व्यवस्था पर सवाल उठाता महिला जज का पत्र!

महिला न्यायिक अधिकारी ने अपने दो पन्नों के पत्र में, प्रधान न्यायाधीश से बाराबंकी में अपनी पदस्थापना के दौरान उनके (महिला न्यायिक अधिकारी) साथ हुई बदसलूकी और उत्पीड़न के बाद अपना जीवन समाप्त करने की अनुमति मांगी है।
इन दिनों एक महिला न्यायिक अधिकारी द्वारा देश में महिलाओं के यौन शोषण को लेकर उठाया गया मामला महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा के तमाम दावों पर सवालिया निशान लगा रहा है। आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में तैनात एक महिला न्यायिक अधिकारी ने प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ को पत्र लिखकर एक जिला जज पर ही यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है और उनसे अपना जीवन ‘सम्मानजनक तरीके से’ समाप्त अर्थात् आत्महत्या की अनुमति मांगी है। इसके बाद प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने जांच की स्थिति पर इलाहाबाद हाईकोर्ट प्रशासन से रिपोर्ट मांगी।
महिला न्यायिक अधिकारी ने अपने दो पन्नों के पत्र में, प्रधान न्यायाधीश से बाराबंकी में अपनी पदस्थापना के दौरान उनके (महिला न्यायिक अधिकारी) साथ हुई बदसलूकी और उत्पीड़न के बाद मैने अपना जीवन समाप्त करने के लिए अनुमति मांगी है। सोशल मीडिया पर यह पत्र छाया है, जिसमें लिखा है, मुझे जीने की तमन्ना नहीं है। मैं पिछले डेढ़ साल से जिंदा लाश की तरह हूं। अब मेरे जीवित रहने का कोई उद्देश्य नहीं है। कृपया मुझे मेरा जीवन सम्मानपूर्ण तरीके से समाप्त करने की अनुमति प्रदान करें।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 13 दिसंबर को महिला जज की याचिका खारिज कर दी थी। कोर्ट का कहना था कि आंतरिक समिति इस मामले को देख रही है, लिहाजा इसमें दखल देने का कोई कारण नजर नहीं आता। आठ सेकंड के अंदर अपनी याचिका खारिज होने से दुखी महिला जज ने सीजेआई के नाम दो पेज का पत्र लिखा।
महिला जज ने आरोप लगाया कि बाराबंकी में तैनाती के दौरान एक विशेष जिला न्यायाधीश और उनके सहयोगियों ने मेरा शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न किया। मुझे रात में जिला जज से मिलने के लिए कहा गया। मैंने 2022 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और प्रशासनिक न्यायाधीश (हाईकोर्ट के न्यायाधीश) से शिकायत की लेकिन आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। उन्होंने दुख के साथ कहा किसी ने भी मुझसे यह पूछने की जहमत नहीं उठाई कि आप परेशान क्यों हैं? उन्होंने लिखा कि मैं निष्पक्ष जांच चाहती थीं व आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई। इस महीने सुप्रीम कोर्ट में जो याचिका दायर की थी, उसे सिर्फ आठ सेकंड के अंदर खारिज कर दिया गया।
मेरे साथ बिल्कुल कूड़े जैसा व्यवहार किया गया है। मैं किसी कीड़े जैसी महसूस कर रही हूं और मैं दूसरों को न्याय दिलाना चाहती थी। मैं कितनी भोली हूं! मैं भारत की सभी कामकाजी महिलाओं से कहना चाहती हूं, यौन उत्पीड़न के साथ जीना सीख लें। यह हमारे जीवन का सच है।
यह एक गंभीर मामला है जब एक महिला जज अपने साथ किए जा रहे सीनियर जज के दुव्र्यवहार और यौन उत्पीड़न के मामले में खुद को न्याय दिलाने में प्रतिकूल परिस्थितियों से गुजर रही है और इस सिस्टम से आहत होकर आत्महत्या तक की कोशिश करने के लिए मजबूर की जा रही है। क्या इन हालात से आंख मूंद कर हम सिर्फ बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ के नारे लगा रहे हैं। हमें इस तरह की वारदातों की तह तक तत्काल जांच कर महिलाओं के सुरक्षा व सम्मान की गारंटी देने की व्यवस्था करनी होगी। हमारे देश में कार्य स्थलों पर महिलाओं के साथ होने वाले दुव्र्यवहार मानसिक व शारीरिक शोषण के मामले किसी से छिपा नहीं है हालांकि कभी इज्जत के नाम पर तो कभी न्याय मिलने में होने वाले अवरोध, दुरूह प्रक्रिया व दबाव तथा यौन शोषण करने वाले लोगों के दबंग और ताकतवर होने के कारण पीड़ित महिलाएं इस अन्याय और अपराध के खिलाफ अपनी आवाज उठाने में स्वयं को कमजोर पाती हैं। यहां याद रहे की पूर्व में सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश पर भी एक महिला प्रशिक्षु के साथ लज्जाजनक व्यवहार करने की घटना सामने आ चुकी है। जाहिर है कि सिर्फ कल-कारखाने दफ्तर ही नहीं बल्कि देश के सबसे सुरक्षित व सम्मानित पदों पर तैनात लोग भी अपने अधीनस्थ व सहयोगी महिला कर्मियों के साथ शारीरिक और मानसिक शोषण करने से नहीं चूकते हैं। सिर्फ घरेलू कामकाजी ही नहीं बड़े सरकारी न्यायिक दफ्तर में बैठी महिलाएं भी कभी-कभी पुरुषों की शर्मनाक जहनियत का शिकार बन जाती हैं और वह अपने आपको एक ऐसे अपमानित व शर्मिंदगी भरा जीवन जीने के लिए मजबूर कर दी जाती है।ं बांदा की इस महिला जज ने लीक से हटकर अपनी आत्मा की आवाज पर अपने वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी द्वारा किए जा रहे शारीरिक शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत की है। इसके लिए निस्संदेह वह बधाई की पात्र हैं। वहीं इस मामले में जिस तरह से जांच प्रक्रिया में देरी की जा रही है तथा मामले को दबाने का प्रयास किया जा रहा है वह अत्यंत शर्मनाक है। हमारे यहां एक ऐसा तंत्र विकसित किया गया है जिसमें किसी भी शिकायत को अपने तरीके से छुपाने दबाने और उस पर कार्रवाई न करने की पर्याप्त गुंजाइश बची हुई है। ऐसी स्थिति में जब मामला किसी महिला के सम्मान के साथ जुड़ा हुआ हो तो महिलाएं इन मुद्दों पर अपमान व शर्मिंदगी के साथ खून का घूंट पीकर रह जाती है और शिकायत तक नहीं करती हैं। लेकिन जब शिकायत करने वाली महिला को समय रहते न्याय नहीं मिले और उसकी शिकायत पर कोई सुनवाई भी न हो तो ऐसी स्थिति में इस महिला जज की तरह से उसके अंतर्मन को ठेस लगना स्वाभाविक है। इन स्थिति और हालात को देखते हुए देश की न्यायिक व्यवस्था के सर्वोच्च अधिकारी सीजेआई महोदय को मामले को गंभीरता से लेना चाहिए तथा एक ऐसी दलील बनानी चाहिए जिसमें इस महिला अधिकारी को न्याय मिलना साफ परिलक्षित हो और मामले का दूध का दूध पानी का पानी कर दिया जाना चाहिए। इसे अपने न्याय तंत्र की बदनामी के तौर पर देखकर मामले को दबाने अथवा झुठलाने का प्रयास नहीं होना चाहिए। बांदा की महिला जज का यह मामला निश्चित रूप से एक मील का पत्थर साबित होगा और अपने कार्य स्थलों पर यौन शोषण व अन्य तरीकों से मानसिक व शारीरिक शोषण का शिकार हो रही महिलाओं को अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए बल व साहस मिलेगा जो आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है।
एक रिपोर्ट के अनुसार देश भर में कुल 52 करोड़ कामकाजी लोगों की तादाद है। इनमें 19 करोड़ महिलाएं कामकाजी है जो अपने घरों से निकल कर निजी क्षेत्र या सरकारी क्षेत्र में कार्य कर आजीविका कमाती है। आंकड़े बताते हैं कि 2022 में कुल 17809 यौन उत्पीड़न के मामले दर्ज किए गए जिनमें मात्र 419 मामले कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न के दर्ज है। जाहिर है कि यदि इन आंकड़ों को सही मान लें तो दुनिया में कामकाजी महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित भारत है लेकिन हकीकत कुछ और है यह आंकड़े विश्वास करने लायक नहीं है। दरअसल हमारे यहां कानून व्यवस्था की हालत खस्ता होने के कारण बहुत सारे मामले दर्ज नहीं किए जाते हैं। महिलाएं अपने शोषण को दुर्भाग्य व नियति मानकर जालिमों के खिलाफ मामला दर्ज कराने का साहस नहीं करती है। इससे यौन दुराग्रही समाज कंटकों को बल मिलता है और वह निरंतर एक के बाद एक शिकार बनाते रहते हैं। (हिफी)
(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)