उम्मीदों के नए क्षितिज पर कितना खरा उतरेंगे मोदी!

भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन पुनः सत्ता में आ रहा है।शुक्रवार को पुराने संसद भवन के सैंट्रल हाॅल में राजग के तमाम नेताओं की उपस्थिति में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को राजग का नेता सर्वसम्मति से चुन लिया गया। जैसाकि सर्व विदित है अठारहवीं लोकसभा में भाजपा अकेली बहुमत से दूर है, इसलिए उसे सरकार चलाने के लिए राजग के अन्य दलों विशेषकर नीतीश कुमार के जनता दल युनाइटेड और एन. चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी के सहयोग की जरूरत पड़ेगी। स्पष्ट है कि यह गठबंधन की सरकार होगी और भाजपा अब उस तरह के कड़े फैसले नहीं ले पाएगी, जिन पर कथित सर्वसम्मति से डिक्टेटर निर्णय होने का ठप्पा लगता रहा है।दरअसल अभी तक पीएम नरेंद्र मोदी अपने सलाहकार मंडल की राय पर अथवा स्वयं की राय पर जो फैसला लेते थे। वही सरकार का रोडमैप होता था उसमें कोई रोका टोकी या सवाल नहीं उठाया जाता था। यहां तक कि संगठन का भी इतना साहस नहीं होता था कि वह मोदी की राय को काट सके। ज्यादातर नेता यस मैन की भूमिका में होते थे लेकिन अब गठबंधन की भावी सरकार में इस कार्यशैली पर तकरार संभव है।
चर्चा है कि अभी से अन्य दलों ने आंखें तरेरना शुरू कर दिया है। मात्र 2 सीटें जीतने वाले जनता दल (सेक्यूलर) यानी जेडीएस ने अपने नेता एचडी कुमारस्वामी के लिए कृषि मंत्रालय की मांग रख दी है। राजग में तीसरा सबसे बड़ा दल बनकर उभरे नीतीश के जदयू के पास मात्र 12 सांसद हैं, किन्तु सूत्रों के अनुसार उन्होंने 5 मंत्रालय की मांग की है। जदयू ने एक और बड़ा कदम उठाते हुए भाजपा द्वारा जोर-शोर से लाई गई अग्निवीर योजना पर पुनर्विचार करने की मांग की है। इस योजना के तहत सेना में 4 वर्ष के लिए युवाओं को भर्ती किया जाता है। इस योजना का उन राज्यों में भारी विरोध है जहां से सेना में सबसे अधिक जवान भर्ती होते हैं। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस योजना के कड़े विरोध का ही परिणाम है कि चुनाव परिणाम भाजपा की उम्मीद के विपरीत रहे। हरियाणा में भाजपा की सरकार है फिर भी आधी सीटें हार गए, राजस्थान में भाजपा सरकार है फिर भी सीटें जीतने में कांग्रेस से भी पीछे रह गए, उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार है, वहां भी ऐसा ही हश्र हुआ, पंजाब में तो खाता ही नहीं खुला।
नरेंद्र मोदी तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और दो कार्यकाल प्रधानमंत्री के तौर पर पूरे किए, इन पांचों कार्यकाल में उनकी पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल था। अब तक उन्होंने गठबंधन सरकार चलाई ही नहीं है।नरेंद्र मोदी ने जो कार्यशैली विकसित की उसमें उनका फैसला ही पार्टी और सरकार पर बाध्यता बतौर लागू होता रहा है। यह दीगर बात है कि उनकी नीति या फैसले पार्टी और सरकार के लिए फायदेमंद साबित होते रहे। 2014 और 2019 में भले ही कहने को राजग गठबंधन सत्ता में था, किन्तु दोनों बार भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला हुआ था, इसलिए गठबंधन में शामिल दलों के सामने उन्हें बेबसी नहीं दिखानी पड़ी लेकिन इस बार ऐसा नहीं है। भले ही भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है, फिर भी उन्हें गठबंधन के अन्य दलों के सामने कठोरता या मनमानी भारी पड़ सकती है। जब जदयू 12 सांसदों में से 5 को मंत्री बनाने की मांग रख रही है तो स्वाभाविक है कि उससे 4 सीटें अधिक यानी 16 सीटें जीतने वाली तेदेपा तो और अधिक उम्मीद रखेगी। देखना होगा कि मोदी सरकार सब सहयोगियों को कैसे संतुष्ट करती है।गठबंधन की विवशता नई सरकार के निर्णयों में भी झलकेगी। कम से कम पहला साल सरकार कोई कड़ा कदम उठाने से कतराएगी। शीघ्र ही सरकार पूर्ण बजट पेश करेगी, उसमें लोकलुभावन घोषणाओं की उम्मीद की जा सकती है। बुनियादी ढांचे का निर्माण, रक्षा उपकरण क्षेत्र, बिजली और रेलवे के क्षेत्र में सुधार जारी रहने की संभावना है, क्योंकि तेदेपा मुखिया चंद्रबाबू नायडू स्वयं बुनियादी ढांचे पर जोर देने वाले नेता हैं। लेकिन नीतीश व अन्य दलों के दबाव में अब किसानों पर ध्यान देने, मध्यम वर्ग की संभाल लेने, मुफ्त राशन की मात्रा बढ़ाने, रोजगार सृजन के प्रयास करने तथा सरकारी उपक्रमों को बेचने की रफ्तार धीमी होने की संभावना है। राष्ट्रीय मुद्दों पर बड़ी-बड़ी बातें करने की बजाय अब उन मुद्दों पर भी ध्यान दिया जाएगा, जो धरातल पर आम आदमी को सीधे प्रभावित करते हैं। इनमें महंगाई पर नियंत्रण, ब्याज दरों में कटौती, टैक्स में राहत जैसे उपाय किए जा सकते हैं। पांच साल सरकार तो भाजपा चला ही लेगी, भले इसके लिए अन्य दलों में तोड़-फोड़ करनी पड़े, निर्दलीय व छोटे दलों को अपने साथ लाना पड़े, लेकिन फिर भी एनआरसी और यूसीसी जैसे मुद्दों पर आगे बढ़ने में उसके पांव ठिठकेंगे। अब तक तेवर के साथ सत्ता की सवारी लेने वाली भाजपा की असली परीक्षा तो अब शुरू हुई है क्योंकि अब तेवर दिखाने का समय गया। अब सहयोगियों को पूरा मान देते हुए साथ लेकर चलना होगा।
यहां सबसे ज्यादा गौर तलब बात यह है कि पीएम नरेंद्र मोदी के स्वभाव में खुद फैसले लेने की आदत शुमार है और इसे पहले भी तानाशाही के विशेषणों से नवाजा जा चुका हैं। ऐसे में एक दिन में किसी भी व्यक्ति से उसकी दशक से चल रही कार्यशैली में एक साथ बदलाव की कितनी उम्मीद की जा सकती है और यहां सरकार जब सहयोगियों के कंधों पर टिकी हो तो सहयोगी दलों की खींचतान और दबाव को भी किस हद तक मोदी स्वीकार पाएंगे यह कहना मुश्किल होगा। इतना ही नहीं अब भाजपा में भी संघ पोषित कुछ नेताओं का गुट प्रधानमंत्री मोदी के एकतरफा फैसले पर रोका टोकी शुरू कर सकता है क्योंकि पूर्व तक मोदी मैजिक के चलते किसी भी नेता में उनके सुर से अलग सुर निकालने की हिम्मत नहीं थी अब कमोबेश यह परिदृश्य चलने वाला नहीं है।
संसद भवन के कम्युनिटी हाॅल में नरेंद्र मोदी को राजग नेता चुने जाने के समय जिस तरह का माहौल था और राजग के विभिन्न घटकों के नेताओं के बयान सामने आए हैं उससे इस विचार को बल मिलता है कि राजग के नेताओं में नरेंद्र मोदी के प्रति न सिर्फ समर्थन है वरन इन नेताओं के दिल में उनके प्रति सम्मान का भाव है। कम से कम यह भाव राजग सरकार के भविष्य का बेहतर संकेत दे रहा है। देखना है कि सहयोगी दलों का नरेंद्र मोदी के प्रति सम्मान और सहयोग का यह भाव कहीं किसी आकांक्षा स्वार्थ के पूरा न होने पर दरक तो नहीं जाएगा? और उम्मीदों के नए क्षितिज पर नरेन्द्र मोदी कितना खरा उतर पाएंगे? (हिफी)
(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)