
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-64
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या
की है। -प्रधान सम्पादक
भगवान ने बताये ज्ञान के 20 साधन
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैमात्मविनिग्रहः।। 7।।
अपने में श्रेष्ठता का भाव न होना, दिखावटीपन न होना, अहिंसा, क्षमता, सरलता, गुरू की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, स्थिरता और मन का वश में होना।
व्याख्या-अब भगवान् क्षेत्र के साथ माने हुए सम्बन्ध (तादात्म्य़) को तोड़ने के लिये ज्ञान के साधन बताते हैं।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनअहंकार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।। 8।।
इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य का होना, अहंकार का भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था का तथा व्याधियों में दुःखरूप दोषों को बार-बार देखना।
व्याख्या-एक ‘दुःख का भोग’ होता है और एक ‘दुःख का प्रभाव’ होता है। दुःख से दुःखी होना और सुख की इच्छा करना ‘दुःख का भोग’ है। दुःख के कारण की खोज करके उसको मिटाना दुःख का प्रभाव है। यहाँ दुःख के प्रभाव को ‘दुःखदोषानुदर्शनम्’ पद से कहा गया है।
दुःख का भोग करने से अर्थात् दुःखी होने से विवेक लुप्त हो जाता है परन्तु दुःख का प्रभाव होने से विवेक लुप्त नहीं होता, प्रत्युत मनुष्य विवेक-दृष्टि से दुःख के कारण की खोज करता है और खोज करके उसे मिटाता है। सुख की इच्छा ही सम्पूर्ण दुःखों का कारण है। कारण के मिटने पर कार्य अपने-आप मिट जाता है। अतः सुख की इच्छा मिटने पर सम्पूर्ण दुःखों का नाश हो जाता है।
असक्तिरनभिष्वंगः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।। 9।।
आसक्ति रहित होना, पुत्र, स्त्री, घर आदि में एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में चित्त का नित्य सम रहना।
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्मरतिर्जनसंसदि ।। 10।।
मुझ में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और जनसमुदाय में प्रीति का न होना।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एजज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।। 11।।
अध्यात्म ज्ञान में नित्य-निरन्तर रहना, तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा को सब जगह देखना-यह (पूर्वोक्त बीस साधन समुदाय) तो ज्ञान है और जो इसके विपरीत है, वह अज्ञान है-ऐसा कहा गया है।
व्याख्या-क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विभाग का ज्ञान कराने वाले होने से इन बीस साधनों को भी ‘ज्ञान’ नाम से कहा गया है। इससे जो विपरीत है, वह ‘अज्ञान’ है। साधन न करने से मुनष्य ज्ञान की बातें तो सीख लेता है, पर अनुभव नहीं कर सकता। अतः साधन न करने से अज्ञान (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ में एकता का भाव) रहता है और अज्ञान के रहते हुए अगर कोई सीखकर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग का विवेचन करता है तो वह वास्तव में अपने देहाभिमान को ही पुष्ट करता है परन्तु जो ये साधन करता है, उसे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विभाग का अनुभ्व हो जाता है।
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।। 12।।
जो ज्ञेय (पूर्वोक्त ज्ञान से जानने योग्य) है, उस परमात्मतत्त्व को मैं अच्छी तरह से कहूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है। वह ज्ञेय-तत्त्व अनादि वाला और परम ब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है।
व्याख्या-गीता में एक ही समग्र परमात्मा का तीन प्रकार से वर्णन
हुआ है-
(1) परमात्मा सत् भी हैं और असत् भी हैं-‘सदसच्चाहम्’ (9/19)।
(2) परमात्मा सत् भी हैं, असत् भी हैं और सत्-असत् से परे भी हैं-‘सदसत्तत्परं यत्’ (19/37)।
(3) परमात्मा न सत् हैं और न असत् ही हैं-‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (13/12)।
इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक अनिर्वचनीय परमात्मतत्त्व के सिवाय कुछ नहीं है। वह मन, बुद्धि, वाणी से सर्वथा अतीत है, इसलिये उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, पर उसे प्राप्त किया जा सकता है। परमात्मतत्त्व को असत् की अपेक्षा से सत्, जड़ की अपेक्षा से चेतन, विकार की अपेक्षा से ‘है’, गुणों की अपेक्षा से सगुण-निर्गुण, आकार की अपेक्षा से साकार-निराकार, अनेक की अपेक्षा से एक, प्रकाश्य की अपेक्षा से प्रकाशक, नाशवान् की अपेक्षा से अविनाशी आदि कह देते हैं, पर वास्तव में उस तत्त्व में कोई शब्द लागू होता ही नहीं! कारण कि सभी शब्दों का प्रयोग सापेक्षता से और प्रकृति से सम्बन्ध से होता है, पर तत्त्व निरपेक्ष और प्रकृति से अतीत है। देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, गुण आदि को लेकर ही संज्ञा बनती है। परमात्मा में देश, काल आदि हैं ही नहीं, फिर उनकी संज्ञा कैसी? इसलिये यहाँ आया है कि उस तत्त्व को सत् अथवा असत् कुछ भी कहा नहीं जा सकता।
परमात्मतत्त्व का आदि (आरम्भ) नहीं है। जो सदा से है, उसका आदि कैसे? सब अपर हैं, वह पर है। आदि-अनादि, पर-अपर आदि का भेद प्रकृति के सम्बन्ध से है। वह तत्त्व तो आदि-अनादि, पर-अपर, सत्-असत् आदि से विलक्षण है। इस प्रकार भगवान् ने ज्ञेयतत्त्व का वर्णन करने की जो बात कही है, वह वास्तव में वर्णन नहीं है, प्रत्युत लक्षक अर्थात् लक्ष्य की तरफ दृष्टि कराने वाली है। इसका तात्पर्य ज्ञेय-तत्त्व का लक्ष्य कराने में हैं, कोरा वर्णन करने में नहीं। इसलिये साधक को भी लक्षक की दृष्टि से ही विचार करना चाहिये, केवल सीखने की दृष्टि से नहीं।-क्रमशः (हिफी)