
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम अपने भाइयों व हनुमान जी को संत-असंतों के लक्षण और ज्ञान-भक्ति के बारे में बता चुके हैं। अब अयोध्या वासियों से उन्होंने कहा कि मनुष्य के शरीर के समान कोई उत्तम शरीर नहीं है क्योंकि ईश्वर इसे बिरले ही दया करके देते हैं। इसलिए इस लोक और परलोक में यदि कोई सुख चाहता है तो भक्ति का मार्ग ही सुलभ और सुखदायक है। प्रभु ने बताया कि ज्ञान बहुत दुर्लभ है और उसको प्राप्त करने में अनेक विघ्न आते हैं और ज्ञानी भी यदि भक्ति नहीं करता तो वह भगवान को अच्छा नहीं लगता। इसके अलावा भगवान ने यह भी कहा कि शंकर जी की पूजा किये बिना मेरी भक्ति कोई नहीं पाता है। यही बात इस प्रसंग में बतायी गयी है। अभी तो प्रभु श्रीराम मनुष्य के शरीर का महत्व बता रहे हैं-
नर तनु भव बारिधि कहुं बेरो, सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।
करनधार सदगुर दृढ़ नावा, दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ।
प्रभु श्रीराम कहते हैं कि यह मनुष्य का शरीर भव सागर से तरने के लिए जहाज (बेड़ा) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है। सद्गुरू इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं। इस प्रकार कठिनता से मिलने वाले
साधन सुलभ होकर भगवत कृपा से सहज ही उसे प्राप्त हो गये हैं। प्रभु कहते हैं कि जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है।
जौं परलोक इहां सुख चहहू, सुनि मम बचन हृदयं दृढ़ गहहू।
सुलभ सुखद मारग यह भाई, भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका, साधन कठिन न मन कहुं टेका।
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ, भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ।
भक्ति सुतंत्र सकल गुन खानी, बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता, सत संगति संसृति कर अंता।
पुन्य एक जग महुं नहिं दूजा, मन क्रम बचन विप्रपद पूजा।
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा, जो तजि कपट करइ द्विज सेवा।
औरउ एक गुपुत मत सबहिं कहउं कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।
प्रभु श्रीराम कहते हैं कि यदि इस लोक और परलोक में सुख चाहते हो तो मेरे बचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़ता से पकड़ रखो। हे भाई, यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है। पुराणों और वेदों ने इसे गाया है। इसके अलावा ज्ञान का मार्ग अगम (दुर्गम) है और उसकी प्राप्ति में अनेक वाधाएं हैं। उसका साधन कठिन है और उसमें मन के लिए कोई
आधार नहीं है। बहुत कष्ट करने पर कोई उसे पा भी लेता है तो वह भी भक्ति रहित होने से मुझको प्रिय नहीं होता, जबकि भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है लेकिन संतों के संग के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही जन्म-मरण के चक्र का अंत करती है। प्रभु ने बताया कि जगत में पुण्य एक ही है उसके समान दूसरा नहीं-मन, कर्म और बचन से ब्राह्मणों के चरणों की पूजा करना, जो कपट का त्याग करके ब्राह्मणों की सेवा करता है, उस पर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं। प्रभु श्रीराम ने कहा कि और भी एक गुप्त मत है, मैं उसे सबसे हाथ जोड़कर कहता हूं कि शंकर जी के भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता।
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा, जोग न मख जप तप उपवासा।
सरल सुभाव न मन कुटिलाई, जथा लाभ संतोष सदाई।
मोर दास कहाइ नर आसा, करइ तौ कहहु कहा विस्वासा।
बहुत कहउं का कथा बढ़ाई, एहि आचरन वस्य मैं भाई।
बैर न विग्रह आस न त्रासा, सुखमय ताहि सदा सब आसा।
अनारंभ अनिकेत अमानी, अनध अरोष दच्छ बिग्यानी।
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा, तृन सम विषय स्वर्ग अपवर्गा।
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई, दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।
मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह।
प्रभु श्रीराम कहते हैं कि कहो तो, भक्ति मार्ग में कौन सा परिश्रम है। इसमें न योग की जरूरत है, न यज्ञ, न जप, तप और उपवास की। यहां इतना ही आवश्यक है कि सरल स्वभाव हो, मन में कुटिलता नहीं और जो कुछ मिले उसी में सदा संतोष रखो। मेरा दास कहलाकर यदि कोई मनुष्य किसी प्रकार की आशा रखता है तो तुम्हीं कहो फिर उसका क्या विश्वास है अर्थात उसकी मुझ पर आस्था बहुत कमजोर है। इस प्रकार बहुत बात बढ़ाकर क्या कहूं हे भाइयो, मैं तो इसी प्रकार के आचरण के वश में रहता हूं। न किसी से बैर करे न किसी से लड़ाई, झगड़ा करे, न आशा रखे और न भय ही करे उसके लिए सभी दिशाएं सदा ही सुखदायी हैं। जो कोई भी आरंभ अर्थात फल की इच्छा से कर्म नहीं करता, जिसका कोई अपना घर नहीं है अर्थात घर में मोह नहीं है, जो मानहीन, पापहीन और क्रोधहीन है जो भक्ति करने में निपुण और विज्ञानवान है। संतजनों के संग से जिसे सदैव प्रेम है, जिसके मन में सब विषय, यहां तक कि स्वर्ग और मुक्ति तक भक्ति के सामने तिनके के समान है। इस प्रकार जो भक्ति के पक्ष में हठ करता है पर दूसरे के मत का खंडन करने की मूर्खता नहीं करता तथा जिसने सब कुतर्कों को दूर कर दिया है जो मेरे गुण समूहों के और मेरे नाम के परायण हैं एवं ममता, मद और मोह से रहित है, उसका सुख वही जानता है, जो परमात्मा स्वरूप अर्थात परमानंद राशि को पा जाता है।
सुनत सुधा सम बचन राम के, गहे सबनि पद कृपा धाम के।
जननि जनक गुर बंधु हमारे, कृपा निधान प्रान ते प्यारे।
तनु धनु धाम राम हितकारी, सब विधि तुम्ह प्रनतारित हारी।
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ, मातु पिता स्वारथ रत ओऊ।
हेतु रहित जग जुग उपकारी, तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।
स्वारथ मीत सकल जग माहीं, सपनेहुं प्रभु परमारथ नाहीं।
अमृत के समान प्रभु श्रीराम के बचन सुनकर राजसभा में मौजूद लोगों ने कृपाधाम प्रभु के चरण पकड़ लिये और कहा, हे कृपा निधान, आप हमारे माता-पिता गुरू, भाई सब कुछ हैं और प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। हे शरणागत के दुख हरने वाले रामजी, आप ही हमारे शरीर, धन, घर द्वार और सभी प्रकार से हित करने वाले हैं। ऐसी शिक्षा आपके अतिरिक्त कोई नहीं दे सकता। माता-पिता हितैषी हैं और शिक्षा भी देते हैं लेकिन वे भी स्वार्थ परायण हैं इसलिए ऐसी परम हितकारी शिक्षा नहीं देते। हे असुरों के शत्रु, जगत में बिना
किसी स्वार्थ के उपकार करने वाले तो दो ही हैं-एक आप और दूसरे आपके सेवक हे प्रभो, जगत में भी स्वार्थ के मित्र हैं उनमें स्वप्न में भी परमार्थ भाव नहीं है। -क्रमशः (हिफी)