सभी प्राणियों के हृदय में है ईश्वर
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-28)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। 61।।
प्रश्न-यहाँ शरीर को यन्त्र का रूपक देने का क्या अभिप्राय है और ईश्वर को समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित बतलाने का क्या भाव है?
उत्तर-यहाँ शरीर को यन्त्र का रूपक देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जैसे रेलगाड़ी आदि किन्हीं यन्त्रों पर बैठा हुआ मनुष्य स्वयं नहीं चलता, तो भी रेलगाड़ी आदि यन्त्र के चलने से उसका चलना हो जाता है। उसी प्रकार यद्यपि आत्मा निश्चल है, उसका किसी भी क्रिया से वास्तव में कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, तो भी अनादि सिद्ध अज्ञान के कारण उसका शरीर से सम्बन्ध होने से उस शरीर की क्रिया उसकी क्रिया मानी जाती है।
ईश्वर को सब भूतों के हृदय में स्थित बतलाकर यह भाव दिखलाया है कि यन्त्र को चलाने वाला प्रेरक जैसे स्वयं भी उस यन्त्र में रहता है, उसी प्रकार ईश्वर भी समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में स्थित है और उनके हृदय में स्थित रहते हुए ही उनके कर्मानुसार उनको भ्रमण कराते रहते हैं। इसलिये ईश्वर के किसी भी विधान में जरा भी भूल नहीं हो सकती, क्योंकि वे सर्वशक्तिमान, सर्व व्यापी, सर्वज्ञ परमेश्वर उनके समस्त कर्मों को भलीभाँति जानते हैं।
प्रश्न-‘यन्त्रारूढानि’ विशेषण सहित ‘भूतानि’ पद किनका वाचक है और भगवान् का उनको अपनी माया से भ्रमण कराना क्या है?
उत्तर-शरीर रूपी यन्त्र में स्थित समस्त प्राणियों का वाचक, यहाँ ‘यन्त्रारूढानि’ विशेषण के सहित ‘भूतानि’ पद है तथा उन सबको उनके पूर्वार्जित कर्म-संस्कारों के अनुसार फल भुगताने के लिये बार-बार नाना योनियों में उत्पन्न करना तथा भिन्न-भिन्न पदार्थों से, क्रियाओं से और प्राणियों से उनका संयोग-वियोग कराना और उनके स्वभाव (प्रकृति) के अनुसार उन्हें पुनः चेष्टा करने में लगाना-यही भगवान् का उन प्राणियों को अपनी माया द्वारा भ्रमण कराना है।
प्रश्न-कर्म करने में और न करने में मनुष्य स्वतन्त्र है या परतन्त्र है? यदि परतन्त्र है तो किस रूप में तथा किसके परतन्त्र है-प्रकृति के या स्वभाव के अथवा ईश्वर? क्योंकि कहीं तो मनुष्य का कर्मों के अधिकार बतलाकर उसे स्वतन्त्र, कहीं प्रकृति के अधीन और कहीं ईश्वर के अधीन बतलाया है। इस अध्याय में भी उनसठवें और साठवें श्लोक में प्रकृति के और स्वभाव के अधीन बतलाया है तथा इस श्लोक में ईश्वर के अधीन बतलाया है, इसलिये इसका स्पष्टीकरण होना चाहिए?
उत्तर-कर्म करने और न करने में मनुष्य परतन्त्र है, इसीलिये यह कहा गया है कि कोई भी प्राणी क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता। मनुष्य का जो कर्म करने में अधिकार बतलाया गया है, उसका अभिप्राय भी उसको स्वतन्त्र बतलाना नहीं है, बल्कि परतन्त्र बतलाना ही है क्योंकि उससे कर्मों के त्याग में अशक्यता सूचित की गयी है। अब रह गया यह प्रश्न कि मनुष्य किसके अधीन होकर कार्य करता है, तो इसके सम्बन्ध में यह बात है कि मनुष्य को प्रकृति के अधीन बतलाना, स्वभाव के अधीन बतलाना और ईश्वर के अधीन बतलाना-ये तीनों बातें एक ही हैं। क्योंकि स्वभाव और प्रकृति तो पर्यायवाची शब्द हैं और ईश्वर स्वयं निरपेक्ष भाव से अर्थात् सर्वथा निर्लिप्त रहते हुए ही उन जीवों की प्रकृति के अनुरूप अपनी माया शक्ति के द्वारा उनको कर्मों में नियुक्त करते हैं, इसलिये ईश्वर के अधीन बतलाना है। दूसरे पक्ष में ईश्वर ही प्रकृति के स्वामी और पे्ररक हैं, इस कारण प्रकृति के अधीन बतलाना भी ईश्वर के ही अधीन बतलाना है।
रही यह बात कि यदि मनुष्य सर्वथा ही परतन्त्र है तो फिर उसके उद्धार होने का क्या उपाय है और उसके लिये कर्तव्य अकर्तव्य का विधान करने वाले शास्त्रों की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर यह है कि कर्तव्य-अकर्तव्य का विधान करने वाले शास्त्र मनुष्य को उसके स्वाभाविक कर्मों से हटाने के लिये या उससे स्वभाव विरुद्ध कर्म करवाने के लिये नहीं हैं, किन्तु उन कर्मों के करने में जो राग-द्वेष के वश में होकर वह अन्याय कर लेता है-उस अन्याय का त्याग कराकर उसे न्यायपूर्वक कर्तव्य कर्मों में लगाने के लिये है। इसलिये मनुष्य कर्म करने में स्वभाव के परतन्त्र होते हुए भी उस स्वभाव का सुधार करने में परतन्त्र नहीं है। अतएव यदि वह शास्त्र और महापुरुषों के उपदेश से सचेत होकर प्रकृति के प्रेरक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की शरण ग्रहण कर ले और राग-द्वेषादि विकारों का त्याग करके शाó विधि के अनुसार न्यायपूर्वक अपने स्वाभाविक कर्मों को निष्काम भाव से करता हुआ अपना जीवन बिताने लगे तो उसका उद्धार हो सकता है।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्ंित स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।। 62।।
प्रश्न-‘तम्’ पद किसका वाचक है और सब प्रकार से उसकी शरण में जाना क्या है?
उत्तर-जिन सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सबके, प्रेरक, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापी, परमेश्वर को पूर्व श्लोक में समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित बतलाया गया है, उन्हीं का वाचक यहाँ ‘तम्’ पद है और अपने मन, बुद्धि इन्द्रियों को, प्राणांे को और समस्त धन, जन आदि को उनके समर्पण करके उन्हीं पर निर्भर हो जाना सब प्रकार से उस परमेश्वर की शरण में चले जाना है।
अर्थात् भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व और स्वरूप का श्रद्धापूर्वक निश्चय करे भगवान् को ही परम प्राप्य, परम गति, परम आश्रय और सर्वस्व समझना तथा उनको अपना स्वामी, भर्ता, प्रेरक, रक्षक और परम हितैषी समझकर सब प्रकार से उन पर निर्भर और निर्भय हो जाना एवं सब कुछ भगवान् का समझकर और भगवान् को सर्वव्यापी जानकर समस्त कर्मों में ममता, अभिमान, आसक्ति और कामना का त्याग करके भगवान् की आज्ञानुसार अपने कर्मों द्वारा समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित परमेश्वर की सेवा करना, जो कुछ भी दुःख-सुख के भोग प्राप्त हों, उनको भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार समझकर सदा ही सन्तुष्ट रहना, भगवान् के किसी भी विधान में कभी किंचित मात्र भी असन्तुष्ट न होना, मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग करके भगवान् के सिवा किसी भी सांसारिक वस्तु में ममता और आसक्ति न रखना, अतिशय श्रद्धा और अनन्य प्रेमपूर्वक भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव, लीला, तत्त्व और स्वरूप का नित्य-निरन्तर श्रवण, चिन्तन और कथन करते रहना-ये सभी भाव तथा क्रियाएँ सब प्रकार से परमेश्वर की शरण ग्रहण करने के अन्तर्गत हैं।-क्रमशः (हिफी)