
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-88
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
कर्मों की सिद्धि के पांच कारण
पंचैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांड्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।। 13।।
हे महाबाहो! कर्मों का अन्त करने वाले सांख्य-सिद्धान्त में सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिये ये पाँच कारण बताये गये हैं, इनको तू मुझसे समझ।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।। 14।।
इसमें (कर्मों की सिद्धि में) अधिष्ठान तथा कर्ता और अनेक प्रकार के करण एवं विधि प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ कारण दैव (संस्कार) है।
व्याख्या-यहाँ आत्मा को अकर्ता बताने के लिये पाँच कारणों का वर्णन किया गया है। इन पाँचों में कर्तृत्व का त्याग होने पर कर्मों का अन्त ़(सम्बन्ध-विच्छेद) हो जाता है। कर्मों की सिद्धि में वे पाँच कारण इस प्रकार हैं-
1-अधिष्ठान-शरीर, 2-कर्ता-अपरा प्रकृति के अहंकार के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाला अविवेकी मनुष्य, 3 करण-पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और मन, बुद्धि तथा अहंकार-ये तेरह करण। 4-करणों की अलग-अलग चेष्टाएँ, 5-स्वभाव अथवा अन्तःकरण के अच्छे-बुरे संस्कार।
क्रिया का वेग और स्वभाव-दोनों एक ही हैं (‘स्वभावस्तु प्रवर्तते’ गीता 5/14)।
शरीरवाडंमनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पंचैते तस्य हेतवः।। 15।।
मनुष्य शरीर, वाणी और मन के द्वारा शास्त्र विहित अथवा शास्त्र विरुद्ध जो कुछ भी कर्म आरम्भ करता है, उसके ये (पूर्वोक्त़) पाँचों हेतु होते हैं।
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।। 16।।
परनतु ऐसे पाँच हेतुओं के होने पर भी जो उस (कर्मों के) विषय में केवल (शुद्ध) आत्मा को कर्ता देखता है, वह दुष्ट बुद्धिवाला ठीक नहीं देखता, क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है अर्थात् उसने विवेक को महत्त्व नहीं दिया है।
व्याख्या-सब कारकों में कर्ता मुख्य है। कर्ता में चेतन की झलक आती है, अन्य कारकों में नहीं। वास्तव में ‘कर्ता’ नाम चेतन का नहीं है, प्रत्युत चेतन द्वारा जड़ से माने हुए सम्बन्ध का है-‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता 3/27)। इसलिये भगवान् ने प्रस्तुत श्लोक में अपने वास्तविक स्वरूप (चेतन) को कर्ता मानने वाले की निन्दा की है। स्वरूप में कर्तृत्व और भोक्तृत्व-दोनों ही नहीं हैं (गीता 13/31)। मूल में ये नहीं हैं, तभी इनका त्याग होता है।
वास्तव में कर्ता कोई नहीं है। न चेतन कर्ता है, न जड़। यदि किसी को कर्ता मानना ही पड़े तो साधक के लिये यही उचित है कि वह जड़ को कर्ता माने। गीता में भगवान् ने कर्मों के होने में पाँच कारण बताये हैं-1-प्रकृति (3/27, 13/29), 2-गुण (3/28, 14/19), 3-इन्द्रियाँ (5/9), 4-स्वभाव (5/14, 3/33), 5-पाँच हेतु (18/14)। वास्तव में कर्मों के होने में मूल कारण एक ‘प्रकति’ ही है। अतः कर्तृत्व प्रकति में ही है, स्वरूप में नहीं।
साधक खाने-पीने, सोने-जागने आदि लौकिक क्रियाओं को तो विचार द्वारा प्रकृति में होने वाली सुगमता से मान सकता है, पर वह जप, ध्यान, समाधि आदि पारमार्थिक क्रियाओं को अपने द्वारा होने वाली तथा अपने लिये मानता है तो यह वास्तव में साधक के लिये बाधक है। कारण कि ज्ञान योग की दृष्टि से क्रिया चाहे ऊँची-से-ऊँची हो अथवा नीची-से-नीची, वह एक जाति की (प्राकृत) ही है। लाठी घुमाना और माला फेरना-दोनों क्रियाएँ अलग-अलग होने पर भी प्रकृति में ही हैं। तात्पर्य है कि खाने-पीने, सोने-जागने आदि से लेकर जप, ध्यान, समाधि तक सम्पूर्ण लौकिक-पारमार्थिक क्रियाएँ प्रकृति में ही हो रही हैं। प्रकृति सम्बन्ध के बिना कोई क्रिया सम्भव ही नहीं है। अतः साधक को चाहिये कि वह पारमार्थिक क्रियाओं का त्याग तो न करे, पर उनमें अपना कर्तृत्व न माने अर्थात् उन्हें अपने द्वारा होने वाली तथा अपने लिये न माने। क्रिया चाहे लौकिक हो, चाहे पारमार्थिक हो, उसका महत्त्व रहता है, वह भी जड़ता का ही महत्त्व होने से साधक के लिये बाधक है। भगवान् के लिये की गयी उपासना भगवत्कृपा की प्रधानता होती है, इसलिये इसमें भी साधक का कर्तृत्व नहीं है। पारमार्थिक क्रियाओं का उद्देश्य परमात्मा होने से वे कल्याण कारक हो जाती है। ज्यों-ज्यों क्रिया की गौणता और भगवत्सम्बन्ध की मुख्यता होती है, त्यों-त्यों अधिक लाभ होता है। क्रिया की मुख्यता होने पर वर्षों तक साधन करने पर भी लाभ नहीं होता। अतः क्रिया का महत्त्व न होकर भगवान् में प्रियता होनी चाहिये। प्रियता ही भजन है, क्रिया नहीं।
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।। 17।।
जिसका अहंकृत भाव (‘मैं कर्ता हूँ’-ऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह (युद्ध में) इन सम्पूर्ण प्राणियों को मारकर भी न कारता है और न बँधता है।
व्याख्या-अहंकृत भाव नहीं होने का तात्पर्य है-अहंता रहित होना अर्थात् ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा भाव न होना। बुद्धि लिप्त नहीं होने का तात्पर्य है-कामना, ममता और स्वार्थ भाव से रहित होना अर्थात् ‘मैं भोक्ता हूँ-ऐसा भाव न होना। स्वरूप में न कर्तापन है, न भोक्तापन। केवल जड़ शरीर के साथ सम्बन्ध मानकर जीव जिस अहंभाव को स्वीकार करता है, उसी अहं भाव से उसमें कर्तापन और भोक्तापन आ जाता है।
अर्जुन ने कहा था कि इन आततायियों को और गुरुजनों को मारने से हमें पाप लगेगा (गीता 1/36, 2/5)। इसलिये भगवान् यहाँ कहते हैं कि यदि अहंता और बुद्धि की लिप्तता न हो तो इनके मारने से पाप लगने की बात ही क्या है, सम्पूर्ण प्राणियों को मारने से भी पाप नहीं लगेगा। बुद्धि कामना, ममता और स्वार्थ भाव से लिप्त होती है। गंगाजी में कोई डूबकर मर जाता है तो उससे गंगा जी को पाप नहीं लगता और कोई उसका जल पीता है, स्नान करता है, खेती करता है तो उससे गंगा जी को पुण्य नहीं लगता। कारण कि गंगाजी में अहंकृत भाव और बुद्धि की लिप्तता नहीं है। डाॅक्टर में कामना, ममता और स्वार्थ बुद्धि नहीं होती तो आॅपरेशन में रोगी का अंग काटने पर भी उसे पाप नहीं लगता।
ज्ञान योग से अहंकृत भाव का नाश होता है और कर्म योग से बुद्धि की लिप्तता का नाश होता है। दोनों में किसी एक का नाश होने पर दूसरा भी नष्ट हो जाता है। अहंकृत भाव के कारण ही जीव में भोग और मोक्ष की इच्छा पैदा होती है। अहंकृत भाव मिटने से भोगेच्छा भी मिट जाती है। भोगेच्छा मिटने पर मोक्ष की इच्छा स्वतः पूरी हो जाती है, क्योंकि मोक्ष स्वतः सिद्ध है।-क्रमशः (हिफी)