सम-सामयिक

अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में घृणा

अब वो समय आ गया है जब सोशल मीडिया पर हो रही अश्लीलता घृणा विद्वेष फैलाने वाले कंटेंट पर तत्काल नियंत्रण करने की जरूरत है आज के ग्लोबल डिजिटल युग में सूचना, विचार और अभिव्यक्ति की गति काफी बेहतर हुई है, क्योंकि डिजिटल प्लेटफॉर्म आज अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा माध्यम बन चुके हैं। सोशल मीडिया, पर्सनल ब्लॉग, यूट्यूब चैनल, पॉडकास्ट और ओटीटी प्लेटफॉर्म इन सबने हर नागरिक को अपनी आवाज रखने का मंच दिया है लेकिन इसी स्वतंत्रता के साथ चिंताजनक वास्तविकता भी उभरकर सामने आई है, जिसमें अश्लीलता, अपशब्द, गलत जानकारी, एंटी-नेशनल कंटेंट और बिना जिम्मेदारी के फैलाई जाने वाली भ्रामक व संक्रमित सामग्रियां शामिल है। सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर अपलोड की गई सामग्री कुछ ही मिनटों में लाखों लोगों तक पहुंच जाती है और यदि वह सामग्री राष्ट्र विरोधी, समाज विघातक या बच्चों के लिए हानिकारक हो, तो नुकसान अपूरणीय होता है। सुप्रीम कोर्ट ने 27 नवम्बर को इसी गंभीर चुनौती पर अपनी गहरी चिंता व्यक्त की और कहा कि अब समय आ गया है कि डिजिटल कंटेंट को रेगुलेट करने के लिए एक स्वायत्त, तटस्थ और निष्पक्ष संस्था का गठन किया जाए, जो न सरकार के प्रभाव में हो और न ही प्लेटफॉम्र्स या व्यक्तिगत क्रिएटर्स के दवाव में। अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र की रीढ़ है, लेकिन अदालत ने स्पष्ट किया कि इस अधिकार के साथ अन्य नागरिकों, विशेषकर बच्चों और समाज के कमजोर वर्गों के मौलिक अधिकार भी जुड़े हैं। उनका भी अधिकार है कि उन्हें गलत सूचना, घृणा फैलाने वाले कंटेंट और समाज को बांटने वाली सामग्री से बचाया जाए। देश की सर्वोच्च अदालत ने केंद्र सरकार को यह स्पष्ट संदेश दिया कि स्व-नियमन मॉडल नाकाम हो चुका है।
मीडिया संस्थानों और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर स्वयं की निगरानी का जो ढांचा बनाया गया था, वह व्यावहारिक रूप से प्रभावी साबित नहीं हुआ। अश्लीलता व अपमानजनक कंटेंट का प्रसार जिस तेजी से होता है, उसके सामने कोई भी कड़ी कार्रवाई देर से होती प्रतीत होती है। अदालत ने कहा कि जब तक गंदा कंटेंट हटाने की प्रक्रिया चलती है, तब तक वह लाखों दर्शकों तक पहुंचकर गहरा असर डाल चुका होता है। हकीकत यह है कि इंटरनेट एक खुला मंच है और इस मंच का उपयोग जितनी तेजी से बढ़ा है, उतनी ही तेजी से इसका दुरुपयोग भी हुआ है। यूट्यूब व इंस्टाग्राम पर व्यक्तिगत लोकप्रियता और कमाई के लालच में कई कंटेंट क्रिएटर्स ऐसी भाषा और सामग्री का प्रयोग कर रहे हैं, जो समाज पर गंभीर प्रभाव छोड़ती है। कई लोग अपनी ब्रांडिंग बोल्ड कंटेंट के नाम पर खुले अश्लील मजाक, महिलाओं के प्रति अपमानजनक टिप्पणियां, धार्मिक या सामाजिक संवेदनाओं को भड़काने वाले वक्तव्य और अपशब्दों को अपनी पहचान बना लेते हैं। इंडियाज गॉट लेटेंट के स्टैंड-अप कॉमेडियन समय रैना के शो का विवाद इसी का उदाहरण है, जहां माता-पिता, महिलाओं और दिव्यांगों पर अभद्र टिप्पणियां की गईं। यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है। सोशल मीडिया पर क्लाउट और वायरल होने की होड़ ने डिजिटल संस्कृति में एक प्रकार की नैतिक कमी और संवेदनहीनता पैदा कर दी है। इसका असर समाज के संवेदनशील वर्गों जैसे महिलाओं, बच्चों, दिव्यांगों, बुजुर्गों और यहां तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित मामलों पर भी देखने को मिलता है। कोर्ट ने खासतौर पर सवाल उठाया कि यदि किसी शो या पोस्ट को एंटी-नेशनल माना जाए, तो उसकी जवाबदेही कौन लेगा ? क्या कोई भी व्यक्ति कुछ भी अपलोड कर दे और उसे रोकने तक न तो प्लेटफॉर्म जिम्मेदार हो और न ही कंटेंट निर्माता? अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र की नींव है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बिल्कुल सही कहा है कि यह आजादी विकृति का कारण नहीं बन सकती। इंटरनेट पर पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि कोई भी व्यक्ति किसी भी भाषा का प्रयोग कर सके। आजादी के साथ जिम्मेदारी भी जुड़ी है। बच्चों और किशोरों पर प्रभाव, मानसिक स्वास्थ्य पर असर, गलत व्यवहार का सामान्यीकरण ये सब वास्तविक खतरे हैं, जिनसे समाज जूझ रहा है। कोर्ट ने यह भी कहा कि सिर्फ 18 प्लस चेतावनी काफी नहीं है। किसी भी व्यक्ति को पता होना चाहिए कि वह क्या देखने जा रहा है। कई बार एक क्लिक का अंतर होता है, और दर्शक बिना चेतावनी के बेहद आपत्तिजनक सामग्री के संपर्क में आ जाते हैं। इसलिए उम्र सत्यापन जैसे उपाय भी अनिवार्य होने चाहिए, चाहे उसका स्वरूप आधार या अन्य डिजिटल वेरिफिकेशन के माध्यम से हो। अदालत ने साफ कहा कि एक तटस्थ, स्वतंत्र और स्वायत्त संस्था बनाई जानी चाहिए। ऐसी संस्था न तो सरकार के नियंत्रण में हो और न ही कंटेंट निर्माताओं के प्रभाव में। यह बिल्कुल वैसे ही कार्य करे जैसे प्रेस काउंसिल या ट्राई जैसी संस्थाएं करती हैं, पूरी तरह से पारदर्शी, स्वतंत्र और जवाबदेह। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि केंद्र सरकार अब कड़े कानून बनाए, जिनमें एस/एसटी एक्ट जैसी कठोरता हो। यानी अपमानजनक या अश्लील कंटेंट केवल मामूली गलती न मानी जाए, बल्कि कानूनी अपराध की श्रेणी में आए। सरकार ने बताया कि नए दिशा-निर्देश तैयार किए जा रहे हैं और विभिन्न हितधारकों से बातचीत चल रही है। लेकिन अदालत ने 4 हफ्ते की समयसीमा तय कर यह संदेश दिया कि अब समय कम है, और इस प्रक्रिया को तेज करना होगा।
दिव्यांगों पर टिप्पणी के मामले में अदालत ने एक और महत्वपूर्ण बात कही कि सिर्फ सजा या जुर्माना नहीं, बल्कि सकारात्मक सुधार जरूरी है। यही वजह है कि कोर्ट ने समय रैना को उनके शो में दिव्यांग लोगों की सफलता की कहानियां दिखाने का आदेश दिया। यह निर्णय न्याय के सुधारात्मक मॉडल का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह संदेश केवल एक व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि पूरी डिजिटल इंडस्ट्री के लिए है कि क्रिएटिविटी और कॉमेडी किसी भी समाज विरोधी या मानव गरिमा को अपमानित करने वाली भाषा की मोहताज नहीं होती। अगर देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय का यह रुख केवल इंटरनेट पर गंदी भाषा या अश्लील कंटेंट का मुद्दा नहीं है। यह भारत के सामाजिक मूल्यों, नागरिकों की गरिमा, और डिजिटल संस्कृति को दिशा देने का प्रयास है। डिजिटल स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है, लेकिन उससे अधिक महत्वपूर्ण है कि यह स्वतंत्रता जिम्मेदार, सुरक्षित और गरिमापूर्ण हो। एक स्वस्थ लोकतंत्र वही होता है, जहां आलोचना हो, सवाल हों, विवाद हों, लेकिन इन सबके साथ नैतिकता और संवेदनशीलता भी हो। जैसे-जैसे तकनीक आगे बढ़ रही है, समाज और न्यायपालिका दोनों को मिलकर यह तय करना होगा कि किस प्रकार एक ऐसा डिजिटल इकोसिस्टम बनाया
जाए जो लोकतांत्रिक मूल्यों की
रक्षा करे, अभिव्यक्ति को सुरक्षित रखे, लेकिन साथ ही गलत सूचना और अपमानजनक कटेंट को मानवीय क्षति पहुंचाने से रोके।
शीर्ष अदालत की राय पर सरकार और समाज दोनों की जिम्मेदारी है कि वह आगे आकर सोशल मीडिया पर फैल रही गंदगी को साफ करने के लिए काम करें।
(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)

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