से उसकी विषय-भोगों के प्रति रुचि बनी रहती है। इसी वासना के कारण वह पुनः नया शरीर ग्रहण करता है। इसलिए संसार के सभी विषयों का सम्बन्ध केवल शरीर और मन तक ही है। ये ही कत्र्ता और भोक्ता हैं, ये ही विषयों का भोग करते हैं। मैं इनसे परे आत्मस्वरूप हूँ जो न कत्र्ता है, न भोक्ता। अतः इस आत्मा का विषयों से कोई समबन्ध नहीं है। न आत्मा विषयों में है और न ये विषय उस अनन्त, निर्दोष आत्मा में हैं, इसलिए मैं आत्मा होने से सदा इन विषयों के प्रति अनासक्त हूँ, विषयों के प्रति आसक्ति केवल मन व शरीर की है, मेरी नहीं। इसलिए मैं स्पृहामुक्त हूँ, मेरी विषयों में कोई इच्छा नहीं है। ऐसी अवस्था में मैं स्थित हूँ।

सूत्र: 5
अहो चिन्मात्रमेवाहमिन्द्रजालोपमं जगत्।
अतो मम कथं कुत्र हेयोपादेय कल्पना ।। 5।।
अर्थात: अहो! मैं चैतन्यमात्र हूँ। संसार इन्द्रजाल की भाँति है। तब मेरी हेय और उपादेय की कल्पना किसमें हो।
व्याख्या: जनक कहते हैं कि मैं आत्म स्वरूप हूँ तथा आत्मा के लिए यह समस्त संसार इन्द्रजाल की भाँति, माया एवं भ्रम दिखाई देता है। यह मायाजाल मन और इन्द्रिय को ही प्रभावित कर सकता है जिसमें अज्ञान है। आत्मा ज्ञान स्वरूप है वह इससे प्रभावित नहीं होती। वह इस सारे खेल को दृष्टा होकर देखती है। जब तक अज्ञान था तब तक मैं इस इन्द्रजाल को सत्य समझता था जिससे हेय और उपादेय, अच्छा-बुरा, लाभ-हानि, शुभ-अशुभ आदि की अनेक कल्पनाएँ करता था। अब मुझे आत्मबोध हो चुका है जिससे अब अपने को इन सबसे परे आत्मस्वरूप मानता हूँ इसलिए यह संसार मुझे इन्द्रजाल से अधिक महत्व का ज्ञात नहीं हो रहा है, अब मैं इससे अप्रभावित हूँ, इसमें हेय की तथा उपादेय की कल्पना भी नहीं कर सकता। अब सब कल्पनाएँ ही व्यर्थ हो चुकी हैं। जब सब कुछ पा लिया, पाने को कुछ शेष नहीं बचा फिर कल्पना किसकी की जाय। इस संसार में न कुछ पाने को है, न छोड़ने को। भोग व त्याग दोनों कल्पनाएँ हैं जो कुछ पाने के लिए की जाती हैं। हेय और उपादेय, अच्छा-बुरा, शुभ-अशुभ आदि की सारी कल्पनाओं के पीछे प्राप्ति की वासना ही हैं। जब वासना ही नहीं रही तो ये भेद अपने आप छूट गये। मैं स्वभाव से जो हो रहा है उसमें सन्तुष्ट हूँ, कोई चुनाव नहीं है। मैं दोनों का साक्षी होकर चैतन्य में स्थित हूँ।
आठवाँ प्रकरण
(आत्मा अनन्त महासागर के समान है व जगत् उसकी लहर)

सूत्र: 1
तदा बन्धो यदा चित्तं किंचिद्वाञछति शोचति।
किञच्न्मुञच्ति गृह्णाति किञिच्दृहृष्यति कुप्यति।। 1।।
अर्थात: इस प्रकार से अष्टावक्र मुक्ति और बन्ध की व्याख्या करते हुए कहते हैं-‘जब चित्त कुछ चाहता है, कुछ सोचता है, कुछ त्याग करता है, कुछ ग्रहण करता है, जब दुःखी और सुखी होता है-तब बन्ध है।’
व्याख्या: अष्टावक्र के उपदेश से राजा जनक को तत्व-बोध हो गया। अष्टावक्र ने विभिन्न प्रश्नों द्वारा उनकी परीक्षा की एवं जनक उसमें भी खरे उतरे। अष्टावक्र इनसे सन्तुष्ट हो गये किन्तु अन्तिम रूप से बन्ध और मुक्ति की संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकरण के इन चार सूत्रों में सार रूप में देते हुए कहते हैं-हे जनक! यह बन्ध कोई भौतिक नहीं है। संसार में कोइ्र बाँधा जा सकता है किन्तु उसकी चेतना, उसके मन, विचार आदि को नहीं बाँधा जा सकता। मनुष्य स्वयं देहाभिमान के कारण, वासनाओं और इच्छाओं के कारण अपने आप बँधता है और फिर दुःखी होता है। उसके दुःख का कारण कोई दूसरा नहीं, वह स्वयं ही है। आत्मा से भिन्न यह चित्त है। यह चित्त ही समस्त विचारों, वासनाओं, इच्छाओं का केन्द्र है। इसी से संसार भासता है। इसी के कारण सुख-दुःख का अनुभव होता है। यह चित्त विषयों की इच्छा वाला होकर उसे भोगने हेतु उसकी प्राप्ति की इच्छा करता है। इसी इच्छा से संसार की शुरुआत हो जाती है। इसी इच्छा पूर्ति हेतु वह संघर्ष करता है, दूसरों को कष्ट पहुँचाता है, शोषण करता है, अपनी तिजोरी भरता है। हिंसा व हत्या करता है, अनेक प्रकार के अच्छे व बुरे कार्य करता है। ज्यों-ज्यों उसे प्राप्त होता जाता है, लोभ बढ़ता जाता है, तृष्णा बढ़ती जाती है, मोह बढ़ता जाता है, एक पूरा जाल तैयार हो जाता है। जब उसे प्राप्त होता है तब हर्ष होता है, प्राप्त नहीं होने पर दुःख होता है। इस प्रकार वह सुख-दुःख का अनुभव करता है। प्राप्त नहीं होने पर अथवा बाधा आने पर क्रोधित भी होता है। इस प्रकार जब चि़त्त ही बन्धन है और वासना का क्षय ही मोक्ष है। इसलिए हे राजन्! तू वासना का त्याग करके मोक्ष की इच्छा का भी त्याग कर दे, तब तू सुखी होगा। बाहर कर्म-जगत् है जो छोटा है किन्तु इसके पीछे एक विशाल विचार-जगत् है एवम् इसके पीछे ही सबसे विशाल वासनाओं का जगत् है। वासनाओं से ही विचार उत्पन्न होते हैं एवं विचारों से ही कर्म होते हैं। इसलिए कर्मों को रोक देने से विचार नष्ट नहीं हो सकते एवं विचारों को रोक देने से वासनाएँ नष्ट नहीं होतीं। वासनाएँ यदि मूल हैं तो विचार उसके तने व शाखाएँ हैं एवं कर्म उसके पत्ते हैं। इन सबकी खुराक तो वासना रूपी जड़ों से मिल रही है जिससे पत्ते मात्र काट देने से कोई परिणाम नहीं होता। जब तक वासनाएँ जीवित हैं तब तक कर्माें पर रोक लगा देने से कोई लाभ नहीं होता बल्कि वासना क्षय से यह विचार और कर्म-जगत् अपने आप नष्ट हो जाता है। चित्त में होती है वासना, उसके कारण मन सक्रिय होता है जिससे विचार उत्पन्न होते हैं। इन विचारों को बुद्धि नियन्त्रित करती है व थोड़े से विचारों को ही क्रियान्वित करने के लिए वह शरीर को आदेश देती है तब शरीर कर्म में उतरता है। अतः कर्मों का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। वासना के कारण ही मनुष्य सोचता है, चिन्तन करता है, त्याग करता है, ग्रहण करता है, एवं सुखी-दुःखी होता है। ये सब लक्षण हैं जो वासना के कारण पैदा होते हैं जिनसे यह पहचाना जाता है कि अभी वासना शेष है। मन का सक्रिय होना ही बन्ध नहीं है बल्कि वासना की उपस्थिति ही बन्ध है। वे काम, क्रोध, लोभ आदि उसके फल हैं। वासना से ही चित्त में तरंगे उठती हैं ये तरंगें ही मन है। तरंगों को सीधा रोका नहीं जा सकता केवल वासना रूपी वायु के रुकने से ही तरंगें शान्त होंगी। इसी प्रकार वासना क्षय से ही मन का क्षय होगा अन्यथा नहीं। अतः न शरीर बन्धन है, न उसके कर्म, न मन बन्धन है, न उसके विचार बल्कि यह वासना ही बन्धन है। यह वासना चाहे भोग की हो या त्याग की, संसार की हो या मोक्ष की, ग्रहण की हो या त्याग की कोई फर्क नहीं पड़ता। दोनों ही बन्ध हैं। कर्म में उलझने वाला दार्शनिक हो जायेगा किन्तु जो साक्षी को उपलब्ध हो गया वही धार्मिक है वही मुक्त है। विचारों का जगत् इन तरंगों का जगत् है। दार्शनिक इसी का हिसाब लगाता है। उसे शान्त समुद्र का कुछ पता नहीं होता। राजनीतिज्ञ कर्म में ही उलझा रहता है उसे विचार-जगत् का भी पता नहीं रहता। कर्म सामान्य जन के भी समझ में आ जाते हैं इसलिए कर्मों की व्याख्या अधिक हुई, विचार के तल पर कुछ ही लोग पहुँच पाते हैं अतः इन्हें कम ही समझा गया एवं साक्षीतल पर तो बिरले ही पहुँचे हैं इसलिए जो सबसे मूल्यवान है वह अधिकांश की पहुँच के बाहर हो गया। यही कारण है कि अज्ञान सर्वाधिक है एवं यही संसार है, यही बन्धन है। ज्ञान अर्थात् मुक्ति बहुत कम को उपलब्ध है। संसार में जितने भी धर्म हैं वे विचारों के जगत् से ऊपर के नहीं हैं इसलिए भिन्नताएँ प्रतीत होती हैं। उपलब्धि का कोई धर्म है ही नहीं। मूढ़ तो कर्म में ही उलझकर रह गये। वे आचरण, सदाचार, कर्मकाण्ड से ऊपर की स्थिति का अनुभव ही नहीं कर पाये। अष्टावक्र इन सबको बन्धन कहते हैं।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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