धर्म-अध्यात्म

भगवान के भक्त का पतन नहीं होता

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-47

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-47
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक

भगवान के भक्त का पतन नहीं होता

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।। 30।।
अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।
व्याख्या-ज्ञान योग और कर्मयोग में बुद्धि की प्रधानता रहती है, इसलिये उनमें पहले बुद्धि में समता आती है-‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धि सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु’ (गीता 2/39)। बुद्धि स्थिर होने से मनुष्य ‘स्थित प्रज्ञ’ कहलाता है (गीता 2/54-68)। ज्ञान योग और कर्म योग में बुद्धि व्यवस्थित (एक निश्चय वाली) होती है-‘बुद्धध्या विशुद्धया युक्तः’ (गीता 18/51), व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह (2/49), ‘व्यवसायात्मिका बुद्धि (2/44)। बुद्धि व्यवस्थित होने से अहम् का सर्वथा नाश नहीं होता क्योंकि अहम् बुद्धि से परे है-‘भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं…(गीता 7/4) अतः मुक्त होने पर भी अहम् की सूक्ष्म गंध रह जाती है, जो बन्धक कारक तो नहीं होती, पर दाशर्निक मतभेद पैदा करने वाली होती है। परन्तु भक्तियोग में स्वयं (भगवान के अंश) की प्रधानता रहती है, इसलिये भक्त स्वयं अहम् सर्वथा नहीं रहता, क्योंकि स्वयं अहम से परे है। मन-बुद्धि में बैठी हुई बात की विस्मृति हो सकती है, पर स्वयं में बैठी हुई बात की विस्मृति कभी नहीं हो सकती। स्वयं में जो बात होती है, वह अखण्ड रहती है। इसलिए मैं भगवान का ही हूँ और भगवान् ही मेरे अपने हैं-यह स्वीकृति स्वयं में होती है मन-बुद्धि में नहीं। कारण यह है कि मूल में भगवान् का ही अंश होने से स्वयं भगवान् से अभिन्न है। भगवान् के सिवाय दूसरे के साथ अपना सम्बन्ध मानना ही भूल है, मोह है, बन्धन है।
जब तक मनुष्य को अपने में कुछ बल, योग्यता, विशेषता दीखती है, तब तक वह ‘अनन्य भक्त’ नहीं होता। अनन्य भक्त तभी होती है, जब एक भगवान के सिवाय अन्य किसी का आश्रय नहीं रहता।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त प्रणश्यति।। 31।।
वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहने वाली शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन! मेरे भक्त का पतन नहीं होता-ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो।
व्याख्या-जब मनुष्य सांसारिक दुःखों से घबरा जाता है और उन्हें मिटाने में अपनी निर्बलता का अनुभव करता है, पर साथ-ही-साथ उसमें यह विश्वास रहता है कि सर्वसमर्थ भगवान् की कृपा से मेरी यह निर्बलता दूर हो सकती है और मैं सांसारिक दुःखों से छूट सकता हूँ, तब वह तत्काल भक्त हो जाता है।
भक्त का पतन नहीं होता, क्योंकि उसमें अपने बल का आश्रय नहीं होता, प्रत्युत भगवान् के ही बल का आश्रय होता है। वह साधन निष्ठ न होकर भगवन्निष्ठ होता है। इसलिये एक बार भक्त होने के बाद फिर उसका पतन नहीं होता अर्थात् वह पुनः दुराचारी नहीं बनता।
भगवान् अर्जुन को प्रतिज्ञा करने के लिये कहते हैं क्योंकि भक्त की प्रतिज्ञा भगवान् भी टाल नहीं सकते। भक्ति भगवान् की कमजोरी है।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।। 32।।
हे पृथानन्दन्! जो भी पाप योनि वाले हों तथा जो भी स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र हों, वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर निःसन्देह परम गति को प्राप्त हो जाते हंै।
व्याख्या-पूर्व जन्म के पापी की अपेक्षा भी वर्तमान जन्म का पापी विशेष दोषी होता है। इसलिए पहले वर्तमान जन्म के पापी ़(सुदुराचारी) की बात कहकर अब इस श्लोक में ‘पापयोनयः’ पद से पूर्व जन्म के पापी की बात कहते हैं।
जिसमें दूसरे का आश्रय नहीं हो, ऐसे अनन्य आश्रय को यहाँ ‘व्यपाश्रय’ अर्थात् विशेष आश्रय कहा गया है।
किं पुनब्र्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।। 33।।
जो पवित्र आचरण करने वाले ब्राह्मण और ऋषि स्वरूप क्षत्रिय भगवान् के भक्त हों, ़(वे परम गति को प्राप्त हो जायँ) इसमें तो कहना ही क्या है! इसलिये इस अनित्य और सुख रहित शरीर को प्राप्त करके तू मेरा भजन कर।
व्याख्या-तीसवें से तैंतीसवें श्लोक तक भगवान् ने भक्ति के तथा भगवत्प्राप्ति के सात अधिकारियों के नाम लिये हैं-दुराचारी, पापयोनि, स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र, ब्राह्मण और क्षत्रिय। इन सातों से बाहर कोई भी प्राणी नहीं है। तात्पर्य है कि मनुष्य का कैसा ही जन्म हो, कैसी ही जाति हो और पूर्वजन्म के तथा इस जनम के कितने ही पाप हों, पर वे सब-के-सब भगवान् और उनकी भक्ति के अधिकारी हैं। कारण कि जीव मात्र भगवान् का ही अंश होने से भगवान् की तरफ चलने में स्वतन्त्र है। भगवान् की ओर से किसी के लिये भी मनाही नहीं है।
अनित्य और सुख रहित इस शरीर को पाकर अर्थात् हम जीते रहें और सुख भोगते रहें-ऐसी कामना को छोड़कर भगवान् का भजन करना चाहिये। कारण कि संसार में सुख है ही नहीं, केवल सुख का भ्रम है। ऐसे ही जीने का भी भ्रम है। हम जी नहीं रहे हैं, प्रत्युत प्रतिक्षण मर रहे हैं।
मन्मना भव म˜क्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।। 34।।
तू मेरा भक्त हो जा, मुझमें मन वाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा और मुझे नमस्कार कर। इस प्रकार अपने-आपको मेरे साथ लगाकर मेरे परायण हुआ तू मुझे ही प्राप्त होगा।
व्याख्या-इस श्लोक में अहंता-परिवर्तन की बात मुख्य है। भक्त ‘मैं केवल भगवान् का हूँ-इस प्रकार अपनी अहंता को बदलता है और स्वयं का सम्बन्ध भगवान् से जोड़ता है। इसलिये उसे संसार के सम्बन्ध का त्याग करना नहीं पड़ता, प्रत्युत वह स्वतः छूट जाता है। कारण कि वर्ण, आश्रम, जाति, योग्यता, अधिकार, कर्म, गुण आदि सब आगन्तुक हैं, पर स्वयं के साथ भगवान् का सम्बन्ध आगन्तुक नहीं है, प्रत्युत अनादि, नित्य और स्वतः सिद्ध है।
ऊँ तत्सदिति श्रीम˜गवद्गीता सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्यायः।। 9।।
-क्रमशः (हिफी)

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