
महाज्ञानी अष्टावक्र राजा जनक को बताते हैं कि चित्त की अनेक वृत्तियां हैं। तुम अगर एक-एक को छोड़ने का प्रयस करोगे तो सफलता नहीं मिलेगी। इसलिए आत्म तत्व को जानो तो सभी वृत्तियां शांत हो जाएंगी।
अष्टावक्र गीता-63
निध्र्यातुं चेष्टितंु वापि यच्चितं प्रवर्तते।
निर्निमित्तमिदं किन्तु निध्र्यायति विचेष्टते।। 31।।
अर्थात: मुक्त पुरुष का चित्त
ध्यान या चेष्टा में प्रवृत्त नहीं होता है। लेकिन वह निमित्त या हेतु के बिना
ध्यान करता है और कर्म करता है।
व्याख्या: करने का भाव मात्र अहंकार है। अहंकार ही पहले उद्देश्य निश्चित करता है, फिर कर्म में प्रवृत्त होता है। अहंकार निरुद्देश्य कर्म कर ही नहीं सकता। उसे फल चाहिए जिससे उसकी वासना की तृप्ति हो सके। बिना फल की आकांक्षा के किया गया कर्म वह निरर्थक मानता है, उसका उसके लिए कोई मूल्य ही नहीं है। वह कहता है जिस कर्म में पैसा न मिले, सुख न मिले, आनन्द न मिले वह भी कोई कर्म है। समय बर्बाद करना है। वह जीवन का मूल्य ही पैसे में, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा में आँकता है। यह मिल गया तो जीवन धन्य हो गया। मरने पर यदि शव-यात्रा में हजार आदमी शामिल हो गये तो जीवन सफल। यदि अकेला मर गया तो कहता है वह कुत्ते की मौत मरा। यदि पाँच हजार आदमियों का मृत्यु भोज हो गया तो कहते हैं स्वर्ग गया अन्यथा कहता है वह श्मशान में लौट रहा है। अज्ञानी ने अपने मूल्य बना लिये हैं वह सबको इन्हीं मूल्यों से आँकता है। इसी प्रकार अज्ञानी सब कुछ चेष्टा से ही प्राप्त करना चाहता है। चेष्टा मात्र अहंकार के कारण होती है जिसके पीछे उद्देश्य होता है। वह किसी निमित्त को ध्यान में रखकर ही चेष्टा करता है, बिना हेतु अथवा निमित्त में ध्यान भी नहीं करता किन्तु ज्ञानी पुरुष का चित्त किसी ध्यान या चेष्टा में प्रवृत्त नहीं होता क्यांेकि उसे फल प्राप्ति की कोई इच्छा नहीं है। वह ध्यान भी करता है या कर्म भी करता है तो चेष्टा-रहित, श्रम-रहित, बिना किसी निमित्त या हेतु के स्वभाव से करता है।
तत्त्वं यथार्थमाकण्र्यः मन्दः प्राप्नोति मूढ़ताम्।
अथवाऽऽयाति संकोचममूढ़ः कोऽपि मूढ़वत्।। 32।।
अर्थात: मन्द बुद्धि यथार्थत्व को सुनकर मूढ़ता को ही प्राप्त होता है लेकिन कोई ज्ञानी मूढ़वत् होकर संकोच या समाधि को प्राप्त होता है।
व्याख्या: मन्द बुद्धि वह है जो केवल क्षुद्र वासनाओं से ही ग्रस्त है, जिसको अपने निजी स्वार्थों के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता, जो केवल शरीर-पोषण में ही लगा रहता है, जो इन्द्रिय-भोगों के अतिरिक्त किसी में रुचि नहीं लेता, ऐसे संकीर्ण मनोवृ़ित्त वाले को यदि यथार्थत्व का बोध कराया जाय तो वह उसे सुनकर मूढ़ता को ही प्राप्त होता है। यह तत्व-बोध अति सूक्ष्म का विवेचन है जिसे स्थूल बुद्धि वाला कैसे समझ सकता है। जिसका चित्त वासना ग्रस्त है, अहंकार युक्त है, तृष्णा, कामना वाला है वह इस तत्व-बोध को पाकर भी इसे विकृत कर देगा जैसे जहर में अमृत मिलाने पर वह अमृत भी जहर हो जाता है। किन्तु इसके विपरीत ज्ञानी मूढ़वत् दिखाई देने पर भी वह स्व-चेतना को पहचान कर समाधि को उपलब्ध हो जाता है। ज्ञानी बाहर मूढ़वत् व्यवहार इसलिए करता है कि उसके कार्य में बाधा उपस्थित न हो तथा अपनी अनुभूति को सही रूप से वह प्रकट कर नहीं सकता, न उसे करना ही चाहिए क्योंकि इस ज्ञान-प्रदर्शन से भी अहंकार बढ़ता है।
एकाग्रता निरोधो वा मूढ़ैरभ्यस्ते भृशम्।
धीराः कृत्यं न पश्यन्ति सुप्तवत् स्वपदे स्थितः।। 33।।
अर्थात: अज्ञानी चित्त की एकाग्रता अथवा निरोध का बहुत अभ्यास करता है लेकिन धीर पुरुष सोये हुए व्यक्ति की तरह अपने स्वभाव में स्थिर रहकर कुछ करने योग्य नहीं देखता है।
व्याख्या: आत्म ज्ञान के लिए करना कुछ नहीं पड़ता। करके आज तक कोई आत्मज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ। बुद्ध ने छः वर्ष खूब किया किन्तु मिला कुछ नहीं किन्तु जब सब करना छोड़ा तब मिला। मिलने में समय भी नहीं लगता। एक क्षण में मिलता है जैसे जनक को मिला, बुद्ध को मिला, अन्य सब को इसी भाँति मिला। करने से मिलता है यही सबसे बड़ी भ्रान्ति है। ज्ञान-प्राप्ति के लिए करना कुछ नहीं पड़ता, केवल जागकर देखना मात्र है, सजगता एवं बोध-मात्र पर्याप्त है। जिसे खोया नहीं उसे ढूँढना कैसा, जो भीतर मौजूद है उसकी तलाश कैसी, जो हमारा स्वभाव है उसके लिए क्या प्रयत्न करना। किन्तु सारा प्रयत्न होता है अन्तःकरण की शुद्धि के लिए। जब तक चित्त निर्मल नहीं होगा आत्मा का आभास नहीं हो सकता। इसलिए अज्ञानीजन चित्त की एकाग्रता के लिए अथवा चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए विभिन्न साधनाएँ करते हैं, उनका बार-बार अभ्यास करते हैं क्योंकि मन बड़ा चंचल है, बार-बार पकड़कर ठिकाने लाते हैं किन्तु वासनाग्रस्त होने से वह बार-बार विषयों की ओर भाग जाता है। विषयों की ओर भागने से उसे रोक देने में ही समय लगता है। इसके बाद कोई समय नहीं लगता। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि अज्ञानी चित्त की एकाग्रता अथवा निरोध के लिए बहुत-बहुत अभ्यास करता है किन्तु जिसकी चित्त की समस्त वृत्तियाँ शान्त हो चुकी हैं उसे कुछ भी अभ्यास नहीं करना पड़ता। वह सोये हुए व्यक्ति की भाँति केवल अपने स्वभाव में स्थित रहता है क्योंकि आत्मा में स्थित हो जाने पर फिर उसके लिए करने योग्य कुछ शेष रहता ही नहीं।
अप्रयत्नात्प्रयत्नाद्वा मूढ़ो नाप्नोति निर्वृ़ित्तम्।
तत्त्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृत्तः।। 34।।
अर्थात: अज्ञानी पुरुष प्रयत्न अथवा अप्रयत्न से निवृत्ति को प्राप्त नहीं होता है जबकि ज्ञानी पुरुष केवल तत्त्व को निश्चयपूर्वक जानकर ही निवृत्त हो जाता है।
व्याख्या: इस सूत्र में अष्टावक्र आत्मज्ञान प्राप्ति का महत्वूपर्ण तथ्य प्रकट करते हैं कि चित्त की अनेक वृत्तियाँ हैं। एक-एक को छोड़ने के प्रयत्न से कोई सफलता नहीं मिलती। फिर ये सभी वृत्तियाँ पत्तों की भाँति हैं, मूल है अहंकार एवं वासना जिनके रहते वृत्तियों को काट देने से वे नये-नये रूपों में प्रकट होती रहेंगी। मूल को सींचते रहो एवं पत्तों को काटते रहो इससे कभी उपलब्धि नहीं हो सकती। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि अज्ञानी पुरुष चाहे कितनी ही साधना क्यों न करे, कितना ही प्रयत्न क्यों न करे कभी भी निवृत्ति को प्राप्त नहीं होता है, उसकी वृत्तियाँ शान्त नहीं होतीं क्योंकि भीतर अहंकार एवं वासना मौजूद है। इसके विपरीत ज्ञानी आत्मतत्व को निश्चयपूर्वक जानकर ही निर्वृत्त हो जाता है। उसकी सभी वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं। प्रयत्न नहीं करना पड़ता। कोई साधना नहीं करनी पड़ती।
शुद्धं बुद्धं प्रियं पूर्णं निष्प्रपञचं निरामयम्।
आत्मानं तं न जानन्ति तत्राभ्यासपराजनाः।। 35।।
अर्थात: इस संसार में अभ्यास परायण पुरुष उस आत्मा को नहीं जान पाते जो शुद्ध, बुद्ध, प्रिय, पूर्ण, प्रपंच-रहित और दुःख-रहित है।
व्याख्या: आत्मा शुद्ध है, वह निखालिस है, उसमें विकृति नहीं है, वह बोध स्वरूप है, स्वयं ज्ञान है। उसको जानने के लिए बाहरी ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, वह प्रिय है, पूर्ण है, प्रपंच रहित है और दुःख रहित है। ऐसी आत्मा हमारा स्वभाव है। हमने भूल से शरीर, मन, अहंकार आदि को हमारा स्वभाव मान लिया है जो भ्रान्ति मात्र है। आत्मा को जानने के लिए इस भ्रान्ति को मिटाना मात्र है और कोई अभ्यास काम नहीं आता। संसार में जो लोग अभ्यास परायण होकर आत्मा को जानना चाहते हैं वे उसे कभी नहीं जान सकते। अभ्यास से अहंकार बढ़ता है, चित्त की वृत्तियाँ शान्त होने के बजाय और विद्रोह करती हैं। संसार का आकर्षण ही ऐसा है कि वह मन को बाहर की ओर ही ले जाता है। अभ्यास से वृत्तियाँ और दृढ़ हो जाती हैं जिससे यह अभ्यास भी बन्धन बन जाता है। आत्मज्ञान तो भ्रान्ति के मिटने से ही होता है। सभी अभ्यास छोड़ने से चित्त की शान्त अवस्था में ही उसकी अनुभूति होती है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)