
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भरत जी और राजा जनक समाज के साथ अब वापस जा रहे हैं। सभी लोग श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण से मिलते हैं। उधर, सेवक गण सामान सजो रहे हैं। श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण भी सबसे यथानुसार मिल रहे हैं। यह समय बड़ी भावुकता का है। राजा जनक और उनकी रानियों से श्रीराम लक्ष्मण और सीता मिलते हैं। इसके साथ ही उनके साथ आए विश्वामित्र, जाबालि आदि मुनियों का आशीर्वाद लेते हैं। सभी को विदाकर श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वापस अपनी पर्णकुटी में पहुंचते हैं तो हर्ष और विषाद दोनों हो रहे हैं। हर्ष इस बात का है कि भरत के मन में पूरे परिवार के प्रति स्नेह है और कैकेयी ने जो दुर्भाव जताया था, उसका कहीं नाम नहंी रह गया। उन्हें विषाद है परिजनों से बिछड़ने का।
अभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीराम और भरत की प्रीति का वर्णन कर रहे हैं-
जहां जनक गुर गति मति भोरी, प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी।
बरनत रघुवर भरत वियोगू, सुनि कठोर कवि जानिहि लोगू।
सो सकोच रसु अकथ सुबानी, समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी।
भेंटि भरतु रघुवर समुझाए, पुनि रिपुदवनु हरषि हियं लाए।
सेवक सचिव भरत रुख पाई, निज निज काज लगे सब जाई।
सुनि दारुन दुखु दुहूं समाजा, लगे चलन के साजन साजा।
प्रभु पद पदुम वंदि दोउ भाई, चले सीस धरि राम रजाई।
मुनि तापस बनदेव निहोरी, सब सनमानि बहोरि बहोरी।
लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि।
चले सप्रेम असीस सुनि, सकल सुमंगल मूरि।
गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीराम और भरत की प्रीति के बारे में कहते हैं कि जहां जनक जी और गुरु वशिष्ठ जी की बुद्धि की गति कुण्ठित हो गयी, उस दिव्य प्रेम को प्राकृत (लौकिक) कहने में बड़ा दोष है। श्री रामचन्द्र जी और भरत जी के वियोग का वर्णन करते सुनकर लोग कवि को कठोर हृदय समझेंगे। वह संकोच-रस अकथनीय है, अतएव कवि की सुन्दर वाणी उस समय उसके प्रेम को स्मरण करके समुचा गयी। भरत जी को भेंट कर श्री रघुनाथ जी ने उनको समझाया, फिर हर्षित होकर शत्रुघ्न जी को हृदय से लगा लिया। सेवक और मंत्री भरत जी का रुख पाकर अपने-अपने काम में जा लगे दोनों समाजों में दारुण दुख छा गया। वे चलने की तैयारियां करने लगे। प्रभु के चरण कमलों की वंदना करके तथा श्रीराम जी की आज्ञा को सिर पर रखकर भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई चले। मुनि, तपस्वी और वनदेवता सबका बार-बार सम्मान करके उनकी विनती की, फिर लक्ष्मण जी को क्रमशः भेंट कर तथा प्रणाम करके और सीता जी के चरणों की धूल को सिर पर धारण कर और समस्त मंगलों के मूल आशीर्वाद सुनकर वे प्रेम सहित चले।
सानुज राम नृपहिं सिरनाई, कीन्हि बहुत विधि विनय बड़ाई।
देव दया बस बड़ दुखु पायउ, सहित समाज काननहिं आयउ।
पुर पगु धारिअ देइ असीसा, कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा।
मुनि महिदेव साधु सनमाने, बिदा किए हरिहर सम जाने।
सासु समीप गए दोउ भाई, फिरे बंदि पग आसिष पाई।
कौसिक बामदेव जाबाली, पुरजन परिजन सचिव सुचाली।
जथा जोगु करि विनय प्रनामा, बिदा किये सब सानुज रामा।
नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे, सब सनमानि कृपानिधि फेरे।
भरत मातु पद बंदि प्रभु सुचि सनेहं मिलि भेंटि।
बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि।
छोटे भाई लक्ष्मण समेत श्रीराम जी ने राजा जनक को सिर नवाकर उनकी बहुत प्रकार से विनती व बड़ाई की और कहा, हे देव, दयावश आपने बहुत दुख पाया। आप समाज सहित वन में आए, अब आशीर्वाद देकर नगर को पधारिए। यह सुनकर राजा जनक ने धीरज धरकर गमन किया, फिर श्री रामचन्द्र जी ने मुनि, ब्राह्मण और साधुओं को विष्णु और शिव के समान जानकर सम्मान करके उनको भी विदा किया। इसके बाद श्रीराम और लक्ष्मण- दोनों भाई सास सुनयना जी के पास गये और उनके चरणों की वंदना करके आशीर्वाद पाकर लौट आए फिर गुरु विश्वामित्र, जाबालि, वामदेव और शुभ आचरण करने वाले कुटुम्बी, नगर निवासी और मंत्री- सभी को छोटे भाई ल़क्ष्मण सहित श्रीराम ने यथा योग्य विनय और प्रणाम करके विदा किया। कृपानिधान श्री रामचन्द्र जी ने, छोटे, मध्यम (मंझले) और बड़े सभी श्रेणी केे स्त्री-पुरुषों का सम्मान करके उनको बिदा किया। भरत की माता कैकेयी के चरणों की बंदना करके प्रभु श्री रामचन्द्र जी ने पवित्र (निश्छल) प्रेम के साथ, उनसे मिल भेंट कर तथा उनके सारे संकोच और सोच को मिटाकर पालकी सजाकर उनको विदा किया।-क्रमशः (हिफी)