
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-92
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
गुण और कर्म के अनुसार होता है मानव जन्म
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृति जैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः।। 40।।
पृथ्वी में या स्वर्ग में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवाय और कहीं भी वह (ऐसी कोई) वस्तु नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो।
व्याख्या-दसवें अध्याय में भगवान् ने भक्ति (विश्वास) की दृष्टि से सम्पूर्ण वस्तुों को अपने से उत्पन्न होने वाली बताया था (10/39)। यहाँ भगवान ज्ञान (विवेक) की दृष्टि से सम्पूर्ण वस्तुओं को प्रकृतिजन्य गुणों से उत्पन्न होने वाली बताते हैं। कारण कि विवेकी की दृष्टि से सत् और असत् दोनों रहते हैं, पर भक्त की दृष्टि में एक भगवान् ही रहते हं-‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता 9/39)। विवेक मार्ग में असत् का, गुणों का त्याग मुख्य है, पर भक्ति मार्ग में भगवान का सम्बन्ध मुख्य है।
संसार की कोई भी वस्तु तीनों गुणों से रहित नहीं है-यह बात अज्ञानी की दृष्टि से कही गयी है, तत्त्वज्ञानी की दृष्टि से नहीं। तत्त्व ज्ञानी की दृष्टि सत्ता मात्र स्वरूप की तरफ रहती है, जो स्वतः स्वाभाविक गुणातीत है (गीता 13/39)।
ब्राह्मण क्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्रभवैर्गुणैः।। 41।।
व्याख्या-कर्म योग के प्रकरण में भगवान् ने नियम कर्मों के त्याग को अनुचित बताते हुए फल एवं आसक्ति का त्याग करके नियत कर्मों को करने की बात कही (गीता 18/7-9), और सांख्य योग के प्रकरण में नियत कर्म को कर्तृत्वाभिमान, फलेच्छा तथा राम-द्वेष से रहित होकर करने की बात कही (गीता 18/23)। अब भगवान् यह बताते हैं कि किस वर्ण के लिये कौन-से कर्म नियत कर्म हैं और उन नियत कर्मों को कैसे किया जाय?
मनुष्य जो कुछ भी कर्म करता है, उसके अन्तःकरण में उस कर्म के संस्कार पड़ते हैं और उन संस्कारों के अनुसार उसका स्वभाव बनता है। इस प्रकार पृर्व के अनेक जन्मों के किए हुए कर्मों के संस्कारों के अनुसार मनुष्य का जैसा स्वभाव होता है, उसी के अनुसार उसमें सत्त्व, रज और तम-तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इन गुण वृत्तियों के तारतम्य के अनुसार ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्मों का विभाग किया गया है (गीता 4/13)। कारण कि मनुष्य में जैसी गुण वृत्तियाँ होती हैं, वैसा ही वह कर्म करता है।
पूर्व पक्ष-चैथे अध्याय में भगवान ने कहा था कि चारों वर्णों की रचना मैंने गुणों और कर्मों के विभाग पूर्वक की है-‘गुणकर्मविभागशः’ (4/13)। पर यहाँ भगवान् कहते हैं कि चारों वर्णों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए तीनों गुणों के द्वारा विभक्त किये गये हैं-‘स्वभावप्रभवैर्गुणैः‘। इसका सामंजस्य कैसे करेंगे?
उत्तर पक्ष-चैथे अध्याय में तो चारों वर्णों के उत्पन्न होने की बात
कही गयी है और यहाँ चारों वर्णों के कर्मों की बात कही गयी है। तात्पर्य
यह हुआ कि चैथे अध्याय में भगवान् ने बताया कि चारों वर्णों का जन्म
पूर्वजन्म के गुणों के अनुसार हुआ है, और यहाँ बताते हैं कि जन्म के बाद चारों वर्णों के अमुक-अमुक कर्म होने चाहिये, जिनके अनुसार उनकी आगे गति होगी।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्म कर्म स्वभावजम्।। 42।।
मनका निग्रह करना, इन्द्रियों को वश में करना, धर्म-पालन के लिये कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराध को क्षमा करना, शरीर, मन आदि में सरलता रखना, वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना, यज्ञ विधि को अनुभव में लाना और परमात्मा, वेद आदि में आस्तिक भाव रखना-ये सब-के-सब ही ब्राह्मण स्वाभाविक कर्म हैं।
व्याख्या-वर्ण-परम्परा शुद्ध हो तो ये गुण ब्राह्मण में स्वाभाविक होते हैं। परन्तु वर्ण-परम्परा में अशुद्धि (वर्ण संकरता) आने पर ये गुण स्वाभाविक नहीं होते, इनमें कमी आ जाती है।
पूर्व श्लोक में ‘स्वभाव प्रभवैर्गुणैः’ कहा, इसलिये यहाँ स्वभावज कर्म बताते हैं। स्वभाव बनने में जन्म मुख्य है, फिर जन्म के बाद संग मुख्य है। संग,
स्वाध्याय, अभ्यास आदि के कारण स्वभाव बदल जाता है।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।। 43।।
शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता तथा युद्ध में पीठ न दिखाना, दान करना और शासन करने का भाव-ये-सब-के सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।
कर्मगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।। 44।।
खेती करना, गायों की रक्षा करना और व्यापार करना-ये सब-के-सब वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा चारों वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है।
व्याख्या-गुण और कर्म के अनुसार ही मनुष्य का जन्म होता है, इसलिये मनुष्य की जाति मन से ही मानी जाती है। भोजन, विवाह आदि लौकिक व्यवहार में तो जाति की प्रधानता है, पर परमात्मप्राप्ति में भाव और विवेक की प्रधानता है, जाति या वर्ण की नहीं। जैसे सब-के-सब बालक माँ की गोद में जाने के समान अधिकारी हैं, ऐसे ही भगवान् का अंश होने से सब-के-सब जीव भगवत प्राप्ति के समान अधिकारी हंै। सब-के-सब मनुष्य परमात्मतत्त्व को, मुक्ति को, तत्त्व ज्ञान को, भगवत प्रेम को, भगवद्दर्शन को प्राप्त करने में स्वतन्त्र, समर्थ, योग्य और अधिकारी हैं। विदुर, निषाद राज गुह, कबीर, रैदास, सदन कसाई आदि अनेक निम्न जाति के मनुष्य भगवान् की भक्ति के कारण ही श्रेष्ठ बने, जाति या वर्णा के कारण नहीं। अतः चाहे ब्राह्मण का शरीर हो, चाहे शूद्र का शरीर हो, लोक-व्यवहार में तो उनमें भेद रहेगा, पर भगवत प्राप्ति में कोई भेद नहीं रहेगा। कारण कि भगवत प्राप्ति शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करने पर होती है। जिससे सम्बन्ध-विच्छेद करना हो, वह चाहे बढ़िया हो या घटिया, उससे क्या मतलब?
गुणों के तारतम्य से जिस वर्ण में जन्म होता है, उन गुणों के अनुसार ही उस वर्ण के कर्म सहज-स्वाभाविक होते हैं, जैसे-ब्राह्मण के लिये शम, दम आदि, क्षत्रिय के लिये शौर्य, तेज आदि, वैश्य के लिये खेती, गोरक्षा आदि और शूद्र के लिये सेवा-ये कर्म स्वतः स्वाभाविक होते हैं। इन कर्मों को करने में उन्हें परिश्रम नहीं होता। इन कर्मों के उनकी स्वाभाविक रुचि होती है।-क्रमशः (ंहिफी)