योग्य पात्रों को उदारता से देना दान है
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-20)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-युद्ध में न भागना किसको कहते हैं?
उत्तर-युद्ध करते समय भारी से भारी संकट आ पड़ने पर भी पीठ न दिखलाना, हर हालत में न्यायपूर्वक सामना करके अपनी शक्ति का प्रयोग करते रहना और प्राणों की परवाह न करके युद्ध में डटे रहना ही युद्ध में न भागना है। इसी धर्म को ध्यान में रखते हुए वीर बालक, अभिमन्यु ने छः महारथियों से अकेले युद्ध करके प्राण दे दिये, किन्तु शó नहीं छोड़े। आधुनिक काल में भी राजस्थान के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें वीर राजपूतों ने युद्ध में हार जाने पर भी शत्रु को पीठ नहीं दिखायी और अकेले सैकड़ों हजारों सैनिकों से जूझकर प्राण दे दिये।
प्रश्न-दान देना क्या है?
उत्तर-अपने स्वत्त्व को उदारतापूर्वक यथावश्यक योग्य पात्रों को देते रहना दान देना है।
प्रश्न-ईश्वर भाव किसको कहते हैं?
उत्तर-शासन के द्वारा लोगांे को अन्यायाचरण से रोककर सदाचार मंे प्रवृत्त करना, दुराचारियों को दण्ड देना, लोगों से अपनी आज्ञा का न्याययुक्त पालन करवाना तथा समस्त प्रजा का हित सोचकर निःस्वार्थ भाव से प्रेमपूर्वक पुत्र की भाँति उसकी रक्षा और पालन-पोषण करना यह ईश्वर भाव है।
प्रश्न-ये सब क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि क्षत्रियों के स्वभाव से सत्त्व मिश्रित रजोगुण की प्रधानता होती है इस कारण उपर्युक्त कर्मों में उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। इनका पालन करने में उन्हें किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती। इन कर्मों में जो भी धृति, दान आदि सामान्य धर्म हैं, उनमें सबका अधिकार होने के कारण वे अन्य वर्णवालों के लिये अधर्म या परधर्म नहीं है किन्तु ये उनके स्वाभाविक कर्म नहीं हैं, इसी कारण ये उनके लिये प्रयत्न साध्य हैं।
प्रश्न-मनु स्मृति में तो प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेदों का अध्ययन करना और विषयों में आसक्त न होना ये क्षत्रियों के कर्म संक्षेप से बतलाये गये हैं और यहाँ प्रायः दूसरे ही बतलाये गये हैं इसका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-यहाँ क्षत्रियों के स्वभाव से विशेष सम्बन्ध रखने वाले कर्मों का वर्णन है अतः मनुस्मृति में बतलाये हुए कर्मों में से क्षत्रियों के स्वभाव से विशेष सम्बन्ध रखने वाले प्रजापालन और दान इन दो कर्मों को तो यहाँ ले लिया गया है, किन्तु उनके अन्य कर्तव्य कर्मों का विस्तार पूर्वक वर्णन नहीं किया गया। इसलिये इनके सिवाय जो अन्यान्य कर्म क्षत्रियों के लिये दूसरी जगह कर्तव्य बतलाये गये हैं, उनको भी इनके साथ ही समझ लेना चाहिये।
कृषि गौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।। 44।।
प्रश्न-‘कृषि’ यानी खेती करना क्या है?
उत्तर-न्यायानुकूल जमीन में बीज बोकर गेहूँ, जौ, चने, मूँग, धान, मक्की, उड़द, हल्दी, धनियाँ आदि समस्त खाद्य पदार्थों को कपास और नाना प्रकार की औषधियों को और इसी प्रकार देवता, मनुष्य और पशु आदि के उपयोग में आने वाली अन्य पवित्र वस्तुओं को उत्पन्न करने का नाम ‘कृषि’ यानी खेती करना है।
प्रश्न-गौरक्ष्य यानी गोपालन किसको कहते हैं?
उत्तर-नन्द आदि गोपों की भाँति गौओं को अपने घर में रखना, उनको जंगल में चराना, घर में भी यथावश्यक चारा देना, जल पिलाना तथा व्याघ्र आदि हिंसक जीवों से उनको बचाना, उनके दूध, दही, धृत आदि पदार्थों को उत्पन्न करके उन पदार्थों से लोगों की आवश्यकताओं को पूर्ण करना और उसके परिवर्तन में प्राप्त धन से अपनी गृहस्थी के सहित उन गौओं का भलीभाँति न्यायपूर्वक निर्वाह करना गौरक्ष्य यानी गोपालन है। पशुओं में गौ प्रधान है तथा मनुष्य मात्र के लिये सबसे अधिक उपकारी पशु भी गौ ही है इसलिये भगवान् ने यहाँ पशुपालनम् पद का प्रयोग न करके उसके बदले में गौरक्ष्य पद का प्रयोग किया है। अतएव यह समझना चाहिये कि मनुष्य के उपयोगी भैंस, ऊँट, घोड़े और हाथी आदि अन्यान्य पशुओं का पालन करना भी वैश्यों का कर्म है, अवश्य ही गोपालन उन सबकी अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है।
प्रश्न-वाणिज्य यानी क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार क्या है?
उत्तर-मनुष्यों के और देवता, पशु, पक्षी आदि अन्य समस्त प्राणियों के उपयोग में आने वाली समस्त पवित्र वस्तुओं को धर्मानुकूल खरीदना और बेचना, तथा आवश्यकतानुसार उनको एक स्थान से दूसरे स्थान में पहुँचाकर लोगों की आवश्यकताओं को पूर्ण करना वाणिज्य यानी क्रय-विक्रय रूप व्यवहार है। वाणिज्य करते समय वस्तुओं के खरीदने-बेचने में तौल-नाप और गिनती आदि से कम दे देना या अधिक ले लेना, वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी वस्तु मिलाकर अच्छी के बदले खराब दे देना या खराब के बदले अच्छी से लेना नफा, आढ़त देना, इसी तरह किसी भी व्यापार में झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती का या अन्य किसी प्रकार के अन्याय का प्रयोग करके दूसरों के सत्व को हड़प लेना ये सब वाणिज्य के दोष हैं। इन सब दोषों से रहित जो सत्य और न्याययुक्त पवित्र वस्तुओं का खरीदना और बेचना है, वही क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार है। तुलाधर ने इस व्यवहार से ही सिद्धि प्राप्त की थी।
प्रश्न-ये वैश्यों के स्वाभाविक कर्म है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह दिखलाया गया है कि वैश्य के स्वभाव में तमो मिश्रित रजोगुण प्रधान होता है, इस कारण उसकी उपर्युक्त कर्मों में स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है। उसका स्वभाव उपर्युक्त कर्मों के अनुकूल होता है, अतएव इनके करने में उसे किसी प्रकार की कठिनता नहीं मालूम होती।
प्रश्न-मनु स्मृति में तो उपर्युक्त कर्मों के सिवा यज्ञ, अध्ययन और दान तथा ब्याज लेना ये चार कर्म वैश्य के लिये अधिक बतलाये गये हैं। यहाँ उनका वर्णन क्यों नहीं किया गया
उत्तर-यहाँ वैश्य के स्वभाव से विशेष सम्बन्ध रखने वाले कर्मों का वर्णन है, यज्ञादि शुभकर्म द्विज मात्र के कर्म हैं, अतः उनको उसके स्वाभाविक कर्मों में नहीं बतलाया है और ब्याज लेना वैश्य के कर्मों में अन्य कर्मों की अपेक्षा नीचा माना गया है, इस कारण उसकी भी स्वाभाविक कर्मों में गणना नहीं की गयी है। इनके सिवा शम-दमादि और भी जो मुक्ति के साधन हैं उसमें सबका अधिकार होने के कारण वे वैश्य के स्वधर्म से अलग नहीं हैं किन्तु उनमें वैश्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती, इस कारण उसके स्वाभाविक कर्मों में उनकी गणना नहीं की गयी है।-क्रमशः (हिफी)