अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

मन का भोजन कर्म

अष्टावक्र गीता-65

 

अष्टावक्र जी राजा जनक को समझाते हैं कि मन का भोजन कर्म है अच्छे और बुरे दोनांे प्रकार के कर्म मन करता है। आत्मा को जान लेने वाला ज्ञानी का मन मजबूत हो जाता है।

अष्टावक्र गीता-65

क्व निरोधो विमूढस्य यो निर्बन्धं करोति वै।
स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदाऽसावकृत्रिमः।। 41।।
अर्थात: जो हठपूर्वक चित्त का निरोध करता है उस अज्ञानी को कहाँ चित्त का निरोध है? स्वयं में रमण करने वाले धीर पुरुष के लिए यह चित्त का निरोध स्वाभाविक है।
व्याख्या: करना मात्र मन से होता है। बुरा कर्म यदि मन से होता है तो अच्छा भी मन ही से होता है, भोग यदि मन से होता है तो त्याग भी मन ही से होता है। संसार की अभिलाषा यदि मन की है तो मोक्ष की अभिलाषा भी मन की ही है। जब तक मन है तब तक शान्ति नहीं है। मन का भोजन ही कर्म है। बिना कर्म के वह रह ही नहीं सकता। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि जो हठपूर्वक चित्त का निरोध करते हैं यह भी मन के ही कारण है जिससे कभी चित्त का निरोध नहीं हो सकता बल्कि मन और मजबूत होता है, अहंकार और दृढ़ होता है। इसलिए अज्ञानी
को कभी शान्ति नहीं मिल सकती किन्तु वह ज्ञानी जिसने आत्मा को जान लिया है, जो सदा आत्मा में ही रमण करने वाला है वही शान्ति को प्राप्त होता है, उसके चित्त का निरोध स्वाभाविक रूप से ही हो जाता है। हठपूर्वक, जबरदस्ती करना नहीं पड़ता। आत्मज्ञान से ही वृत्तियाँ शान्त होती हैं, करने से नहीं होतीं।

भावस्य भावकः कश्चिन्न किंचि˜ावकोऽपरः।
उभयाऽभावकः कश्चिदेवमेव निराकुलः।। 42।।
अर्थात: कोई भाव को मानने वाला है और कोई कुछ भी नहीं है, ऐसा मानने वाला है। वैसे ही कोई दोनों को नहीं मानने वाला है और वही स्वस्थचित्त है।
व्याख्या: कुछ लोग ईश्वर को भावरूप में मानते हैं, कुछ उसे अभाव रूप केवल शून्य मानते हैं। आस्तिक कहता है परमात्मा है तो नास्तिक कहता है परमात्मा नहीं है किन्तु अष्टावक्र कहते हैं कि दोनों ही अज्ञानी हैं। उनकी यह मान्यता बौद्धिक है, कल्पना मात्र है। जाना दोनों ने नहीं है। दोनों रूढ़िवादी हैं, परम्परावादी हैं। परमात्मा इतना विराट् है कि वह क्षुद्र बुद्धि के घेरे में समाता ही नहीं। न बुद्धि उसको जान सकती है, न वाणी उसका वर्णन कर सकती है। परमात्मा ‘है’ नहीं है कहना मन की ही घोषणाएँ हैं। जिसे जाना नहीं और कहते हैं वे अज्ञानी ही हैं। जिसने जान लिया वह मौन हो जाता है, क्योंकि उसे कहना कठिन है। इसलिए ज्ञानी न तो यह कहता है कि ‘परमात्मा’ है न कहता है वह नहीं है। वह दोनों रूप से
तटस्थ रहता है, निरपेक्ष एवं आग्रह
पूर्ण वक्तव्य नहीं देता कि वह है या नहीं है। ऐसा व्यक्ति ही स्वस्थचित्त एवं परमशान्ति को प्राप्त होता है। कहने से विवाद ही पैदा होता है। तर्क से परमात्मा को न सिद्ध किया जा सकता है, न असिद्ध।

शुद्धमद्वयमात्मानं भावयन्ति कुबुद्धयः।
न तु जानन्ति संमोहाद्यावज्जीवमनिर्वृताः।। 43।।
अर्थात: कुबुद्धि पुरुष शुद्ध अद्वैत आत्मा की भावना करते हैं लेकिन मोहवश उसे नहीं जानते हैं इसलिए जीवन भर सुख रहित रहते हैं।
व्याख्या: सुख तो ज्ञान का ही फल है, अज्ञानी को सुख कहाँ। अज्ञानी चाहे कितनी भावना कर ले कि आत्मा है, परमात्मा है, संसार मिथ्या है, माया है, ब्रह्म ही सत्य है, मैं ब्रह्म ही हूँ, जीव, जगत् व ब्रह्म एक ही है आदि तो भी वह सुख को प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि भावना मात्र करने से सुख नहीं मिलता। सुख मिलता है जानने से, किन्तु कुबुद्धि पुरुष में संसार के प्रति मोह तो बना रहता है जिससे वह कभी जान नहीं सकता एवं पाखण्ड वश शुद्ध अद्वैत आत्मा की भावना करता है। दुनियाँ में ऐसे भी लोग हैं जो हैं तो चोर, बेईमान, झूठे, क्रोधी, कामी, लोभी, अज्ञानी, हठी, दुराग्रही किन्तु वे व्रत लेते हैं कि चोरी नहीं करेंगे, बेईमानी नहीं करेंगे, झूठ नहीं बोलेंगे। वे ब्रह्मचर्य की बातें करते हैं, लाखों की चोरी करके हजार का मंदिर में दान देकर दानवीर बनते हैं, भगवान की पूजा भी किराये से करवाते हैं, हैं पूरे चार्चाक और अद्वैत की बात करते हैं, व्रत ले-लेकर अपनी चोरी एवं बेईमानी को छिपाने का मार्ग ढूँढते हैं ताकि इनकी आड़ में यह बेईमानी छिप जाय, किन्तु स्वयं का रूपान्तरण ही धर्म है। इसी से होगा ज्ञान तथा इसी से अद्वैत की अनुभूति होगी। भावना करने से नहीं होगा। प्रत्यक्ष बोध करना होगा तभी सुख मिलेगा।

मुमुक्षोर्बुद्धिरालम्बमन्तरेण न विद्यते।
निरालम्बैव निष्कामा बुद्धिर्मुक्तस्य सर्वदा।। 44।।
अर्थात: मुमुक्षु पुरुष की बुद्धि आलम्बन के बिना नहीं रहती। मुक्त पुरुष की बुद्धि सदा निष्काम और निरालम्ब रहती है।
व्याख्या: मन सहारा चाहता है। बिना सहारे के वह जिन्दा नहीं रह सकता। यदि उसे परमात्मा का सहारा मिल जाय तो वह तृप्त हो जाता है किन्तु वह न मिलने से ही तृप्ति के लिए विषयों की ओर भागता है। बुद्धि भी आलम्बन चाहती है। बिना आलम्बन के सोच-विचार सम्भव नहीं है। इसलिए मुमुक्षु व्यक्ति भी पूजा, पाठ, यज्ञ, पण्डित, शास्त्र, मन्दिर, परमात्मा आदि का सहारा लेकर चलता है किन्तु अष्टावक्र कहते हंै कि जब कोई सहारा है, चाहे वह परमात्मा का ही हो, तब तक मुक्ति नहीं है। वह सहारा भी बन्धन है। उद्देश्य प्राप्ति के बाद सभी सहारे, सभी आलम्बन छोड़ देने पड़ते हैं तभी व्यक्ति निष्काम और निरालम्ब होता है। बुद्धि और मन की ऐसी अवस्था ही मुक्ति है। वह सदा एक आत्मा में ही स्थिर हो जाता है।

विषयद्वीपिनो वीक्ष्य चकिताः शरणार्थिनः।
विशन्ति झटिति क्रोडन्निरोधैकाग्रîसिद्धये।। 45।।
अर्थात: विषयरूपी बाघ को देखकर भयभीत हुआ मनुष्य शरण की खोज में शीघ्र ही चित्त के निरोध और एकाग्रता की सिद्धि के लिए पहाड़ की गुफा में प्रवेश करता है।
व्याख्या: विषयों से संसारी भयभीत नहीं होता। वह तो इन्हें भोग लेता है। ये विषय चाहे क्षणिक आनन्द ही देते हों किन्तु व्यक्ति इन्हें भोगकर तृप्ति का अनुभव कर लेता है। शाश्वत का उसे कुछ पता ही नहीं कि ऐसा आनन्द भी है जो चिरस्थाई है, इसलिए वह क्षणिक से ही सन्तुष्ट हो जाता है। सुख-दुःख, हर्ष, विषाद जो भी हो उसे भाग्यवश समझकर भोग लेता है किन्तु जिसमें आत्माज्ञान की वासना तीव्र हो जाती है वह इन विषयों से भयभीत होता है। वह इन विषयों के सम्मुख उपस्थित बाघ के समान समझकर इनसे बचने के लिए एकान्त कहीं पहाड़ की गुफा में प्रवेश करता है, यानि वह संसार से ही भाग खड़ा होता है। ऐसा अज्ञानी यह समझता है कि संसार में भाग जाने से तथा एकान्त में रहने से चित्त का निरोध हो जायेगा, उसको एकाग्रता की सिद्धि मिल जायेगी जिससे उसे आत्मज्ञान हो जायेगा किन्तु यह उसका भ्रम मात्र है। विषयों के प्रति आकर्षण का कारण भीतर चित्त में छिपी वासना है जिससे व्यक्ति विषयों के पीछे दौड़ता है। संसार इसका कारण नहीं है इसलिए इसे छोड़ने पर वासना छूट जाय, यह आवश्यक नहीं है। यह निरोध नहीं है। जब भीतर की वासना शान्त होगी तभी निरोध होगा। इसलिए भयभीत होकर भाग जाने की अपेक्षा उन्हें जागकर देखने से, साक्षी भाव से देखने से तथा बोधपूर्वक देखने से इनका निरोध होगा। अन्यथा कोई उपाय नहीं है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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