लेखक की कलम

कालेजियम का कवच कब तक चलेगा मीलार्ड!

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)
जिस देश की अदालतों में करीब साढ़े चार करोड़ मुकदमे फैसले का इंतजार कर रहे हैं। लाखों लोगों को जीवन भर अदालतों की चौखट पर सिर पटकने के बाद भी न्याय नहीं मिल पाता है, वहीं न्याय के देवता अकूत संपदा जमा कर ऐसी व्यवस्था बनाए बैठे हैं कि उनके कारनामों की सहज शुचिता भरी जांच भी उन्हीं के कुलदेवताओं की मर्जी पर टिकी है? क्या हमारी न्याय व्यवस्था विश्वास के संकट के दौर में नहीं है? न्यायालय के एक न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास के एक कमरे से कथित रूप से बेहिसाब नगदी की बरामदगी ने देश के जनमानस को न्यायिक तंत्र में पैर जमा रहे भ्रष्टाचार पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। आम आदमी के मन मस्तिष्क में न्याय पालिका के लिए बनी साख पर भी जबरदस्त कुठाराघात हुआ है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की एक जांच समिति गठित की है। वहीं पारदर्शिता सुनिश्चित करने और गलत सूचनाओं को दूर करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा प्रस्तुत जांच रिपोर्ट भी सार्वजनिक की है। इस रिपोर्ट ने निष्कर्ष दिया है कि पूरे मामले की गहन जांच की आवश्यकता है।
ऐसा जरूरी भी था क्योंकि उच्च न्यायपालिका की ईमानदारी और विश्वसनीयता दांव पर है। हालांकि, न्यायाधीश ने दावा किया है कि उनके या परिवार के किसी सदस्य द्वारा स्टोर रूम में कभी कोई नकदी नहीं रखी गई थी। कोई भी व्यक्ति जिसके घर दफ्तर या लाकर से बिना हिसाब-किताब का आय से अधिक धन या सम्पत्ति मिलता है तो वह इसी तरह अपना बचाव करता है और यहाँ तो मामला चालीस साल से वकालत और न्यायिक अधिकारी के रूप में कार्यरत व्यक्ति से जुड़ा है तो उन्हें अपने बचाव के लिए ऐसी ही तमाम बातें बनानी होगी। इस बयान ने भी कई सवालों को जन्म दिया है। सवाल उठाया जा रहा है कि कड़ी सुरक्षा में रहने वाले सरकारी आवास में क्या बिना जानकारी के पैसा रखा जा सकता है? तो क्या किन्हीं आवासीय कर्मचारियों या बाहरी लोगों ने ऐसा कृत्य किया? यदि यह वास्तव में जज को फंसाने की सजिश थी, तो उसमें कौन लोग शामिल थे? निश्चित रूप से ऐसे सवालों का जवाब मिलने में विलंब से अविश्वास की धुंध और गहरी होगी। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1997 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनाए गए ऐतिहासिक न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्कथन में यह निर्दिष्ट किया गया था कि किसी न्यायाधीश द्वारा ऐसा कोई कार्य या चूक नहीं होनी चाहिए, जो उनके उच्च पद और उस पद के प्रति सार्वजनिक सम्मान के अनुरूप न हो। निस्संदेह, न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कम करने वाले किसी भी विवाद की गहरी जांच होनी चाहिए। साथ ही यह भी जरूरी है कि जांच निर्धारित समय सीमा में अनिवार्य रूप से पूरी हो। वास्तव में सत्य, न्याय और न्यायिक जवाबदेही के हित में ऐसे मामलों में कार्यवाही को तेजी से आगे बढ़ाने का दायित्व अदालतों और जांच एजेंसियों का है।
सवाल उठता है कि 14 मार्च को हुई आग लगने की घटना के साथ ही जज साहब के आवास के एक कमरे में बोरों में रखे करोड़ों के नोट धधक रहे थे तब इस बात के जाहिर होने के बाद भी जिम्मेदार व्यवस्था और न्यायपालिका के सर्वेसर्वा माननीय सीजेआई महोदय ने इस मामले की जांच या भ्रष्टाचार के खुलासा के लिए पर्याप्त सक्रियता दिखाई या नहीं दिखाई और मामले पर पर्दा डालने की भरपूर कोशिश की गई। यदि ऐसा नहीं है तो 14 मार्च की इतनी बड़ी घटना को सात दिन तक मीडिया से छिपा कर क्यों रखा गया। फायर विभाग के कर्मचारियों द्वारा आग बुझाने के दौरान बड़ी मात्रा में अधजले नोटो की आग बुझाने की विडियो बना ली गई और अधिकारियों को जानकारी दी गई अधिकारियों ने पुलिस और प्रशासन को जानकारी दी। न्यायपालिका के जिम्मेदार तंत्र को भी सूचित कर दिया गया लेकिन मामले पर पांच छह दिन तक अदालत और जज साहब से जुड़ा मामला होने का दबाव बना रहा लेकिन अंततः भांडा फूट गया जब कोलेजियम द्वारा संबधित जज साहब का दिल्ली हाई कोर्ट से इलाहाबाद हाई कोर्ट स्थानांतरण कर मामले को दबाने की नाकाम कोशिश की गई। फायर सर्विस के एक अधिकारी से बड़ी मात्रा में नोटों के बोरों की बरामदगी से इंकार कराया गया यहां तक कि जज साहब के ट्रांसफर को भी इस घटना से इतर सामान्य तौर पर रूटीन ट्रांसफर बता कर पल्ला झाड़ने की कोशिश की गई।
सवाल उठता है कि क्या एक सिपाही को दो सौ रुपये की रिश्वत लेने पर मुकदमा दर्ज कर जेल भेजने वाली कानून व्यवस्था के सरमाएदार अपने ही एक हाइकोर्ट के जज साहब के सरकारी आवास पर इतनी बड़ी करेंसी जलने की घटना पर मिट्टी क्यों डाल रहे हैं? क्या शीर्ष अदालत के जिम्मेदार पदों पर आसीन माननीय को अपनी निष्पक्ष छवि बनाते हुए मामले का पता चलते ही संबधित जज साहब के आवास की जामा तलाशी नहीं करानी चाहिए थी जब एक कमरे में कथित करीब पंद्रह करोड़ की नकदी स्वाहा होने का अनुमान है तो बाकी कमरों की आलमारी और लाकरो में कितना ज्वैलरी बेनामी सम्पत्ति मिल सकती थी। यदि एक बारगी जज महोदय के स्पष्टीकरण बयान पर ही भरोसा किया जाए कि नकदी उनकी जानकारी में नहीं थी फंसाने का षडयंत्र हो सकता है क्या पता बाकी कमरों में भी किसी ने उन्हें फंसाने के लिए अकूत संपत्ति रख दी हो?
ऐसा लगता है कि इस मामले में सिर्फ लीपापोती की जा रही है जांच के लिए अब ईडी आयकर विभाग तमाम भ्रष्टाचार निवारण तंत्र के अधिष्ठानों को क्यों सक्रिय नहीं किया गया? क्या न्यायाधीश पद का असली फायदा यही है कि कालेजियम कवच बन जाता है? आग लगने की घटना के ठीक तेरह दिन बाद पुलिस कथित जांच के लिए सिर्फ स्टोर रूम तक पहुंच पाती है? ऐसी जांच से कोई खास पारदर्शी निष्पक्ष निष्कर्ष सामने आने की उम्मीद करना भी सिर्फ तसल्ली देने जैसा है। इस मौजूदा व्यवस्था कालेजियम की व्यवस्थाओं को क्या इस भ्रष्टाचार के संरक्षण के लिए ही प्रभावी बनाया गया है?
बहरहाल, शीर्ष अदालत ने विवादों में घिरे न्यायाधीश के प्रति कथित सख्त रवैया अपनाते हुए उन्हें न्यायिक कामकाज से अलग रखने के निर्देश दिए हैं। सार्वजनिक विमर्श में उनका तबादला इलाहाबाद हाईकोर्ट करने की चर्चा भी रही। इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने जस्टिस वर्मा के घटनाक्रम से जुड़े कॉल्स सुरक्षित रखने को कहा है। अदालत ने पिछले छह माह के कॉल रिकॉर्ड भी पुलिस से मांगे हैं। वहीं दूसरी ओर शीर्ष अदालत ने पुलिस द्वारा रिकॉर्ड वीडियो, तस्वीरें व शुरुआती जांच रिपोर्ट भी सार्वजनिक विमर्श में ला दी है। निश्चित रूप से न्याय की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति से बेदाग होने की उम्मीद की जाती है लेकिन यह पहला मौका नहीं है पूर्व में भी कई राज्यों के हाइकोर्ट तथा अधीनस्थ अदालतों के जजों का आचरण प्रतिकूल मिलने के मामलों की काफी तादाद है। समझ सकते है कि अन्याय के विरुद्ध उम्मीद की अंतिम किरण लेकर व्यक्ति न्याय की चौखट पर दस्तक देता है। यदि यह भरोसा भी टूट जाएगा तो देश के सामने अराजकता और बदअमनी के माहौल की हालात बन सकते हैं । निस्संदेह, न्याय व्यवस्था का सवालों के घेरे में आना एक गंभीर मुद्दा है। इस घटनाक्रम से न्याय व्यवस्था पर जो बदनुमा छींटे आए हैं, उन्हें पूरी निष्ठा और ईमानदारी से साफ करना जरूरी है। उम्मीद करना चाहिए है कि शीर्ष अदालत द्वारा गठित जांच समिति सच को सामने लाने में पारदर्शी व निष्पक्ष कार्रवाई करेगी। लोकतंत्र के आधारभूत स्तंभ की शुचिता साख अक्षुण्ण रखने के लिये यह बहुत जरूरी भी है। निस्संदेह, न्यायपालिका का लक्ष्य सिर्फ संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करना ही नहीं है
बल्कि सार्वजनिक जीवन में निष्पक्षता, ईमानदारी और विश्वसनीयता के मूल्यों के आदर्शों को स्थापित और पोषण करना चाहिए।
न्यायपालिका में पूर्ण सम्मान के साथ बहुत विनम्रता के साथ बिना किसी पूर्वाग्रह के लिखना पड़ता है कि मौजूदा मामले में जिस तरह की सुस्त लचीलापन लिए प्रक्रिया अपनाई गई है वह स्वयं मंे ही कई सवाल खड़े करती है। यह एक लोकतांत्रिक देश की स्वतंत्र अस्तित्व वाली न्यायपालिका के लिए आत्मावलोकन की गंभीर जरूरत और उसमे पनपे कथित कदाचार व भ्रष्टाचार के खिलाफ तत्काल सटीक और प्रभावी कार्यवाही की जरूरत पर बल देती है। (हिफी)

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