तीज-त्योहार

उपहार

 

प्रज्ञान न जाने किस उधेड़बुन में खोया-खोया सा था। उसे कुछ अच्छा ही नहीं लग रहा था। दो-तीन दिन से उसने खाना भी मन से नहीं खाया था। बस ! मौन सा खुद से बातें करता और बार-बार आसमान को निहारता। प्रज्ञान के भीतर चल रहे इस संघर्ष को पत्नी सरला अच्छी तरह समझती थी। वह पढ़ी-लिखी महिला थी लेकिन वह भी बेबस थी।

देखो ! प्रज्ञान इस तरह काम नहीं चलेगा। तुम्हारी उदासी मुझसे देखी नहीं जाती। मैं तुम्हारे भीतर चल रहे संघर्ष को समझती हूँ। मैं तुम्हारी धर्मपत्नी हूँ। तुम्हारे हर सुख -दुःख की सहभागी हूँ। मैं जानती हूँ तुम्हारी नौकरी छूट गयी है। बच्चों की पढ़ाई और घर खर्च चलाना मुश्किल हो रहा है। हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। तुम बेरोजगार हो गए हो। तुम्हारे पास कौड़ी नहीं है। रक्षाबंधन का त्यौहार करीब है। मीना दीदी कल तुम्हें राखी बाँधने आएंगी लेकिन तुम उन्हें कुछ दे नहीं पाओगे। बाबूजी तुम्हें संभालते रहे लेकिन अब वे भी दुनिया से अलबिदा हो गए। सरला ने एक लम्बी सांस लेते हुए बुझी निगाहों से कहा था- मैं सब समझती हूँ प्रज्ञान, लेकिन चिंता मत कीजिए।

प्रज्ञान ! तुम इतने उदास मत हो। तुम्हारी उदासी मुझसे नहीं देखी जाती। तुम मेरी जिंदगी और उम्मीद हो। तुम्हारा विचलित होना मुझे अंदर से तोड़ता है। आज जब मेरा बुरा वक्त आ गया तो मुझे कोई नहीं पूछता। मेरे बाबू जी के जाने के बाद तुमने मेरे मायके की गिरी हालत को कहाँ से कहाँ पंहुचा दिया। आज मेरे भाई आसमान नाप रहे हैं लेकिन अब उन्हें जीजा और दीदी चूसे हुए गन्ने की तरह लगते हैं। तुमने कितना कुछ नहीं किया मेरे भाईयों के लिए लेकिन मेरी हालत पर अब कोई तरस नहीं खाता। लोग मुफ्त की कॉल भी नहीं करते। भाभियाँ कॉल उठाने से कतराती हैं कहीं मीना उनसे कुछ मांग न ले। प्रज्ञान मेरे पास एक उम्मीद है। अगर तुम चाहो तो मैं तैयार हूँ। मेरी सगाई में जो तुमने मुझे अंगूठी पहनाई थी अंतिम उम्मीद मेरे पास बची है। तुम चाहो तो मीना दीदी को यह अंगूठी दे सकते हो। आखिर तुम्हारी खुशी से बढ़कर मेरे लिए अंगूठी नहीं है।

…. लेकिन सरला ! तुम्हारे तो सारे आभूषण नौकरी छूटने के बाद घर-चलाने में बिक गए हैं। यह अंतिम निशानी भी मैं…नहीं… नहीं ऐसा नहीं होगा। सरला, मेरी मीना बहुत समझदार है। वह सब कुछ जानती है। मैं सब संभाल लूंगा तुम चिंता मत करो। राखी कोई पैसों का नहीं दिलों और रिश्तों का त्यौहार है। फिर इस दुनिया में समय का मारा सिर्फ मैं अकेला प्रज्ञान थोड़े हूँ जो बहन को राखी बांधने के बाद उपहार में कुछ नहीं दे पाएंगे। ऐसे भाई भी लाखों हैं लाखों।

मीना को बचपन में मिट्टी के खिलौने बेहद पसंद थे। प्रज्ञान गांव के मेले में जाता तो मीना के लिए मिट्टी के खिलौने जरूर लाता। मीना जब शादी के बाद ससुराल जाने लगी तो उसने प्रज्ञान से लिपट कर खूब रोया था। साथ में उन खिलौनो को प्रज्ञान को देते हुए कहा था। भईया, इसे मेरी धरोहर समझना। इसमें मेरा दिल बसता है। यह भाई-बहन के अटूट स्नेह की निशानी है। संभाल कर रखना। इस मिट्टी में मेरे भाई का प्यार बसता है। तुम्हें कसम है भईया इन्हें मिट्टी समझ कर फेंक मत देना। तुम्हें मेरी इस
धरोहर को लौटना होगा। यह तुम्हारी बहन की थाती है।

प्रज्ञान बहन मीना के उन खिलौनो को 25 साल बाद भी संभाल कर रखा रखा था। आज वह उस नायाब तोहफे को सीने से लगा कर खूब रोया था। लेकिन उसे एक तसल्ली मिली थी कि राखी की बधाई में प्रज्ञान, मीना को उसकी थाती उपहार में देगा। अब उसकी चिंता दूर हो गयी थी। उसके चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट उभर आयी थी।

दूसरे दिन राखी का त्यौहार था। बंधन का शुभ मुहूर्त सुबह 8 बजे तक था। लिहाजा मीना समय से पहुंच गयी थीं। मीना अच्छे खासे घर की थीं। उसके पति आईपीएस ऑफिसर हैं। लिहाजा वह अच्छी-खासी गाडी से आयी थीं। उसके साथ नौकर-चाकर भी थे। गाडी से उतरने के बाद मीना सीधे घर में पहुँच गयी। साथ आए नौकर मिठाइयाँ, बच्चों के खिलौने, उपहार और खाने-पीने के सामान अंदर पहुंचा दिए। मीना को देकर बच्चे खुश हो गए।

प्रज्ञान को देखते ही मीना गले से लिपट गयी। प्रज्ञान मीना को अपनी जान से भी अधिक मानता था। जब वह नौकरी में था तो उसकी पढ़ाई और शादी में बहुत खर्च किया था। उसे कम्प्यूटर साइंस में इंजीनीयर बनाया। उसकी हर मांग और जिद को पूरी करता था। मीना आज एक मल्टीनेशनल कम्पनी में मैंनेजर थी। यह सब प्रज्ञान की वजह से था। प्रज्ञान को वह दिलों जान से प्यार करती है। उसे एक काँटा भी चुभ जाया करता है तो वह तड़प उठती लेकिन नौकरी छूटने के बाद प्रज्ञान की आर्थिक हालत से वह अच्छी तरह परिचित थी।
अरे ! प्रज्ञान दीदी आई हैं, उनका स्वागत करोगे कि खुशी के मौके पर आंसू गिराओगे। सरला ने यह कहते हुए प्रज्ञान और मीना को अलग किया था। प्रज्ञान ने कहा था दीदी मुहूर्त निकल जाएगा, देख मैं तैयार हूँ। मेरी प्यारी बहन तू जल्दी से राखी बाँध मुझे। प्रज्ञान की पत्नी ने राखी और दीप की थाल मीना को देते हुए कहा था लीजिए दीदी जी। मीना ने प्रज्ञान का तिलक चंदन और आरती करने के बाद राखी बाँध दिया। अब प्रज्ञान की बारी थी मीना की थाल में उपहार देने की लेकिन प्रज्ञान के हाथ काँपने लगे। उसका गला भर आया। मीना से वह आँखें नहीं मिला पा रहा था लेकिन, वह मजबूर और बेबस था। न चाहते हुए भी उपहार में बहन मीना को खिलौने की पोटली देते हुए फूट पड़ा। हाथ जोड़ते हुए बोला दीदी ! मेरे इस अमूल्य उपहार को यहाँ मत खोलना।

मीना ने आँखों से गिरते आंसुओं को पोछते हुए कहा। नहीं भईया ! यह मेरा अधिकार है। मैं तो देखूंगी मेरे लाडले भाई ने राखी में अपनी लाडली को क्या दिया है। प्रज्ञान के सामने ही बहन मीना ने खिलौनों के झोले को खोल दिया। उन खिलौनों को देख मीना नाच उठी। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था। वह बचपन के दिनों में खो गई। जैसे उसे जन्नत की खुशियाँ मिल गयीं हों। उन खिलौनों को वह बार-बार चूम रहीं थीं जैसे उसे दुनिया का सबसे श्रेष्ठ उपहार मिल गया हो। उसने भाई प्रज्ञान को गले से लगा लिया। बहन की खुशी देख प्रज्ञान की आँखों से आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। वह न जाने किस अतीत में खो गया था। (हिफी)

(प्रभुनाथ शुक्ल-हिफी फीचर)

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