धर्म-अध्यात्म

सात्विक, राजस व तामस के भोजन

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-84

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-84
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

सात्विक, राजस व तामस के भोजन

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।। 10।।
जो भोजन सड़ा हुआ, रस रहित, दुर्गन्धित, बासी और जूठा है तथा जो महान् अपवित्र (मांस आदि) भी है, वह तामस मनुष्य को प्रिय होता है।
व्याख्या-चार श्लोकों के उपर्युक्त प्रकरण में सात्त्विक, राजस और तामस आहार का वर्णन दीखता है, परन्तु वास्तव में यहाँ आहार का नहीं, प्रत्युत आहारी की रुचि का ही वर्णन हुआ है। इसलिये यहाँ ‘प्रियः’, ‘सात्त्विका प्रियाः’, ‘राजसस्येष्टाः‘ और ‘तामसप्रियम्’ पदों में ‘प्रिय’ और ‘इष्ट’ शब्द आये है, जो रुचि के वाचक हैं।
सात्त्विक आहारी के लिये पहले भोजन का फल बताकर फिर भोजन के पदार्थों का वर्णन किया गया है, क्योंकि सात्त्विक मनुष्य किसी भी कार्य में प्रवृत्त होता है तो सबसे पहले उसके परिणाम पर विचार करता है। राजस आहारी के लिये पहले भोजन के पदार्थों का वर्णन करके फिर उसका फल बताया गया है, क्योंकि राजस मनुष्य राग के कारण सर्वप्रथम भोजन को ही देखता है, उसके परिणाम पर प्रायः विचार करता ही नहीं। तामस आहारी के वर्णन में भोजन का परिणाम बताया ही नहीं गया, क्योंकि तामस मनुष्य मूढ़ता के कारण भोजन और उसके परिणाम पर विचार करता ही नहीं। सात्त्विक का पहले विचार है, राजस का पीछे विचार है, तामस का विचार है ही नहीं!
अफलाकांक्षभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः।। 11।।
यज्ञ करना ही कर्तव्य है-इस तरह मन को समाधान (सन्तुष्ट) करके फलेच्छा रहित मनुष्यों द्वारा जो शास्त्र विधि से नियत यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक है।
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरत श्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्।। 12।।
परन्तु हे भरत श्रेष्ठ अर्जुन! जो फल की इच्छा को लेकर ही किया जाता है अथवा दम्भ (दिखावटी पन) के लिये भी किया जाता है, उस यज्ञ को तुम राजस समझो।
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।। 13।।
शास्त्र विधि से हीन, अन्न-दान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किये जाने वाले यज्ञ को तामस कहते हैं।
व्याख्या-इन यज्ञों में कर्ता, ज्ञान, क्रिया, धृति, बुद्धि, संग, हो जायगा, यदि राजस होंगे तो वह यज्ञ राजस हो जायगा, और यदि तामस होंगे तो वह तामस हो जायगा।
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्य महिंसा च शारीरं तप उच्यते।। 14।।
देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और जीवान्मुक्त महापुरुष का यथायोग्य पूजन करना, शुद्धि रखना, सरलता, ब्रह्मचर्य का पालन करना और हिंसा न करना-यह शरीर-सम्बन्धी तप कहा जाता है।
व्याख्या-शारीरिक तप में ‘त्याग’ मुख्य है, जैसे-पूजन में अपने में बड़प्पन के भाव का त्याग है, शुद्धि रखने में आलस्य-प्रमाद का त्याग है, सरलता रखने में अभिमान का त्याग है, ब्रह्मचर्य में विषय-सुख का त्याग है, अहिंसा में अपने सुख के भाव का त्याग है। इस प्रकार त्याग मुख्य होने से शारीरिक तप होता है।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाड्ंमयं तप उच्यते।। 15।।
जो किसी को भी उद्विग्न न करने वाला, सत्य और प्रिय तथा हितकारक भाषण है, वह तथा स्वाध्याय और अभ्यास (नाम जप आदि) भी वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है।
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।। 16।।
मन की प्रसन्नता, सौम्य भाव, मनन शीलता, मन का निग्रह और भावों की भलीभाँति शुद्धि-इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकांक्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते।। 17।।
परम श्रद्धा से युक्त फलेच्छा रहित मनुष्यों के द्वारा (जो) तीन प्रकार (शरीर, वाणी और मन) का तप किया जाता है, उसको सात्त्विक कहते हैं।
सत्कारमानपूजार्थ तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।। 18।।
जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिये तथा दिखाने के भाव से भी किया जाता है, वह इस लोक में अनिश्चित और नाशवान् फल देने वाला तप राजस कहा गया है।
मृढ़ग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्।। 19।।
जो तप मूढ़ता पूर्वक हठ से अपने को पीड़ा देकर अथवा दूसरों को कष्ट देने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।। 20।।
दान देना कर्तव्य है-ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर अनुपकारी को अर्थात् निष्काम भाव से दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है।
व्याख्या-यह सात्त्विक दान वास्तव में ‘त्याग’ है। यह वह दान नहीं है, जिसके लिये कहा गया है-‘एक गुना दान, सहó गुना पुण्य’। कारण कि उस दान से (सहó के साथ) सम्बन्ध जुड़ता है जबकि त्याग से सम्बन्ध टूटता है।
गीता में वर्णित सात्त्विक गुण त्याग की तरफ जाता है। इसलिये भगवान् ने इसे ‘अनामय’ कहा है (गीता 14/6)। सत्त्वगुण सम्बन्ध-विच्छेद (त्याग) करता है, रजोगुण सम्बन्ध जोड़ता है और तमोगुण मूढता लाता है।
गीता के अनुसार दूसरे के हित के लिये कर्म करना ‘यज्ञ; है, सदा
प्रसन्न रहना ‘तप’ है और उसी की वस्तु मानकर उसी को दे देना ‘दान’ है।
स्वार्थ बुद्धि पूर्वक अपने लिये यज्ञ-तप-दान करना आसुरी अथवा राक्षसी
स्वभाव है।-क्रमशः (हिफी)

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