
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
कुंभकर्ण का वध हो चुका तो रावण का चिंतित होना स्वाभाविक है। मेघनाद ने तब रावण को भरोसा दिलाया कि मैंने तपस्या करके इष्टदेव से बल और रथ पाया था उसका प्रभाव कल दिखाऊंगा। मेघनाद युद्ध करने आता है और प्रभु श्रीराम को नागपाश से बांध देता है। प्रभु की यह भी एक लीला थी लेकिन देवता दुखी हो गये। उन्होंने गरुड़ को भेजा जिन्होंने माया रूपी सर्पों को खा डाला। इसी बात पर गरुड़ को अभिमान भी हुआ था जिसको दूर करने के लिए वे काग भुशुण्डि जी से श्रीराम की कथा सुनने गये थे। काग अर्थात कौआ पक्षियों में सबसे नीच माना जाता है और गरुड़ पक्षीराज। प्रभु ने उनका घमण्ड दूर किया था। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो कंुभकर्ण का वध करके प्रभु श्रीराम रणभूमि में हैं-
संग्राम भूमि विराज रघुपति अतुल बल कोसलधनी।
श्रम बिंदु मुख राजीव लोचन, अरुन तन सोनित कनी।
भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहुंदिसि बने।
कह दास तुलसी कहि न सक छवि सेष जेहि आनन धने।
निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम।
गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम।
अतुलनीय बल वाले श्रीराम,
अयोध्या के स्वामी रणभूमि में सुशोभित हैं। उनके मुख पर श्रम के कारण पसीने की बूंदे दिख रही हैं। कमल के समान नेत्र कुछ लाल हो गये हैं। शरीर पर रक्त के कण हैं। दोनों हाथों से धनुष वाण घुमा रहे हैं चारों ओर रीछ-बानर सुशोभित हैं। गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं कि प्रभु की इस छवि का वर्णन शेषनाग जी भी नहीं कर सकते जिनके एक हजार मुख हैं। भगवान शंकर पार्वती जी को रामकथा सुनाते हुए कहते हैं कि हे गिरिजे, कुंभकर्ण जो नीच राक्षस और पाप की खान था उसे श्रीराम जी ने अपना परम धाम दे दिया, अतः वे मनुष्य निश्चय ही मंदबुद्धि हैं जो उन श्रीराम जी को नहीं भजते हैं।
दिन के अंत फिरीं द्वौ अनी, समर भई सुभटन्ह श्रम घनी।
रामकृपा कपि दल बल बाढ़ा, जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा।
छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती, निज मुख कहें सुकृत जेहिं भांती।
बहु बिलाप दसकंधर करई,
बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई।
रोवहिं नारि हृदय हति पानी, तासु तेज बल बिपुल बखानी।
मेघनाद तेहि अवसर आयउ, कहि बहु कथा पिता समुझायउ।
देखेहु कालि मोरि मनुसाई, अबहिं बहुत का करौं बड़ाई।
इष्ट देव सैं बल रथ पायउँ, सो बल तात न तोहि देखायउं।
एहि विधि जल्पत भयउ बिहाना, चहुं दुआर लागे कपि नाना।
इति कपि भालु काल सम बीरा, उत रजनीचर अति रनधीरा।
लरहिं सुभट निज निज जय हेतू, बरनि न जाइ समर खग केतू।
मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास।
गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास।
काग भुशुंडि जी गरुड़ को श्रीराम कथा सुनाते हुए बता रहे हैं कि दिन का अंत होने पर दोनों सेनाएं लौट पड़ीं। उस दिन के युद्ध में योद्धाओं में बहुत थकावट आ गयी लेकिन श्रीराम जी की कृपा दृष्टि से वानर सेना का बल उसी प्रकार बढ़ गया जैसे सूखी घास पाकर आग बढ़ जाती है। उधर, राक्षस सेना दिन-रात इस प्रकार छीज (घट) रही है जिस प्रकार अपने ही मुख से कहने पर पुण्य कर्म घट जाते हैं। कुंभकर्ण के मरने पर रावण बहुत विलाप कर रहा है। बार-बार वह अपने भाई का सिर कलेजे से लगा लेता है। राक्षस स्त्रियां कंुभकर्ण के भारी तेज और बल को बखान करके हाथों से छाती पीट-पीटकर रो रही हैं। उसी समय मेघनाद आया और उसने बहुत सी कथाएं कहकर पिता को समझाया। उसने कहा कल मेरा पुरुषार्थ देखिएगा। मैं अभी
बहुत बड़ाई क्या करूं? हे तात, मैंने अपने इष्ट देव से जो बल और रथ पाया था वह अब तक आपको नहीं दिखाया है। इस प्रकार डींग मारते हुए सवेरा हो गया। लंका के चारों दरवाजों पर बहुत से वानर आ डटे। इधर, काल के समान वीर वानर-भालू हैं तो उधर से अत्यंत रणधीर राक्षस। दोनों ओर से योद्धा अपनी-अपनी जीत के लिए लड़ रहे हैं। काग भुशुंडि जी कहते हैं
कि उनके युद्ध का वर्णन नहीं किया
जा सकता। मेघनाद उसी मायामय
रथ पर चढ़कर आकाश में चला
गया और बहुत जोर से हंसकर गर्जा, जिससे वानरों की सेना में भय छा गया।
सक्ति सूल तरवारि कृपाना, अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना।
डारइ परसु परिध पाषाना, लागेउ वृष्टि करै बहु बाना।
दस दिसि रहे बान नभ छाई, मानहुं मघा मेघ झरि लाई।
धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना, जो मारइ तेहि कोउ न जाना।
गहि गिरि तरु अकास कपि
धावहिं, देखहिं तेहि न दुखित फिरि आवहिं।
अवघट घाट बाट गिरि कंदर, माया बल कीन्हेसि सर पंजर।
जाहिं कहां व्याकुल भए बंदर, सुरपति बंदि परे जनु मंदर।
मारुत सुत अंगद नल नीला, कीन्हेसि विकल सकल बल सीला।
पुनि लछिमन सुग्रीव विभीषन, सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन।
पुनि रघुपति सैं जूझै लागा, सर छोड़इ होइ लागहिं नागा।
ब्यालपास बस भए खरारी, स्वबस अनंत एक अबिकारी।
नट इव कपट चरित कर नाना, सदा स्वतंत्र एक भगवाना।
रन सोभा लगि प्रभुहिं बंधायो, नागपास देवन्ह भय पायो।
गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहि भव पास।
सोकि बंध तर आवइ व्यापक विस्व निवास।
मेघनाद शक्ति, शूल, तलवार, कृपाण आदि अस्त्र-शस्त्र और वज्र आदि बहुत से आयुध चलाने तथा फरसे, परिध और पत्थर आदि डालने के साथ बहुत से वाणों की वृष्टि करने लगा। आकाश में दशों दिशाओं में वाण छा गये, मानो मघा नक्षत्र की बारिश हो रही हो। पकड़ो-पकड़ों, मारो, ये शब्द कानों से सुनाई पड़ते हैं लेकिन जो मार रहा है उसे कोई नहीं जान पा रहा। पर्वत और वृक्षों को लेकर वानर आकाश में जाते हैं पर मेघनाद को देख नहीं पाते, इससे दुखी होकर लौट आते हैं। मेघनाद ने माया के बल से अटपटी घाटियों, रास्तों और पर्वत कंदराओं को वाणों के पिंजरे बना दिया है। इसलिए बानर और भालू व्याकुल हैं कि भाग कर कहां जाएं। ऐसा लगता कि पर्वत इन्द्र की कैद में हैं। मेघनाद ने हनुमान, अंगद, नल और नील आदि सभी बलवानों को व्याकुल कर दिया है फिर उसने लक्ष्मण जी सुग्रीव और विभीषण को वाणों से मारकर उनके शरीर को जर्जर कर दिया। इसके बाद वह श्री रघुनाथ से लड़ने लगा। वह जो वाण छोड़ता है वे सांप होकर लगते हैं। भगवान शंकर पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि जो स्वतंत्र अनंत अखण्ड और निर्विकार हैं, वे खर के शत्रु श्रीराम जी लीलावश नागपाश में बंध गये। श्रीराम चन्द्र जी सदा स्वतंत्र, एक अद्वितीय भगवान हैं। वे नर की तरह अनेक दिखावटी चरित्र कर रहे हैं। रण की शोभा के लिए प्रभु ने अपने को नागपाश में बंधा लिया लेकिन इससे देवताओं को बहुत
भय हुआ। हे गिरिजा, जिनका नाम जपकर मुनि जन्म-मृत्यु के बंधन को काट डालते हैं वे सर्व व्यापक और विश्व निवास प्रभु कहीं बंधन में आ सकते हैं। -क्रमशः (हिफी)