अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना

 

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

प्रभु श्रीराम सुवेल पर्वत पर सेना के साथ डेरा डाले हैं। संध्या के समय चन्द्रमा को देखकर हनुमान, सुग्रीव आदि से पूछते हैं कि इसमें जो कालिमा है उसका कारण क्या है? सभी लोग अपने-अपने तरीके से उत्तर देते हैं, तभी प्रभु श्रीराम दक्षिण की तरफ देखते हैं तो लगता है काले बादल छाए हैं और बिजली चमक रही है। प्रभु कहते हैं कि वारिश होने वाली है तो विभीषण बताते हैं कि यह लंका में रंगशाला बनी है जहां रावण और मंदोदरी मौजूद हैं। रावण का मुकुट ही बादल जैसा लग रहा है। प्रभु श्रीराम समझ गये कि रावण का अभिमान अभी खत्म नहीं हुआ। प्रभु श्रीराम ने एक अदृश्य वाण चलाया जिसने रावण के मुकुट और मंदोदरी के कर्णफूल काटकर गिरा दिये। बाण पुनः तरकस में आ गया। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो श्रीराम सुवेल पर्वत पर सेना के साथ बैठे हैं-
इहां सुबेल सैल रघुबीरा, उतरे सेन सहित अति भीरा।
सिखर एक उतंग अति देखी, परम रम्य सम सुभ्र विसेषी।
तहं तरु किसलय सुमन सुहाए, लछिमन रचि निज हाथ डसाए।
ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला, तेहि आसन आसीन कृपाला।
प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा, बाम दहिन दिसि चाप निषंगा।
दुंहुं कर कमल सुधारत बाना, कह लंकेस मंत्र लगि काना।
बड़भागी अंगद हनुमाना, चरन कमल चापत विधि नाना।
प्रभु पाछें लछिमन बीरासन, कटि निषंग करबान सरासन।
एहि विधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन।
पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मयंक।
कहत सबहिं देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक।
यहां श्री रघुबीर जी सुबेल पर्वत पर सेना के बड़े समूह के साथ उतरे हैं पर्वत का एक बहुत ऊंचा, परम रमणीय समतल और विशेष रूप से उज्जवल शिखर देखकर वहां लक्ष्मण जी ने कोमल पत्ते और सुंदर फूल अपने हाथों से सजाकर बिछा दिये। उस पर सुंदर मृग छाला बिछा दी। उसी आसन पर प्रभु श्रीराम विराजमान थे। प्रभु श्रीराम सुग्रीव की गोद में अपना सिर रखे हैं उनकी बायीं ओर धनुष और दाहिनी ओर तरकस रखा है। वे अपने दोनों कर-कमलों से वाण सुधार रहे हैं। विभीषण जी कानों से लगकर सलाह कर रहे हैं। परम भाग्यशाली अंगद और हनुमान अनेक प्रकार से प्रभु श्रीराम के चरण कमलों को दबा रहे हैं। लक्ष्मण जी कमर में तरकस कसे और हाथों में धनुष वाण लिये वीरासन की मुद्रा में प्रभु के पीछे खड़े सुशोभित हो रहे हैं। इस प्रकार कृपा, रूप (सौन्दर्य) और गुणांे के धाम श्रीराम जी विराजमान हैं। वे मनुष्य धन्य हैं जो सदा इस ध्यान में लौ लगाए रहते हैं। पूर्व दिशा की ओर देखकर, प्रभु श्रीराम जी ने चन्द्रमा को उदित होते हुए देखा, तब प्रभु सबसे कहने लगे-चन्द्रमा को तो देखो, कैसा सिंह के समान निडर है।
पूरब दिसि गिरि गुहा निवासी, परम प्रताप तेज बलरासी।
मत्त नाग तम कुंभ बिदारी, ससि केेसरी गगन बन चारी।
बिथुरे नभ मुकुताहल तारा, निसि सुंदरी केर सिंगारा।
कह प्रभु ससि महंु मेचकताई, कहहु काह निज निज मति भाई।
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई, ससि महुं प्रगट भूमि कै झांई।
मारेउ राहु ससिहि कह कोई, उर महं परी स्यामता सोई।
कोउ कह जब विधि रति मुख कीन्हा, सार भाग ससि कर हरि लीन्हा।
छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं, तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं।
प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा, अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा।
विष संजुत कर निकट पसारी, जारत बिरहवंत नर नारी।
कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास।
प्रभु श्रीराम कह रहे कि पूर्व दिशा रूपी पर्वत की गुफा में रहने वाला अत्यंत प्रताप, तेज और बल की राशि का चन्द्रमा रूपी सिंह अंधकार रूपी मतवाले हाथी के मस्तक को विदीर्ण करके आकाश रूपी वन में निर्भय विचर रहा है। आकाश में बिखरे तारे मोतियों के समान है जो रात्रि रूपी सुन्दर स्त्री के श्रृंगार हैं। प्रभु ने कहा भाइयों, चन्द्रमा में जो कालापन है, वह क्या है अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार कहिए। सुग्रीव ने कहा हे रघुनाथ जी सुनिए, चन्द्रमा में पृथ्वी की छाया दिखाई दे रही है। किसी ने कहा चन्द्रमा को राहु ने मारा था, वही चोट का काला दाग उसके हृदय पर पड़ा हुआ है कोई कहता है कि जब ब्रह्मा ने कामदेव की स्त्री रति का मुख बनाया, तब चन्द्रमा का सार भाग निकाल लिया, जिससे रति का मुख तो परम सुंदर बन गया। लेकिन चन्द्रमा के हृदय में छेद हो गया। वही छेद चन्द्रमा के हृदय में मौजूद है, जिसकी राह से आकाश की काली छाया उसमें दिखाई पड़ती है। प्रभु श्रीराम जी ने कहा कि विष चन्द्रमा का बहुत प्यारा भाई है। इसी से उसने विष को अपने हृदय में स्थान दे रखा है। विष युक्त अपनी किरणें फैलाकर चन्द्रमा बिरही नर-नारियों को जलाता रहता है। हनुमान जी ने कहा कि हे प्रभो सुनिए, चन्द्रमा आपका प्रिय दास है आपकी सुंदर, श्याम मूर्ति चन्द्रमा के हृदय में बसती है। उसी श्यामता की झलक चन्द्रमा में है।
पवन तनय के बचन सुनि बिहंसे रामु सुजान।
दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान।
देखु विभीषन दच्छिन आसा, घन घमंड दामिनी बिलासा।
मधुर-मधुर गरजइ घन घोरा, होइ वृष्टि जनि उपल कठोरा।
कहत विभीषन सुनहु कृपाला, होइ न तड़ित न बारिद माला।
लंका सिखर उपर आगारा, तहं दसकंधर देख अखारा।
छत्र मेघडंबर सिर धारी, सोइ जनु जलद घटा अति कारी।
मंदोदरी श्रवन ताटंका, सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका।
बाजहि ताल मृदंग अनूपा, सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा।
प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना, चाप चढ़ाइ बान संघाना।
छत्र मुकुट ताटंक तब हते एक ही बान।
सबके देखत महि परे, मरमु न कोऊ जान।
हनुमान जी के बचन सुनकर सुजान श्रीराम जी हंसे, फिर दक्षिण दिशा में देखकर कृपा निधान प्रभु बोले-हे विभीषण दक्षिण दिशा की तरफ देखो, बादल कैसा घुमड़ रहे हैं और बिजली चमक रही है। भयानक बादल मीठे-मीठे अर्थात हल्के स्वर से गरज रहे हैं कहीं कठोर ओलों की वर्षा न हो? विभीषण बोले, हे कृपालु सुनिए यह न तो बिजली है न बादलों की घटा। लंका की कोठी पर एक महल है। दशग्रीव रावण वहां नाच-गाने का आनंद ले रहा है। रावण के सिर पर मेघ डंबर (बादलोें के जैसा) विशाल और काला मुकुट है, वही मानो
बादलों की अत्यंत काली घटा है। मंदोदरी के कानों में जो कर्णफूल हिल रहे हैं प्रभो वही मानो बिजली चमक रही है। हे देवताओं के सम्राट सुनिए, अनुपम ताल और मृदंग बज रहे हैं, वही मधुर गर्जन (ध्वनि) है। प्रभु श्रीराम इसे रावण का अभिमान समझ कर मुस्कराए और धनुष पर एक वाण चढ़ाया। एक ही वाण से रावण के छत्र मुकुट और मंदोदरी के कर्णफूल काट कर गिरा दिये। सबके देखते वे जमीन पर आ गिरे लेकिन इसका भेद किसी की समझ में नहीं आया। -क्रमशः (हिफी)

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