
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-49
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
संसार का मूल कारण हैं भगवान
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।। 8।।
मैं संसार मात्र का प्रभव (मूल कारण) हूँ और मुझसे सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात् चेष्टा कर रहा है-ऐसा मानकर मुझमें ही श्रद्धा-प्रेम रखते हुए बुद्धिमान भक्त मेरा ही भजन करते हैं-सब प्रकार से मेरे ही शरण होते हैं।
व्याख्या-पदार्थ और व्यक्ति भी भगवान् से होते हैं (अहं सर्वस्य प्रभवः) और क्रियाएँ भी भगवान् से ही होती हैं। (मत्तः सर्वं प्रवर्तते)। परन्तु जीव पदार्थों, व्यक्तियों और क्रियाओं से सम्बन्ध जोड़कर, उनको अपना मानकर, उनका भोक्ता और कत्र्ता बनकर बन्धन में पड़ जाता है। जो मनुष्य पदार्थों, व्यक्तियों और क्रियाओं से सम्बन्ध न जोड़कर भगवान् के महत्त्व (प्रभाव) को मान लेते हैं, वे संसार में न फँसकर भगवान् के ही भजन में लग जाते हैं।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।। 9।।
मुझमें चित्त वाले तथा मुझमें प्राणों को अर्पण करने वाले (भक्त जन) आपस में (मेरे गुण, प्रभाव आदि को) जानते हुए और उनका कथन करते हुए नित्य-निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं और मुझमें ही प्रेम करते हैं।
व्याख्या-भक्तों का चित्त भगवान् को छोड़कर कहीं जाता ही नहीं। उनकी दृष्टि में जब एक भगवान् के सिवाय और कुछ है ही नहीं तो फिर उनका चित्त कहाँ जाय, कैसे जाय और क्यों जाय? वे भगवान् के गुण, प्रभाव आदि की विलक्षण बातों का ज्ञान कराते हैं, भगवान् की लीला-कथा का वर्णन करते हैं और कोई सुनने वाला आ जाय तो प्रेमपूर्वक सुनते हैं। न तो कहने वाला तृप्त होता है, न सुनने वाला। तृप्ति नहीं होती-यह वियोग है और नित्य नया रस मिलता है-यह योग है। इस वियोग और योग के कारण प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धि योगं तं येन मामुपयान्ति ते।। 10।।
उन नित्य-निरन्तर मुझ में लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को मैं वह बुद्धि योग देता हूँ, जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है।
व्याख्या-भगवन्निष्ठ भक्त भगवान् को छोड़कर न तो समता चाहते हैं, न तत्त्वज्ञान चाहते हैं, न मोक्ष चाहते हैं तथा न और ही कुछ चाहते हैं। उनका तो एक ही काम है-नित्य-निरन्तर भगवान् में लगे रहना। इसलिए उन भक्तों की सारी जिम्मेदारी भगवान् पर आ जाती है। उन भक्तों में कोई कमी न रह जाय, इस दृष्टि से भगवान् अपनी तरफ से उनको समता (कर्मयोग) और तत्त्वज्ञान (ज्ञान योग)-दोनों दे देते हैं (गीता 10/11)।
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।। 11।।
उन भक्तों पर कृपा करने के लिये ही उनके स्वरूप (होने पन) में रहने वाला मैं उनके अज्ञान जन्य अन्धकार को देदीप्यमान ज्ञान रूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ।
व्याख्या-यद्यपि कर्मयोग तथा ज्ञान योग-दोनों साधन हैं और भक्ति योग साध्य है, तथापि भगवान् अपने भक्तों को कर्मयोग भी दे देते हैं-‘ददामि बुद्धियोग तम्’ और ज्ञान योग भी दे देते हैं-‘ज्ञानदीपेन भास्वता’। अपरा और परा-दोनों प्रकृतियाँ भगवान् की ही हैं। इसलिए भगवान् कृपा करके अपने भक्त को अपरा की प्रधानता से होने वाला कर्मयोग और परा की प्रधानता से होने वाला ज्ञानयोग-दोनों प्रदान करते हैं। अतः भक्त को कर्मयोग का प्राणणीय तत्त्व ‘निष्कामभाव’ और ज्ञान योग का प्राणणीय तत्त्व ‘स्वरूप बोध’-दोनों ही सुगमता से प्राप्त हो जाते हैं। कर्मयोग प्राप्त होने पर भक्त के द्वारा संसार का उपकार होता है और ज्ञान योग प्राप्त होने पर भक्त का देहाभिमान दूर हो जाता है।
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।। 12।।
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।। 13।।
अर्जुन बोले-परम ब्रह्म, परम धाम और महान् पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदि-देव, अजन्मा और सर्वव्यापक हैं-ऐसा आपको सब-के-सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।
व्याख्या-निर्गुण-निराकार के लिए परं धाम और सगुण-साकार के लिए ‘पवित्रं परमं भवान्’ पदों का प्रयोग करके अर्जुन भगवान् से मानो यह कहते हैं कि समग्र परमात्मा आप ही हैं।
सर्वमेददृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।। 14।।
हे केशव! मुझसे आप जो कुछ कह रहे हैं, यह सब मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्! आपके प्रकट होने को न तो देवता जानते हैं और न दानव ही जानते हैं।
व्याख्या-भगवान् को अपनी शक्ति से कोई नहीं जान सकता, प्रत्युत भगवान् की कृपा से ही जान सकता है। भगवान् के यहाँ बुद्धि के चमत्कार अथवा विविध प्रकार की सिद्धियाँ नहीं चल सकतीं। बड़े-से-बड़े भौतिक आविष्कार से कोई भगवान् को नहीं जान सकता। देवताओं की दिव्य शक्ति तथा दानवों की माया शक्ति कितनी ही विलक्षण होने पर भी भगवान् के सामने कुण्ठित हो जाती है। -क्रमशः (हिफी)